आर्थिक सुधारों के जनक के लिए यह राजनीतिक सुधार की पहल करने का वक्त है। पहली प्राथमिकता: सरकार के सर्वोच्च स्तर पर अभिषेक के दौरान डॉ. मनमोहन सिंह को बड़ी दृढ़ता के साथ, कैबिनेट मंत्रियों द्वारा ली जाने वाली गोपनीयता की शपथ का परित्याग कर देना चाहिए। दूसरा कदम : कैबिनेट की बैठकों के दौरान मोबाइल फोन पर प्रतिबंध। इन दोनों में से कौन-सा ज्यादा कठिन है? अपनी आत्मछवि के प्रति राजनेताओं की सैद्धांतिक प्रतिबद्धता में बदलाव की बजाय भारत के संविधान में संशोधन ज्यादा आसान है। लोकतंत्र की अपनी मांगें होती हैं। वर्तमान केंद्रीय मंत्रिमंडल ने आधिकारिक गोपनीयता के अपने उत्तरदायित्य का पूरी तरह मजाक बना डाला है। कुछ मंत्री तो बैठक की समाप्ति तक का इंतजार नहीं करते और उन्हें जो पता चलता है, एसएमएस के जरिए अपने दोस्तों और पत्रकारों को खुश करने के लिए गप्पबाजी वाली विस्तृत सूचनाएं भेजना शुरू कर देते हैं। अगर आपको कहानी के अपने संस्करण के हिसाब से जनमत को आकार देना है और इस बारे में कोशिश करनी है, तो आपको ब्लॉक में अव्वल होना होगा। पुराने समय में कोई छुटपुट जानकारी बाहर आना भी लांछन लगने के लिए पर्याप्त माना जाता था। अब कैबिनेट से ऐसी लीक नहीं होती, मूसलाधार बारिश बाहर निकलती है। अगर प्रधानमंत्री व्यथित हों, तो उनके पास यह जताने का कोई मौका नहीं होता। यूपीए के न्यूनतम या अधिकतम कार्यक्रम में अनुशासन कोई शर्त नहीं है। मल्टी ब्रांड रिटेल चेन्स में 51 फीसदी विदेशी हिस्सेदारी की अनुमति देने संबंधी निर्णय की ओर धकेली गई कैबिनेट बैठक की शब्द-दर-शब्द कमेंटरी हुई थी। इसे कब, क्या हुआ और किसने क्या कहा के जटिल विस्तार से संवारा गया था। हम हूबहू जानते हैं कि कैसे वित्तमंत्री प्रणब मुखर्जी ने बंगाल के अपने गठबंधन सहयोगी दिनेश त्रिवेदी को झिड़की दी, कैसे त्रिवेदी ने तूफान खड़ा कर दिया और फिर कैसे कमलनाथ के बीच-बचाव के बाद तूफान वापस हुआ। जयराम रमेश की टिप्पणी कि इस फैसले की कीमत कांग्रेस को उत्तरप्रदेश में कुछ सीटों से चुकानी पड़ेगी, की रिपोर्ट इतने ठीक-ठीक ढंग से आई है, मानो उन्होंने प्रेस रिलीज की हो। शरद पवार की इनकारनुमा रपट कि किसी भी मामले में कांग्रेस अच्छी तरह तैयार नहीं थी, को डायरी स्तंभों में बराबर की जगह मिली। इस बात पर एक गंभीर तार्किक बहस चल पड़ी है कि क्या एफडीआई पर कांग्रेस ने गठबंधन सहयोगियों को महज सूचित किया, उनके साथ बातचीत की या फिर विचार-विमर्श किया। सुधार क्रमांक 3 एकदम स्पष्ट है। संसद को आभासी संसद में बदल देना चाहिए। इस बात की कोई जरूरत नहीं होनी चाहिए कि कोई सांसद वाकई सदन में जाए। वह घर में बैठकर स्क्रीन और साउंड सिस्टम के नेटवर्क के जरिए हिस्सा ले सकता है या सकती है। जब दृश्य-श्रव्य संजाल की बदौलत निजी क्षेत्र के कर्मचारी अपने घर को कार्यालय में बदल सकते हैं, तो फिर संसद क्यों नहीं? इससे हवाई टिकटों और आवास पर काफी बचत होगी, क्योंकि सांसदों को दिल्ली के लिए नहीं उड़ना होगा। समूहगत व्यवहार तत्काल खत्म हो जाएगा, फलस्वरूप आसंदी के आसपास अक्सर हो जाने वाली भीड़ खत्म होगी, जो अध्यक्ष को कार्यवाही स्थगित करने के लिए बाध्य करती है। हमें बिना हंगामे और बाधा वाला पूरा सत्र मिल सकता है और हालांकि यह टेलीविजन के लिए डरावना होगा, पर विधि-विधान और बहस के लिए अच्छा हो सकता है। कुछ राज्यों ने सत्र की लंबाई को परम सीमा तक न्यूनतम कर दबे-छुपे ढंग से सुधार किए हैं। हाल ही में दिल्ली विधानसभा महज दो दिनों के लिए आमंत्रित की गई। आभासी संसद को ऐसी नीरस चालों की जरूरत ही नहीं होगी। बहरहाल, यहां किसी भी सांसद पर कैंटीन में सस्ते भोजन के लिए संसद आने पर कभी कोई रोक नहीं होनी चाहिए। यह सांसदों का बुनियादी अधिकार और भारतीय लोकतंत्र की आधारशिला है। (ब्रिटिश लोकतंत्र की बुनियाद पार्लियामेंट में मयखाना है। यही वजह है कि क्यों वहां बहसें ज्यादा जोशीली होती हैं।) चौथा सुधार : एक बार जब गठबंधन सहयोगी यह सुनिश्चित कर दें कि नई सरकार के पास आवश्यक बहुमत है, उन्हें कानूनी तौर पर विचार या अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता से वंचित कर दिया जाना चाहिए। यह गठबंधन में तनाव के प्रमुख कारण को ही दूर कर देगा। इस तथ्य को दृष्टिगत रखते हुए कि हम कम से कम अगले एक दशक के लिए सत्ता में भागीदारी व्यवस्था की ओर बढ़ रहे हैं, यह एक अत्यावश्यक सुधार है। 2009 में असरदार 200 से ज्यादा सीटें हासिल करने के बाद कांग्रेस ने एकदलीय शासन का दिवास्वप्न देखना शुरू कर दिया था, लेकिन अब कांग्रेस के प्राधिकार प्राप्त नेता भी ऐसे भ्रम को झटक चुके हैं। भाजपा तो इस बारे में सोच भी नहीं सकती। गठबंधन सहयोगियों के लिए किसी भी प्रधानमंत्री का संदेश सामान्य होगा : बने रहो, या चुप रहो। पांचवां (और अंतिम) सुधार : डॉ. सिंह को संसद में 51 प्रतिशत विदेशी प्रत्यक्ष निवेश की अनुमति देनी ही चाहिए। यह तत्काल भारतीय राजनीतिक निकाय में पारदर्शिता और सुव्यवस्था ले आएगा। लोकसभा के शेयरों की खरीद लोकतंत्रों तक ही सीमित होगी और इस तरह चीन से किसी खतरे का अंदेशा नहीं रह जाएगा। अगर अमेरिकी लोकसभा का नियंत्रक बहुमत खरीदते हैं, तो हम शासन की राष्ट्रपति प्रणाली में जा सकते हैं, राष्ट्रपति भवन के बड़े हिस्से को माननीय मंत्रालयों में बदल सकते हैं और एक मुकम्मल मीडिया के पालन-पोषण के लिए जरूरी तमाम राजनीतिक नौटंकी को रख सकते हैं। यदि ब्रिटिश 51 प्रतिशत शेयर लेते हैं, तो वे केंद्रीय कक्ष में तीन पब शुरू कर सकते हैं, जो निश्चित ही सदस्यों का मूड बेहतर करेगा। यदि फ्रांसीसी प्रभार लेते हैं, तो वे भारतीय वायुसेना को अपने राफेल लड़ाकू विमान की तीव्र आपूर्ति सुनिश्चित कर सकते हैं। इस सुधार का एकमात्र खतरा है कि रोम या एथेंस नियंत्रण ले सकते हैं और भारत को यूनान या इटली में बदल सकते हैं, लेकिन सौभाग्य से अब उनके पास पैसा ही नहीं है। - लेखक द संडे गार्जियन के संपादक और इंडिया टुडे के एडिटोरियल डायरेक्टर हैं।
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