एस एम फ़रीद भारतीय
बेशक इस दुनिया में किसी भी जननायक को भुला देने के लिए 158 साल कम नहीं होते, जब हमारे ही लोग उस गौरवशाली विरासत की शानदार धरोहर को सहेज कर ना रख पा रहे हों तो सत्ता को कौसने का क्या फ़ायद ओर मतलब…?
हक़ीकत मैं, इतिहास की भी दो किस्में हैं, एक तो राजा, रजवाड़े, रियासतों, तालुकेदारों, नवाबों, बादशाहों, शहंशाहों का और दूसरा जनता का, सत्ता का चरित्र होता है
कि वह अपने फ़रेब, साजिशों और दमन के सहारे हमें बार-बार अहसास कराती है कि जनता बुजदिल, कायर होती है और जनता के बलिदानों का कोई इतिहास नहीं है, हमारे लोग भी जाने-अनजाने ऐसी साजिशों का हिस्सा बन जाते हैं, सबसे बड़ा सवाल यह है कि अगर हम सब कुछ भूलने पर ही उतारू हो जाएं. तो भला याद क्या और किसे रखेंगे ?
1857 में जब पूरा हिंदुस्तान अंग्रेजों के जुल्मों सितम से परेशान था और बगावत के सिवा उनके पास कोई चारा नही बचा था इसी वक़्त में एक ऐसा शख्श भी था जिसने अंग्रेजों के नाक में दम कर रखा था , दम भी इतना की अंग्रेजों ने उन्हें जिन्दा या मुर्दा पकड़ कर लाने वाले को 50000 इनाम के तौर पर देने का ऐलान कर दिया, फिर भी अंग्रेजी हुकुमत उन्हें कभी जिन्दा नही पकड़ पाई, क्यूंकि उनके चाहने वाले ही इतने थे.
पहली जंग-ए-आज़ादी के सबसे काबिल पैरोकार एक सूफी-फ़कीर थे, जब आज़ादी की कहीं चर्चा भी नहीं थी उस वक्त फिरंगियों की बर्बरता के विरुद्ध उन्होंने पर्चे लिखे, रिसाले निकाले और देश में घूम-घूम कर अपने तरीके से लोगों को संगठित किया, ओर वो मौलवी हाफिज अहमद उल्लाह शाह, सिकंदर शाह, नक्कार शाह, डंका शाह वगैरा नामो से मशहूर थे, जैसे उनके कई नाम थे ठीक वैसे ही उनकी शख़्सियत के कई आयाम भी थे.
1857 की सबसे बड़ी खासियत यह थी कि अंग्रेजों की ‘डिवाइड एंड रूल’ नीति को धता बता कर हिन्दू-मुसलमान कदम से कदम मिलाकर साथ-साथ लड़े थे, हर मोर्चे पर हालात यह थे कि इंच-इंच भर जमीन अंग्रेजों को गवानी पड़ी या देशवासियों के लाशों के ऊपर से गुज़रना पड़ा.
सवाल उठता है कि फिर हम हार क्यों गए? वजह साफ़ है कि ऐसे नाज़ुक दौर में हवा का रुख देखकर आज़ादी में शामिल हुए नायक ‘खलनायक’ बन गए और ऐन मौके पर अपनी गद्दारी की कीमत वसूलने दुश्मनों से जा मिले, इसी विश्वासघात की वज़ह से जंगे आज़ादी के सबसे बहादुर सिपहसालार मौलवी को शहादत देनी पड़ी, 1857 का सबसे बड़ा सबक यह है कि आप बिकेंगे तो हर मोर्चे पर हारेंगे.
मौलवी को कलम और तलवार में महारत हासिल होने के साथ ही आम जनता के बीच बेहद लोकप्रियता प्राप्त थी, इस योद्धा ने 1857 की शौर्य गाथा की ऐसी इबारत लिखी जिसको आज तक कोई छू भी नहीं पाया, पूरे अवध में नवंबर 1856 से घूम-घूम कर इस विद्रोही ने आज़ादी की मशाल को जलाए रखा जिसकी वजह से फरवरी 1857 में उनके सशस्त्र जमावड़े की बढ़ती ताकत को देखकर फिरंगियों ने कई लालच दिए, अपने लोगों से हथियार डलवा देने के लिए कहा तो उन्होंने साफ़ मना कर दिया, इस गुस्ताखी में फिरंगी आकाओं ने उनकी गिरफ्तारी का फ़रमान जारी कर दिया, मौलवी की लोकप्रियता का अंदाज़ा इस बात से लगाया जा सकता है कि अवध की पुलिस को मौलवी को गिरफ्तार करने से मना कर दिया गया.
19 फरवरी 1857 को अंग्रेज़ी फौजों और मौलवी साहब में कड़ी टक्कर के बाद उन्हें पकड़ लिया गया, बागियों का मनोबल तोड़ने के लिए घायल मौलवी को सिर से पांव तक जंजीरों में बांधकर पूरे फैज़ाबाद शहर में घुमाया ही नहीं गया बल्कि फांसी की सजा सुनाकर फैज़ाबाद जेल में डाल दिया गया.
क्रांति का पौधा जो उन्होंने रोपा था उसका असर यह हुआ कि 8 जून 1857 को सूबेदार दिलीप सिंह के नेतृत्व में बंगाल रेजिमेंट में बगावत का झंडा फहरा कर फैज़ाबाद की बहादुर जनता ने भी बग़ावत कर दी, हज़ारों हज़ार बागियों ने फैज़ाबाद जेल का फाटक तोड़कर अपने प्यारे मौलवी साहब और साथियों को आज़ाद कराय, पूरे फैज़ाबाद से अंग्रेज़ डरकर भाग खड़े हुए, फैज़ाबाद आज़ाद हो गया.
मौलवी साहब की रिहाई का जश्न मनाया गया और उन्हें 21 तोपों की सलामी दी गयी। फिर तो मौलवी साहब ने सिर्फ फैज़ाबाद तक ही अपने आप को सीमित नहीं रखा बल्कि पूरे अवध-आगरा में जमकर अपनी युद्धनीति का करिश्मा दिखाया, फ़रारी के दिनों में मौलवी साहब को सुनने कई हजार की भीड़ जमा हो जाती थी, प्रसिद्ध पुस्तक ‘भारत में अंगरेज़ी राज़’ के लेखक पंडित सुन्दरलाल लिखते हैं कि ‘वास्तव में बगावत की उतनी तैयारी कहीं भी नहीं थी जितनी अवध में.
हजारों मौलवी और हजारों पंडित एक-एक बैरक और एक-एक गांवं में स्वाधीनता युद्ध के लिए लोगों को तैयार करते फिरते थे.’ इतिहासकार होम्स ने उत्तर भारत में अंग्रेजों का सबसे जबदस्त दुश्मन मौलवी अहमदुल्लाह शाह को बताया है.
फ़ैजाबाद के ताल्लुकदार घर में पैदा हुए मौलाना अहमदुल्लाह शाह हैदराबाद से पढाई पूरी करके बहुत कम उम्र में ही लेखक और धार्मिक उपदेशक बन गए, अंग्रेजों के हाथों अवध को आज़ाद करने के लिए उन्हें लोगों को अंग्रेजों के खि़लाफ भड़काने के लिए अपहरण कर लिया गया जिससे आहत होकर मौलाना साहब ने देश पर अपना सब कुछ अपनी जान के साथ लुटाने की क़सम खा ली.
वे मौलवी बन गए और पुरे हिंदुस्तान को जगाने के लिए निकल पड़े, लोगों का मानना था की उनके एक हाथ में तलवार तो दुसरे में कलम है.
वे क्रन्तिकारी पम्पलेट लिखते जिसमे वे अवाम से अंग्रेजो के खिलाफ जिहाद करने की अपील करते और उसे खुद गाँव गाँव जाकर बांटते,1857 के जंग ए आजादी की एक बेशकीमती दस्तावेज के तौर पर एक ऐलान नामा “फ़तहुल इस्लाम” के नाम से मिली, इस किताब को निकलने वाले का नाम तो नही मिला पर उस पत्रिका के मौजू (विषय) और विवरण से ये अंदाजा लगा की उसे मौलाना अहमदुल्लाह शाह जो फ़ैजाबाद के मौलवी के नाम से मशहूर थे उन्होंने ही लिखी थी.
इस पत्रिका में अंग्रेजों के जुल्म की दास्तान लिखने के बाद अवाम से जिहाद करने के लिए दर्खाश्त की गयी थी, पत्रिका में अवाम को जंग के तौर तरीके और और नेतृत्व के बारे में समझाने की कोशीश की गयी है जो दिलचस्प है, आगे उस पत्रिका में गैर मुस्लिमो को मुखातिब करते हुए लिखा गया है की वही हिन्दू अब भी है और अभी भी वही मुसलमान, वो अपने दिन पर कायम रहे और हम हमारे दिन पर, अगर हम उनकी हिफाजत करेंगे तो वो भी हमारी हिफाजत करेंगे, ईसाईयों ने हिन्दू और मुसलमानों को ईसाई बनाना चाहा पर अल्लाह ने हमे बचा लिया उलटे वो खुद ही खराब हो गये, इस पत्रिका के आखिर में अंग्रेजों से किसी भी तरह का सम्बन्ध रखने से मना किया गया है और गुजारिश की गयी है की कोई भी हिंदुस्तानी अंग्रेजों के पास नौकरी ना करे.
मौलाना साहब खुद अपने लिखे हुए क्रांतिकारी पर्चे को गाँव गाँव जाकर पहुचाते, 1856 में मौलाना साहब जब लखनऊ पहुचे तो पुलिस ने उनके क्रांतिकारी गतिविधियों को रोक दिया, प्रतिबन्ध के बावजूद जब उन्होंने लोगों को आज़ादी की लड़ाई के लिए उकसाना बंद नही किया तो 1857 में उन्हें फ़ैजाबाद में गिरफ्तार कर जेल में डाल दिया गया.
जेल से छूटने के बाद उन्होंने लखनऊ और शाहजहापुर में लोगो को फिर से अंग्रेजों के खिलाफ लड़ने के लिए जगाना शुरू कर दिया, जंग ए आज़ादी के दौरान मौलाना साहब को वोद्रोही स्वतंत्रता सेनानियो की उस 22वीं इन्फेंट्री का प्रमुख बनाया गया जिसने चिनहट की प्रसिद्ध लड़ाई में हेनरी लारेंस के नेतृत्व में ब्रिटिश सेना से एक बहुत ही जबरदस्त जंग लड़ा.
इस जंग में ब्रिटिश सेना को बुरी तरह हार का सामना करना पड़ा, जंग के बाद उन्हें जीते जी ब्रिटिश इंटेलिजेंस और पुलिस नही पकड़ पाई और वो जीते जी अवाम के हर दिल अज़ीज़ बन गए.
लोगों का मानना था की मौलाना साहब में कोई जादुई ताक़त या ईश्वरीय शक्ति है जिसके कारण अंग्रेजों को उन्हें पकड़ना या मारना नामुमकिन था, हर मोर्चे पर फिरंगियों को भागना पड़ रहा था, तब 12 अप्रैल 1858 को गवर्नर जनरल कैनिंग ने उन्हें गिरफ्तार करने के लिए 50, 000 रुपये ईनाम का एलान किया जिसपर भारत के सचिव जी. एफ. ऐडमोंस्टन के दस्तखत थे.
इसी इनाम के लालच में पुवायां के अंग्रेज परस्त राजा जगन्नाथ सिंह ने उन्हें आमंत्रित कर 15 जून 1858 को धोखेे से उन्हें गोली मार कर शहीद कर दिया, चुंके मौलवी से पुवायां का राजा जगन्नाथ अपनी दोस्ती का दम भरता था, मौलवी राजा से मदद मांगने जब पुवाया पहुंचे, तो उन्हें दाल में कुछ काला लगा लेकिन इस बहादुर ने वापस लौटना अपनी शान के खिलाफ समझा, पैसों और रियासत की लालच में धोखे से मौलवी को शहीद कर दिया गया, उनके सिर को काटकर अंग्रेज़ जिला कलक्टर को राजा ने सौंपा और मुंहमांगी रकम वसूल की, इस विश्वासघात से देश के लोग रो पड़े.
फिरंगियों ने अवाम में दहशत फैलाने की नीयत से मौलवी का सिर पूरे शहर में घुमाया और शाहजहांपुर की कोतवाली के नीम के पेड़ पर लटका दिया, यह अलग बात है कि कुछ जुनूनियों ने रात में सिर को उतारकर लोधीपुर गांव के नज़दीक खेतों के बीच दफना दिया जहां आज भी मौलवी साहब का स्मारक मौजूद है.
मौलाना साहब पर लिखते हुए ब्रिटिश अधिकारी थॉमस सीटन ने लिखा था – ‘ a man of great abilities of undaunted courage of stern determination and by far the best soldier among the rebels’
अंग्रेजों का आधिकारिक इतिहास लिखने वाले के. मालीसन ने लिखा कि :- ‘मौलवी एक असाधारण आदमी थे, विद्रोह के दौरान उसकी सैन्य क्षमता और रणकौशल का सबूत बार-बार मिलता है, उनके सिवाय कोई और यह दावा नहीं कर सकता कि उसने युद्धक्षेत्र में कैम्पबेल जैसे जंग में माहिर उस्ताद को दो-दो बार हराया और न जाने कितनी बार गफ़लत में डाला और उनके हमले को नाकाम किया, वह अपने देश के लिए जंग लड़ता है, तो कहना पड़ेगा कि मौलवी एक सच्चा राष्ट्रभक्त था, ना तो उसने किसी की कपटपूर्ण हत्या करायी और ना निर्दोषों और निहत्थों की हत्या कर अपनी तलवार को कलंकित किया बल्कि पूरी बहादुरी, आन, बान, शान से फिरंगियों से लड़ा, जिन्होंने उसका मुल्क छीन लिया था.’
फैज़ाबाद के स्वतंत्रता सेनानी रमानाथ मेहरोत्रा ने अपनी किताब ‘स्वतंत्रता संग्राम के सौ वर्ष’ में लिखा है कि ‘फैज़ाबाद की धरती का सपूत मौलवी अहमद उल्लाह शाह शाहजहांपुर में शहीद हुआ और उसके खून से उस जनपद की धरती सींची गयी तो बीसवी सदी के तीसरे दशक में शाहजहांपुर की धरती से एक सपूत अशफाक उल्ला खां का पवित्र खून फैजाबाद की धरती पर गिरा, इतिहास का यह विचित्र संयोग है, एक फैज़ाबाद से जाकर शाहजहांपुर में शहीद हुआ तो दूसरा शाहजहांपुर में जन्मा और फैज़ाबाद में शहीद हुआ.’ शहीद–ए-वतन अशफाक ने अपनी जेल डायरी में एक शेर दर्ज किया है, ‘शहीदों की मजारों पर जुड़ेंगे हर बरस मेले, वतन पर मरने वालों का यही बाकी निशां होगा.’ दिल पर हाथ रहकर आज अपने आप से खुद पूछें, इस अजूबे फकीर के वारिसों को शहादत पर याद करने की कितनी फुर्सत है? इस मुक्ति योद्धा की जिंदगी के ज्यादातर पन्ने अब भी रहस्य के अंधेरों में खोए हैं.
आज हमको ज़रूरत है आज़ादी के दीवानो के नक़्शे क़दम पर चलकर देश के लिए जी जान लगा देने की ओर अपनी एकता को कायम करने की जो सिर्फ देश के लिए पहचान हो मज़हबी तक़रार का नतीजा क्या ये हमारे अपने ज़ाती उसूल हैं ओर जहां मुल्क की अज़मत की बात है वहां हमको साथ मिलकर लड़ना होगा यही पड़ोसी दुश्मनों की चालों का जवाब भी होगा ओर अपने घरेलू दुश्मनों के भी ...
जयहिंद जयभारत
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