*बिलकिस सैफ़ी भारतीय*
हिंदुस्तान आज़ाद है तो क्या इसका यह मतलब है कि यहाँ कोई कानून ही न हो, जिसका जो दिल चाहे वो करे? सभी का जवाब होगा कि नहीं, आज़ादी का यह मतलब हरगिज़ नहीं है, मगर हाँ आप किसी भी कानून पर बहस कर सकते हैं और उसमे सुधार का मशविरा भी दे सकते हैं यह आप का अधिकार है और यही आज़ादी का नाम है.
आज हमारे समाज में बहुत जगहों पे ज़ुल्म देखा जाता है, ज़ुल्म हमेशा कमज़ोरों पे ताक़तवर किया करता है, इसी कारण से ज़ुल्म का शिकार या तो गरीब होता है या फिर महिलाएं, यह और बात है कि मैं यह बात कभी समझ नहीं सका कि औरत कमज़ोर कब से हो गयी और इसे कमज़ोर बनाया किसने?
अक्सर ऊँगली इस पुरुष प्रधान समाज के बनाये कानून पर ही उठा करती है जबकि खुद को कमज़ोर बनाने में औरत खुद भी उतनी ही ज़िम्मेदार है जितना कि पुरुष, इस समाज में महिला और पुरुष एक सामान हैं और दोनों कि अपनी अपनी ज़िमेदारियाँ हैं, दोनों यदि अपनी अपनी ज़िमेदारियां इमानदारी से निभाएं तो कौन कमज़ोर और कौन ताक़तवर का सवाल ही पैदा नहीं होगा.
अक्सर यह सवाल उठाया जाता है कि क्यूँ लोग केवल उन लड़कियों से शादी करना चाहते हैं जो पढ़ी लिखी हैं, दहेज़ भी ला सकती हैं, वक्त जरुरत नौकरी भी कर सकती हैं और बच्चे भी संभाल सकती हैं, लेकिन क्या ऐसा करने में केवल मर्द ज़िम्मेदार है ?
लड़के की माता भी शादी करते समय ऐसी ही लड़की तलाशती देखी जाती है ,और शादी के बाद सास के रूप में ज़ुल्म करती भी यही औरत देखी जाती है, दहेज़ लेना, लड़की से शादी के समय उसकी मर्ज़ी का ख्याल ना करना, शादी के बाद गुलाम की तरह औरत से बर्ताव करना इत्यादि एक सामाजिक बुराई है और इसके खिलाफ आवाज़ उठाई जानी चाहिए.
ज़ुल्म के खिलाफ आवाज़ उठाने का नाम है आज़ादी, लड़की या लड़का इस बात के लिए तो आज़ाद है कि उन्हें शादी कब और किस्से करनी है क्यों कि यदि साथ साथ रहना है तो शादी जैसे सामाजिक बंधन में बंधना ज़रूरी है.
लेकिन यदि कोई लड़की या लड़का यह कहे कि मुझे शादी ही नहीं करनी और जब जहां जिसके साथ दिल चाहा शारीरिक सम्बन्ध बनाया और जब चाहा अलग हो गए उचित नहीं ?
इसे आज़ादी नहीं बल्कि आज़ादी के नाम पे समाज को भ्रष्ट करने की पहल ही कहा जा सकता है, मानसिक विकृति का नाम आजादी हरगिज़ नहीं हो सकता सोचना होगा आज़ादी क्या है.
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