Sunday 15 January 2012

फतवे देना उल्माओं का काम है , मानना या न मानना आपका काम ?
उसके होंटों की तरफ़ ना देख वो क्या कहता है,

उसके क़दमों की तरफ़ देख वो किधर जाता है...


इस्लामी उलेमाओं के मुंह से निकली हर बात फ़तवा नहीं होती !

** दुनिया के साथ साथ आज का मुसलमान भी अन्य सम्प्रदायों की तरह काफी बदल रहा है लेकिन यह बात सच है कि वह और वर्गों की तरह तेजी से नहीं बदल रहा है। यह भी सही है कि मुसलमान अपने धर्म को लेकर संवेदनशील और कट्टर और लोगों से अधिक होता है लेकिन इसके साथ साथ इस बात से भी इन्कार नहीं किया जा सकता कि जैसे जैसे मुसलमानों में उच्च शिक्षा बढ़ रही है वैसे वैसे उनमें प्रगतिशीलता और आध्निकता भी बढ़ती जा रही है। जहां तक फ़तवे का सवाल है यह एक तरह की मज़हबी राय होती है। फ़तवे को लेकर गैर मुस्लिम ही नहीं बल्कि खुद मुसलमानों में कई गलतफ़हमियां रही हैं। पूरी दुनिया और मुस्लिम मुल्कांे का तो हमें पूरा ज्ञान नहीं है लेकिन जहां तक भारत का सवाल है यहां दारूलउलूम देवबंद को सुन्नी मुसलमान काफी अहमियत और मान सम्मान देते हैं।
** जहां तक मेरी जानकारी है देश ही नहीं बल्कि पूरे एशिया में देवबंदी मुसलमान दारूलउलूम के फ़तवे को एक तरह से इस्लाम का अंतिम सत्य मानते हैं। कम लोगों को पता होगा कि फ़तवा केवल एक मुफ़ती ही दे सकता है। कोई आम मस्जिद का मौलाना या कितना ही बड़ा इस्लामी विद्वान अगर वह मुफ़ती की डिग्री नहीं रखता है तो वह फ़तवा देने के लिये अधिकृत नहीं है। अगर वह जानकारी मांगे जाने पर कोई मज़हबी राय ज़ाहिर भी करता है तो वह फ़तवा नहीं कहला सकता। ऐसे ही देवबंद के दारूलउलूम का हो या कहीं किसी और मदरसे का मुफ़ती अगर वह किसी के द्वारा बिना मांगे किसी मामले में या किसी विषय पर अपनी राय ज़ाहिर करता है तो वह हमेशा फ़तवा नहीं होती।
** ऐसे ही इस्लामी विद्वानों द्वारा चुनाव, मुस्लिम आरक्षण या किसी और मुद्दे पर कोई अपील अगर मुस्लिमों के लिये जारी की जाती है तो वह फ़तवा नहीं होती। कई लोग और ख़ासकर मीडिया कई बार ऐसी अपीलों और विचारों को फ़तवा मानकर पेश करते हैं। इससे समाज में गलतफहमी और परस्पर वैमनस्यता फैलती है। ख़ासतौर पर दिल्ली की जामा मस्जिद के इमाम अहमद बुख़ारी अगर कुछ भी बोलते हैं तो पूरी दुनिया में यह संदेश जाता है कि उन्होंने मुसलमानों के लिये यह फ़तवा जारी किया है। मज़ेदार बात यह है कि न तो वह मुफ़ती हैं और न ही उनसे कोई मुसलमान इस बारे में राय मांगता है लेकिन वह चर्चा में आने के लिये गाहे ब गाहे ऐसे अजीबो गरीब बयान जारी करते रहते हैं मानो उनसे बड़ा मुस्लिम मसीहा कोई दूसरा ना हो।
**उनके ऐसे नादानी भरे और कट्टरपंथी बयानों से न केवल मुसलमानों को शर्म और अपमान का सामना करना पड़ता है बल्कि पूरी दुनिया में उनकी जगहंसाई भी होती है। अन्ना के आंदोलन को लेकर उन्होंने जो बयान दिया उससे यही कहानी दोहराई गयी थी। हम उन लोगों से भी सहमत नहीं हैं जो उलेमा पर यह आरोप लगाकर उंगली उठाते हैं कि उन्होंने अमुक मामले में यह फ़तवा क्यों दिया? उनका काम तो इस्लाम की रोश्नी में हर मामले पर फ़तवा देना है। जिनको वह पसंद आये वे उसको मान कर मरने के बाद अपनी जगह जन्नत में पक्की कर सकते हैं जिनको यहीं मौज मस्ती करनी है वे गुनाहगार बनकर आखि़रत में सज़ा भुगतने के लिये तैयारी कर सकते हैं।
**मुफती लोग कभी भी भारत में यह नहीं कहते कि जो उनके दिये फ़तवे को नहीं मानेगा उसको यहीं सज़ा दी जायेगी। वे फ़तवा जारी करते हुए यह शर्त भी नहीं लगाते कि जो फ़तवा ले रहा है वह हर कीमत पर फ़तवे को मानेगा। उनका यह काम भी नहीं है। बहरहाल उनका काम मात्र फ़तवा देना है तो वे फ़तवा तो वही देंगे ना जो इस्लाम में बताया गया है। कुछ माडर्न मुस्लिमों का सवाल होता है कि आज के ज़माने में ब्याज, महिला पुरूष गैर बराबरी, निकाह-तलाक़, हलाला, मेहर, विज्ञान, फोटो, फिल्म, टीवी, परिवार नियोजन, गीत संगीत, हराम हलाल , जायज़ नाजायज़ के फ़तवे के हिसाब से कैसे तरक्की की जा सकती है तो जनाब इस्लाम तो वही है जो फ़तवा दिया जा रहा है अगर आपको इस पर अमल करने में दिक्कत है तो आपको अपने अंदर बदलाव से कौन रोक रहा है?
** दूरअंदेश और समझदार लोग जानते हैं कि आज तक ना तो इस्लाम जैसे किसी धर्म में कोई संशोधन हुआ और ना ही होगा लेकिन इसके बरअक्स आज आप गौर से देखें तो आपको मुसलमानों में भी ऐसे लोगों की तादाद तेज़ी से बढ़ती दिखाई देगी जो आधुनिक तौर तरीके़ ठीक उसी तरह से अपना रहे हैं जिस तरह से गैर मुस्लिम लोग अपना रहे हैं। उनका अंदरूनी तौर पर मानना दरअसल यही है कि 1400 साल पुराने नियम कानूनों पर चलकर आज जिंदगी नहीं गुज़ारी जा सकती। रोचक बात यह है कि ये लोग पूरी तरह आधुनिक और प्रगतिशील सोच से जुड़ चुके हैं और उनका यक़ीन भी यही है कि वे जिस रास्ते पर चल रहे हैं वही ठीक है लेकिन उनके अंदर इतना साहस और नैतिकता हमारी तरह नहीं है कि वे इस सत्य और तथ्य को लोगों के सामने स्वीकार कर सकें।
** हमारा दावा है कि आदमी जो कुछ कहता है वह वो नहीं होता बल्कि वह जो कुछ करता है वह वो होता है। आज आप सर्वे करा सकते हैं कि कितने लोग मज़हबी दिखावा करने के बावजूद उसकी सभी हिदायतों पर सख़्ती से अमल कर रहे हैं और कितने आगे बढ़ने के लिये वो सब कुछ कर रहे हैं जो उनका मक़सद हल करता है। फ़तवे का डर हो तो समझदार को इशारा ही काफी होता है।





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