Tuesday, 17 January 2012


आइए इस धर्मयुद्ध में प्रोतिमा का साथ दे

सोशल नेटवर्किंग पर अभिव्यक्ति की आजादी के मायने

सोशल नेटवर्किंग पर लगाम कसने की खबर से कोहराम मचा हुआ है। राजनीतिक व सामाजिक स्तर पर बहस जारी है। केन्द्रीय दूर संचार और सूचना टेक्नोलॉजी मंत्री कपिल सिब्बल ने जब यह कहा कि उनका मंत्रालय इंटरनेट में लोगों की छवि खराब करने वाली सामग्री पर रोक लगाने की व्यवस्था विकसित कर रहा है और सोशल नेटवर्किंग वेबसाइट्स से आपत्तिजनक सामग्री को हटाने के लिए एक नियामक व्यवस्था बना रही है। हडकंप मचना जाहिर सी बात है। हालांकि उन्होंने स्पष्ट किया कि सरकार का मीडिया पर सेंसर लगाने का कोई इरादा नहीं है। सरकार ने ऐसी वेबसाइट्स से संबंधित सभी पक्षों से बातचीत की है और उनसे इस तरह की सामग्री पर काबू पाने के लिए अपने पर खुद निगरानी रखने का अनुरोध किया। लेकिन सोशल नेटवर्किंग वेबसाइट्स के संचालकों ने इस बारे में कोई ठोस जवाब नहीं दिया।

मीडिया के नए मापदंड

जिग्ना की कलंकित कथा के बहाने


जिग्ना वोरा
मीडिया अपराधियों के महिमा मंडन में लगा है। इसके लिए जिम्मेदार अपराध कवर करनेवाले हमारे मक्कार मित्रों के चालाक तर्कों या कुतर्कों का तो खैर कोई जवाब नहीं। लेकिन आपसे एक विनम्र सवाल है... दिल पर हाथ रखकर बिल्कुल ईमानदारी से जवाब दीजिएगा। सवाल यह है कि राजनीति कवर करते करते बहुत सारे पत्रकार नेता बन गए। फिल्में कवर करते करते कई पत्रकार फिल्मों में एक्टिंग करने के अलावा निर्माण और निर्देशन में लग गए। खेल कवर करते करते कई पत्रकार खेल बोर्ड के चेयरमेन, टीम मैनेजर और टूर्नामेंट के आयोजक बन गए। बिजनस कवर करते करते कई पत्रकार स्टॉक ब्रोकर और बिजनसमैन बन गए। तो अपराध की दुनिया की खबरों को जीनेवाले किसी पत्रकार का मुकाम क्या होगा ? अगर वह अपराधियों की गोलियों का शिकार बन जाए, या जेल चला जाए, तो किस मामले की हाय तौबा और किस बात की तकलीफ ?

क्यों न हो मीडिया भी लोकपाल के दायरे में ?


मीडिया के चरित्र को लेकर अभी बवाल मचा हुआ है। बयानों को लेकर कोहराम है। उंगलियां दोनों ओर उठ रही हैं। यह तब हुआ जब उच्चतम न्यायालय के भूतपूर्व न्यायाधीश और फिलहाल प्रेस परिषद के अध्यक्ष मार्कडेय काटजू ने भारतीय मीडिया की कुछ खामियों को सामने लाया है। मार्कडेय मानते है कि, ‘हमारा मीडिया फासिस्ट है इसपर नजर रखना जरूरी है। उनकी राय में, ’‘भारतीय मीडिया का एक बड़ा हिस्सा खासतौर से इलेक्ट्राॅनिक मीडिया जनता के हितों को पूरा नहीं करता, वास्तव में इनमें से कुछ यकीनन जनविरोधी है। भारतीय मीडिया में दोष हैं। जिन्हें मैं रेखांकित करना चाहता हूँ। मीडिया अक्सर लोगों का ध्यान वास्तविक मुद्दों की ओर से अ-वास्तविक मुद्दों की ओर भटकाता है। मीडिया अक्सर लोगों को विभाजित करता है’’(देखें- इंडियन एक्सप्रेस 4 नवम्बर 2011 और मोहल्लालाइव डाट काम, 05 नवम्बर, 2011)। श्री काटजू के स्टेटमेंट पर विशेष कर इलेक्ट्राॅनिक मीडिया में बौखलाहट देखी गयी। देखा जाय तो श्री काटजू ने उन्हीं चीजों की तरफ इशारा किया है, जो मीडिया को भ्रष्टाचार में लवरेज करने से परहेज नहीं करता, बल्कि सुनिश्चित करता है। एक दौर था जब पत्रकारिता की बागडोर वैसे पत्रकारों के हाथ में थी जो इसे मिशन के तौर पर अपनाये हुए, थे वे आज इतिहास के पन्नों में कैद हैं। वहीं आज के दौर में पत्रकारिता की बागडोर उन लोगों के हाथ में पहुंच रहा है जिन्हें पत्रकारिता से कोई लेना-देना नहीं बस उनका ‘मुनाफा’ होना चाहिये। ऐसे में उनसे स्वस्थ पत्रकारिता की उम्मीद की आ सकती है ? वरिष्ठ पत्रकार अमलेंदु उपाध्याय कहते है,‘‘क्या यह सही नहीं है कि अब मीडिया के क्षेत्र में बिल्डर, चिट फण्ड कंपनियां और तस्कर उतर रहे हैं। ज्यादा समय कहां बीता है जब मध्य प्रदेश के ग्वालियर में तीस से ज्यादा चिट फण्ड कंपनियों को प्रशासन ने सील किया और मजे की बात यह है कि इनमें से अधिकांश चिट फण्डिए अखबार भी निकाल रहे थे और उनके न्यूज चैनल भी हैं! तो क्या अब पत्रकारिता का पाठ गणेश शंकर विद्यार्थी, बाबूराव पराड़कर, राहुल बारपुते, राजेन्द्र माथुर और प्रभाष जोशी से न पढ़कर इन चिटफण्डियों और तस्करों से पढ़ना पड़ेगा ? (देखें-क्या पत्रकारिता पर काटजू की न सुनकर तस्करों को सुना जाए ?- अमलेंदु उपाध्याय, हस्तक्षेपडाटकाम, 24 नवम्बर 2011)।

मीडिया में भ्रष्टाचार कोई नई बात नहीं। हंगामा तब बरपा जब मीडिया के बड़े ‘जनाब’ भ्रष्टाचार में फंसे पाये गये। और यह हुआ नीरा राडिया प्रकरण से। इसने भारतीय मीडिया के उस परत को खोला जो दिखता नहीं था। मीडिया के चश्में के ऊपर जमा हुआ ‘भ्रष्टाचार’ नजर जरूर आ रहा था। छोटे या बड़े स्तर पर मीडिया में भ्रष्टाचार इंगित करता है कि पत्रकारिता खतरे में हैं? हालांकि इसे पूरी तरह से स्वीकार नहीं किया जा सकता। क्योंकि, पत्रकारों की बड़ी जमात आज भी पूरी ईमानदारी से अपना काम कर रही है। लेकिन, जो दाग मीडिया के उपर लग चुका है या फिर जो कथित मीडिया में भ्रष्टाचार व्याप्त है वह भविष्य के लिए खतरनाक है।

यह सच है कि नीरा राडिया प्रकरण ने भारतीय मीडिया की चूलें हिला दी। मीडिया के शिखर पर बैठे सफेदपोशों को नंगा कर दिया। जनप्रहरी सवालों के घेरे में आ गये। मुद्दे अपनी जगह पर है। लेकिन, जो दाग मीडिया पर लग चुका है, वो जग जाहिर है। राडिया कांड ने पत्रकारों को मजाक का पात्र बना दिया है। मीडिया विशेषज्ञ, वर्तिका नंदा कहती है,‘‘ राडिया कांड के बाद पत्रकारों से पूछा जाता है क्यों भाई मीडिया से आये हो या राडिया से और वह एक छोटा सा मजाक मीडिया के ताजा हाल पर बेहतरीन टिप्पणी बन जाता है। पत्रकारिता को पूरी तरह से उत्पादन बनाते ही जनतंत्र में पत्रकारिता का मूल मकसद कहीं पानी में घुल सा जाता है और धीरे-धीरे जनता का विष्वास खो जाता है’’ (देखें-मीडिया विमर्ष, जनवरी-मार्च, 2011, भोपाल)।

भ्रष्टाचार को लेकर हालांकि अक्सर सवाल उठते रहे हैं, लेकिन छोटे स्तर पर। छोटे-बडे़ शहरों, जिलों एवं कस्बों में मीडिया की चाकरी बिना किसी अच्छे मासिक तनख्वाह पर काम करने वाले पत्रकारों पर हमेशा से पैसे लेकर खबर छापने या फिर खबर के नाम पर दलाली के आरोप लगते रहते हैं। खुले आम कहा जाता है कि पत्रकारों को खिलाओ-पिलाओ-कुछ थमाओ और खबर छपवा लो। जैसे पत्रकार, पत्रकार न हो कोई दलाल हो ? मीडिया की गोष्ठियों में, मीडिया के दिग्गज गला फाड कर, मीडिया में दलाली करने वाले या खबर के नाम पर पैसा उगाही करने वाले पत्रकारों पर हल्ला बोलते रहते हैं । स्वाभाविक है, हो हल्ला तो होगा ही ? नीरा राडिया, विकीलिक्स, पेड न्यूज, सीडी काण्ड, स्टींग के नाम पर ब्लैकमेल सहित कई ऐसे ढेरों मामले पड़े हैं, जिसने मीडिया को बेहद ही अविष्वासी नजरिये से देखने पर मजबूर कर दिया। प्रख्यात पत्रकार प्रभाष जोशी ने जब मीडिया के अंदर पैसे लेकर खबर छापने यानी पेड न्यूज की खिलाफत करनी शुरू की थी तो मीडिया दो खेमे में बंट गयी। आरोप-प्रत्यारोप की गूँज सुनाई पड़ने लगी थी। आज एक बार फिर मीडिया सवालों के घेरे में आया है। आरोप-प्रत्यारोप का दौर चल पड़ा है।

देश भर में घूम घूम कर प्रभाष जोशी ने पत्रकारिता के नाम पर दलाली करने और खबर बेचने वालों के खिलाफ झंडा उठाया था तो पत्रकारों का एक तबका पेड न्यूज के खिलाफ गोलबंद हुआ तो दूसरी ओर मीडिया हाउसों के मालिकों के हां-में-हां मिलाते पत्रकार, विरोधियों पर हल्ला बोलने से नहीं चूके। खैर, यह उनकी मजबूरी रही होगी ? तेजी से मीडिया के बदलते हालातों के बीच पत्रकारिता के एथिक्स और मापदण्डों पर बात करना बेमानी-सी प्रतीत होने लगी है। लोकतंत्र पर नजर रखने वाला मीडिया, धीरे-धीरे भ्रष्टाचार के जबड़े में पहुंच गया है। हालांकि, इसे पूरी तरह से स्वीकार नहीं किया जा सकता क्योंकि, मीडिया की आड़ में दलाली करने एवं खबरों को बेचने जैसे भ्रष्ट तरीके के खिलाफ मीडिया ने सवाल उठाये।

प्रभाष जोशी ने जिस खतरे से अगाह किया था, वह साफ दिखने लगा है। मीडिया में भ्रष्टचार, पत्रकारिता की सेहत के लिए अच्छी नहीं है। इससे सिद्धांत का, खतरे में पड़ जाना तय है। इस खतरे पर अपनी चिंता व्यक्त करते हुए चर्चित पत्रकार मार्क टुली ने वर्ष 2007 में एक बातचीत में कहा था, ‘‘अगर पत्रकारिता को बचाना है तो पत्रकारिता के पुराने सिद्धांत के अनुसार काम करना पड़ेगा। प्लांटेड स्टोरी नहीं छापनी होगी। किसी भी समस्या के उत्पन्न होने पर एकता बनाकर साथ-साथ लड़ना होगा। अगर आज के पत्रकार अपनी जिम्मेदारी को सही रूप में समझ लें तो निष्चित रूप से पत्रकारिता की गुणवता बढ़ेगी इसके साथ ही मैं एक चीज और विशेष रूप से कहना चाहूंगा कि इलेक्ट्रानिक मीडिया को अपने में ही सुधार लाने की आवश्यकता है अगर वे इसी प्रकार की खबरें प्रसारित करते रहे तो भविष्य में खबर की विश्वसनीयता बनाये रखना मुष्किल हो जायेगा’’ (देखें-‘खबरों का चयन विज्ञापन प्रबंधक के हाथों’, प्रभात खबर, पटना 11 फरवरी 2007)।

यकीनी तौर पर मौजूदा भ्रष्टाचार सबसे बड़ी चुनौती के तौर पर है। ऐसे में गणतंत्र के प्रहरी मीडिया का भ्रष्टाचार के आगोश में आ जाने पर विषय चिंतनीय प्रतीत होता है। सवाल भ्रष्ट होते पत्र और पत्रकारों का है। जो छोटे स्तर से लेकर बड़े स्तर तक है। वजह जो भी हो, इसके फैलाव पर अकुंश की जरूरत है।

छोटे स्तर पर पत्रकारों के भ्रष्ट होने के पीछे सबसे बड़ा मुद्दा आर्थिक शोषण प्रतीत होता है। छोटे और बड़े मीडिया हाउसों में 15 सौ रूपये के मासिक पर पत्रकारों से 10 से 12 घंटे काम लिया जाता है। उपर से प्रबंधन की मर्जी, जब जी चाहे नौकरी पर रखे, या निकाल दें। भुगतान दिहाड़ी मजदूरों की तरह है। वेतन के मामले में कलम के सिपाहियों का हाल, सरकारी आदेशपालों से भी बुरा है। ऐसे में यह चिंतनीय विषय है कि एक जिले, कस्बा या ब्लाक का पत्रकार, अपनी जिंदगी, पानी और हवा पी कर तो नहीं गुजारेगा ? वहीं पर कई छोटे-मंझोले मीडिया हाउसों में कार्यरत पत्रकारों को तो कभी निश्चित तारीख पर तनख्वाह तक नहीं मिलती है। सेंटीमीटर या कालम के हिसाब से भुगतान पर काम करने वाले पत्रकारों से क्या उम्मीद की जा सकती है ? उपर से मीडिया हाउस का विज्ञापन लाने और अखबार की बिक्री को बढ़ाने का दबाव। विरोध करने पर निकाल दिया जाता है। आज पत्रकारों से मिशन नहीं दलाली या फिर अखबार चैनल के लिए पैसा उगाही कराये जाने पर दबाव डाला जाता है। पत्रकार कुमार सौवीर के साथ ऐसा ही कुछ हुआ, उन्होंने अपनी आपबीती, भडास4मीडियाडाटकाम पर डाली और पेड न्यूज के लिए चैनल ने जिस तरह दबाव बनाया उसका खुलासा किया, जो मीडिया के लिए शर्मनाक है (कुमार सौवीर की आपबीती पढ़ने के लिए देखें-‘पेड न्यूज के लिए मेरे चैनल ने मुझ पर किस तरह दबाव बनाया’, भडास4मीडियाडाटकाम, 25 नवम्बर 2011)।

पत्रकारों को भ्रष्ट बनाने में मीडिया हाउस जिम्मेवार हैं। एक स्ट्रिंगर को प्रति समाचार 10 रु. देते हैं, चाहे खबर एक कालम की हो या चार कालमों की। सुपर स्ट्रींगर को प्रति माह दो से तीन हजार पर रखा जाता है। छोटे मंझोले समाचार पत्र तो, कस्बा और छोटे जगहों पर कार्यरत पत्रकारों को एक पैसा भुगतान तक नहीं करते। हां उनके समाचार जरूर छप जाते हैं। ऐसे में उन पत्रकारों का आर्थिक शोषण और साथ ही साथ उन्हें विज्ञापन लाने को कहा जाता है, जिस पर कमीषन दिया जाता है। जबकि अखबार के मुख्य कार्यालयो में कार्यरत स्ट्रिंगर और सुपर स्ट्रिंगर को, तीन हजार से 14 हजार रूपये प्रतिमाह दिये जाते हैं। संपादक/प्रबंधक तनख्वाह तय करते हैं। अमूमन हर अखबार, कस्बा या छोटे शहरों में किसी को भी अपना प्रतिनिधि रख लेते हैं, उसे खबर के लिए कोई भुगतान नहीं किया जाता है। बल्कि वह जो विज्ञापन लाता है, उस पर उसे कमीषन दिया जाता है। अखबार का संपादक/प्रबंधक जानते हैं, कि वह बेगार पत्रकार अखबार के नाम पर अपनी दुकान चलायेगा। जो उसकी मजबूरी बन जाती है। आखिर दिन भर अखबार के लिये बेगार करेगा तो खायेगा क्या ? हालात यह है, कि पैसा मिले या न मिले किसी मीडिया हाउस से जुड़ने के लिए पत्रकारों की लम्बी कतार है। बिना पैसे और विज्ञापन के, कमीशन पर काम करने वाले पत्रकार मौजूद है ? इसके पीछे के कारण को मीडिया में सब जानते है, लेकिन इस परिपाटी को खत्म करने के लिए, किसी भी स्तर पर प्रयास नहीं दिखता।

खबरों का चयन सम्पदकों के हाथों होते हुए आज विज्ञापन प्रबंधन के हाथों में चला गया है। अखबार हो या चैनल अपने को चलाने के लिए, बाजार में बने रहने के लिए, खबरों को बेचने का काम बड़े सफाई से करते आ रहे हैं। तभी तो, चर्चित पत्रकार प्रभात जोशी ने खबरों को बेचे जाने और मीडिया में बढ़ती दलाली को लेकर देश भर में व्याख्यान देकर आलेख लिखकर पत्रकारिता व्यवसायी को बचाने की पूरजोर कोशिश की थी। इसी कड़ी में प्रभाष जोशी ने पटना में एक व्याख्यान के दौरान कहा था-‘‘पत्रकारिता के अंदर आज जो कुछ हो रहा है वह मेरे लिए खतरे की घंटी है। पत्रकारिता किसी मुनाफे या खुशी के लिए नहीं बल्कि पत्रकारिता लोकतंत्र में साधारण नागरिक के लिए एक वह हथियार है जिसके जरिए वह अपने तीन स्तम्भों न्यायपालिका, विधायिका और कार्यपालक की निगरानी करता है। अगर पत्रकारिता नष्ट होगी तो हमारे समाज से हमारे लोकतंत्र में निगरानी रखने का तंत्र समाप्त हो जायेगा। आज पत्रकारिता पर कोढ़े बरसाता हूं या धिकारता हूं तो वह मेरी पीठ पर ही पढ़ता है’’ (भडास4मीडियाडाटकाम, ‘लगता है उसपर रोलर चढ़ा देना पड़ेगा’-12जून 2009, ‘चुनाव में खबरें बिकी: प्रभात जोशी ’, प्रभात खबर, पटना 13 जून 2009)।

मीडिया में भ्रष्टाचार से इसकी विश्वसनीयता पर सवाल उठ खड़ा हुआ है। शर्मसार मीडिया को इस झटके से उबरने में समय लगेगा। मीडिया के उपर दाग लग चुका है। सवाल है कैसे छुटेगा यह...? इन सब में सिद्धांत की पत्रकारिता को चोट लगी है। खतरनाक है इसके र्दुगामी प्रभाव। प्रोफेसर बृज किषोर कुठियाला की माने तो, ‘‘भ्रष्टाचार की छोटी-मोटी घटना तो अब सामाचार ही नहीं बनती कार्यपालिक, न्यायपालिका और खबरपालिका सभी में भ्रष्ट व्यवहार की दुर्गंध जनमानस तक पहुंच रही है। यह तो वह कहानियां है जो खुल गयी, परंतु उनके खुलने से मन में एक और डर उत्पन्न होता है कि जो खुला नहीं वह कितना विराट और भयंकर होगा। अंग्रेजी शब्दावली का प्रयोग करें तो जितना खुला वह तो टिप आफ द आईस वर्ग है’’, (देखें-‘‘छद्म शिष्टाचारियों ने पैदा किया संकट’’, मीडिया विमर्श, जनवरी-मार्च 2011,भोपाल)।

पत्रकारिता को भ्रष्टाचार के खतरे से बाहर लाना होगा। इसके नकारात्मक भूमिका पर सवाल उठे रहे हैं। बहस/चर्चा/विमर्श जारी है। जरूरत है पत्रकारिता के जनकों ने जो सपना देखा है उसे यों मरने नहीं दिया जाये। लांमबद/गोलबंद होने का समय आ चुका है। ऐसे में सवाल उठता है क्यों न हो मीडिया भी लोकपाल के दायरे में ?

(लेखक आकाशवाणी पटना में बतौर समाचार संपादक कार्यरत हैं.)

न्यूज़ चैनलों के लिए बाजार बड़ा है या आत्म-नियमन ?


न्यूज चैनलों की दुनिया में इन दिनों खासी उथल-पुथल है. प्रेस काउंसिल के नये अध्यक्ष जस्टिस मार्कंडेय काटजू के बयानों और इरादों से हड़कंप है. ऐसा लगता है कि चैनलों को जस्टिस काटजू के डंडे का डर सताने लगा है. नतीजा, काटजू के भूत से निपटने के लिए चैनलों के अंदर कुछ कम लेकिन बाहर कुछ ज्यादा आत्मानुशासन और आत्मनियमन का जाप होने लगा है.

न्यूज़ चैनलों को महानायक का महाडोज!

अमिताभ का आखिरी रास्ता! , ट्विटर के सहारे, महा-नायक बिचारे 


गांव की कहावत है, कि बड़ा कौर (रोटी का टुकड़ा) खा ले, बड़े बोल न बोले । इस लेख को लिखते वक्त ये कहावत बखूबी मेरे जेहन में है। इस कहावत को मुझे अपने जेहन में रखने की जरुरत इसलिए है, क्योंकि मैं सदी के महानायक अमिताभ बच्चन और उनके परिवार से जुड़े मुद्दे पर लिखने की हिम्मत कर रहा हूं।

देश के मीडिया ने महा-नायक की पुत्र-वधू ऐश्वर्या की होने वाली संतान की खबरें, संतान के जन्म से पहले ही तानना शुरु कर दीं। भारत के न्यूज-चैनलों की भाषा में किसी खबर को “अति” तक पहुंचाने के लिए जो शब्द इस्तेमाल होता है, उसे ही “तानना” कहते हैं। दूसरे शब्दों में तानने का मतलब ये भी होता है, कि दर्शक को कोई चीज इस हद तक दिखा दो बार-बार, कि उसे “उल्टी” (बोमेटिंग) होने लगे।

महानायक और उनका परिवार समझदार है। बच्चन खानदान अपनी पोजीशन और देश के मीडिया की हकीकत से भली-भांति वाकिफ हैं। मीडिया ने जैसे ही ऐश्वर्या राय बच्चन के संतान पैदा होने की “डेट”, बच्चन परिवार से पहले खुद ही तय कर डाली....11.11.11, उसी समय बच्चन परिवार के कान खड़े हो गये। बच्चन खानदान के कान इसलिए खड़े हो गये कि ऐश्वर्या राय के संतान तो ईश्वर द्वारा निर्धारित समय पर ही जन्म लेगी, लेकिन मीडिया उससे पहले न मालूम कितनी बार ऐश्वर्या को “मां” बनवा चुका होगा। सिर्फ और सिर्फ अपनी “ब्रेकिंग” के फेर में।

बस बच्चन परिवार का मीडिया को लेकर यही अनुभव एकदम कुलांचें (छलांगें) मारने लगा। जब मीडिया ने अपनी खबरों में तय कर दिया, कि ऐश्वर्या 11.11.11 को संतान को जन्म देंगीं। बात तारीख का खुलासा करने तक ही रहती तो भी बच्चन परिवार सहन कर लेता। देश के सबसे तेज मीडिया को। हद तो ये हो गयी, कि जिस अस्पताल में बच्चन परिवार की बहू बच्चा जनेंगीं(पैदा करेंगी) उसका नक्शा मतलब पूरा भूगोल तक मीडिया ने सामने ला दिया। बस इसे ही “अति” कहते हैं।

बच्चन परिवार जानता था कि मीडिया को मनाने से कोई फायदा नहीं। जितना मीडिया को मनाने की कोशिश करेंगे, उतना ही वो और फैलेगा। सो अमिताभ बच्चन ने मोर्चा संभाला। और दो टूक ऐलान कर दिया कि उनके घर जन्म लेने वाले नन्हें मेहमान के बारे में अगर किसी ने जरा भी कलम चलाई(अखबार) या मुंह खोला(न्यूज चैनल)। तो उनकी खैर नहीं। सदी के महा-नायक की ये “घुड़की” असर कर गयी।

अरे ये क्या? घुड़की इस कदर असर करेगी या फिर घुड़की की “डोज” (खुराक) इतनी “ओवर” (जरुरत से ज्यादा) हो जायेगी, ये तो बच्चन खानदान ने सपने में भी नहीं सोचा था, कि उनके घर में आने वाले नन्हें मेहमान की खबर मीडिया से बिलकुल ही नदारद हो गयी। बिलकुल वैसे ही जैसे बिचारे किसी गंजे के सिर से बाल ।

मीडिया ने 11.11.11 को ऐश्वर्या के संतान पैदा होने की जो खबरें प्लांट कीं, सो कीं। प्लांट इसलिए कि बच्चा 11.11.11 को न पैदा होना था, न हुआ । बच्चा ईश्वर द्वारा निर्धारित दिन तारीख पर ही बच्चन परिवार में शामिल हुआ। लेकिन मीडिया की लगाम कसना बच्चन परिवार को भी कहीं न कहीं कुछ अलग से अहसास जरुर करा गया। वो अहसास, जिसकी कल्पना भी बच्चन परिवार ने नहीं की होगी।

ऐश्वर्या की कोख से बेटी ने जन्म लिया। बच्चन परिवार ने इस खुशी को अपने मुताबिक “इन्ज्वाय” किया। बिना किसी शोर-शराबे, धूम-धड़ाके के। अस्पताल के गेट पर न किसी न्यूज-चैनल का कैमरा, न किसी अखबार का कोई रिपोर्टर। बिलकुल सन्नाटा। बच्चन परिवार के सदस्यों ने पहली बार अपनी किसी खुशी में शायद ऐसा सन्नाटा अपनी आंखों से देखा। जिसमें इंसानों की बात बहुत दूर की रही, कौवा भी अस्पताल की मुंडेर (दीवार का कोना) पर नये मेहमान की खुशी में कुछ बोलने के लिए नहीं आया । बच्चन परिवार अस्पताल की चार-दिवारी में डाक्टर, नर्सों और कुछ अपने परिवारीजनों के बीच, “सिमटी” खुशी मनाता रहा। शायद इसी सन्नाटे से बच्चन परिवार के मेम्बरों के दिमाग में तूफान उठा। और याद आये होंगे जिंदगी के वो लम्हे, जब छोटी-छोटी बातों पर मीडिया वाले महा-नायक की एक झलक, एक बाइट (न्यूज चैनल की भाषा में इंटरव्यू) के लिए घंटों उनकी देहरी पर एड़ियां रगड़ते थे । झकझोर दिया होगा, महा-नायक को अपने ही फैसले ने। कानों में दूर-दूर तक कहीं से भी नहीं सुनाई दे रही थीं मीडिया वालों की, वो आवाजें...सर प्लीज इधर देखिये...सर प्लीज एक मिनट...अमित जी प्लीज एक सेकेंड...रुकिये...। और न ही पड़ रही थीं, चेहरे पर सौ-सौ कैमरों की लाइटें। शायद अब अहसास हो गया था, बच्चन परिवार को अपने एक उस फैसले का। जिसने उन्हें कर दिया एक झटके में अपने तमाम चाहने वालों से दूर। खबरों और सुर्खियों से दूर। और रास्ता बचा था, अपनी खुशी को बांटने का उनके पास तो बस... ट्विटर ..ट्विटर.. ट्विटर...और ब्लॉग.....जिस पर खुद ही पिता पुत्र बार-बार लिख रहे थे...खुद ही...

ऐश्वर्या के बेटी हुई है...हमारे घर में नन्हीं परी आयी है...अमिताभ के सुपुत्र अभिषेक बच्चन और उनकी बेगम साहिबा यानि अमिताभ की पुत्र वधू ऐश्वर्या राय बच्चन सोशल नेटवर्किंग साइट पर जाकर पूछ रही/ रहे कि उनकी बेटी के लिए “ए” अक्षर से शुरु होने वाला खूबसूरत सा नाम सुझायें आप लोग। आप लोग से मतलब बच्चन खानदान को चाहने वाले।

जब मैने अमिताभ और उनके परिवार को ब्लॉग और ट्विटर पर इस हाल में बार-बार, कई बार देखा, तो मुझे भी अहसास हुआ, कि आखिर कितना खला होगा, महा-नायक को अपना ही एक वो फैसला, जिसने उन्हें खुशी बांटने में भी कर दिया अपनों से बेगाना। अकेला । एक दम तन्हा । बच्चन साहब हर इंसान अपने आप में कभी परिपूर्ण नहीं हो सकता। न आप और न मैं। बच्चन साहब ईश्वर ने हर इंसान के दिमाग (मष्तिष्क) का वजन तीन पौंड ही रखा है, लेकिन सबकी सोच अलग बनाई है।

मैं मानता हूं कि मार्डन मीडिया की “अति” से किसी को भी एलर्जी हो सकती है। इसका मतलब ये तो नहीं, कि इस एलर्जी से आप खुद ही अपनी खुशियों को अपनों के साथ बांटने के रास्ते ही बंद कर लें ।

(लेखक न्यूज़ एक्सप्रेस में एडिटर (क्राइम) के तौर पर काम कर रहे हैं. संपर्क -patrakar1111@gmail.com . उनके ब्लॉग क्राइम वारियर से साभार )

टीवी पत्रकारिता सच दिखाने को ही नहीं, सच सुनने को भी तैयार नहीं


प्रियदर्शन
टीवी पत्रकारों के बारे में जस्टिस मार्कंडेय काटजू की राय पर हो रहा बवाल बताता है कि टीवी पत्रकारिता सच दिखाने को ही नहीं, सच सुनने को भी तैयार नहीं है. जस्टिस काटजू का लहजा जैसा भी हो, लेकिन उन्होंने जो बातें कही हैं उनमें ज्यादातर – दुर्भाग्य से सत्य हैं. जस्टिस काटजू की मूलतः तीन शिकायतें हैं- एक तो यह कि मीडिया अक्सर वास्तविक मुद्दों से ध्यान भटकाता है. दूसरी यह कि मीडिया मनोरंजन के नाम पर परोसे जा रहे कूड़े को सबसे ज्यादा जगह देता है. और तीसरी यह कि मीडिया अंधविश्वास को बढ़ावा देता है. इन सबके बीच एक बड़ी शिकायत की अंतर्ध्वनि यह निकलती है कि मीडिया कई तरह के गर्हित गठजोड़ों और समझौतों का शिकार है जिसके तहत खबरों को तोड़ा-मरोड़ा और मनमाने ढंग से पेश किया जाता है.

मीडिया के सरोकारों को समझने की जरूरत


काटजू ने मीडिया के सामाजिक सरोकार से विचलन और उसके सांप्रदायिक चरित्र पर सवाल खड़े किए हैं। उन्होंने उदाहरण के रूप में देश भर में अब तक हुए बम विस्फोटों की खबरों को लेकर मीडिया के रुख पर सवाल खड़े किए हैं। ‘देश भर में जहां कहीं बम विस्फोट की घटनाएं होती हैं, फौरन चैनल उनमें इंडियन मुजाहिदीन, जैश-ए-मोहम्मद, हरकत उल-अंसार जैसे संगठनों का हाथ होने या किसी मुसलिम नाम से इ-मेल या एसएमएस आने की खबरें चलाने लगते हैं। इस तरह चैनल यह जाहिर करने की कोशिश करते रहे हैं कि सभी मुसलमान आतंकवादी या बम फेंकने वाले हैं। इसी तरह मीडिया जानबूझ कर लोगों को धार्मिक आधार पर बांटने का काम करता रहा है। ऐसी कोशिशें राष्ट्रविरोधी हैं

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सेबी चेयरमैन माधवी बुच का काला कारनामा सबके सामने...

आम हिंदुस्तानी जो वाणिज्य और आर्थिक घोटालों की भाषा नहीं समझता उसके मन में सवाल उठता है कि सेबी चेयरमैन माधवी बुच ने क्या अपराध ...