देश का एक बुद्धिजीवी वर्ग अक्सर यह दावा करता नज़र आता है कि देश के मुसलमानों में भी (इस्लाम में नहीं) जाति पात और खानदान बिरादरी की प्रथा उसी प्रकार प्रचलित है जिस प्रकार हिंदू समाज में है। यानी भारत में जाति पात की समस्या से कोई भी धर्म अछूत नहीं रह गया है। जबकि यह पूरा सच नहीं है! यह सच है कि कल्चरल इंटरेक्शन के कारण देश के मुसलमानों पर जाति पात का प्रभाव
पड़ा है लेकिन उसे हिन्दू समाज में प्रचलित जाति पात के बराबर ठहराया जाना गलत है।
दरअसल इस्लाम में खानदान और क़बीले का नाम का महत्व मात्र एक दुसरे को पहचानने हेतु है। संभव है कि एक नाम के एक ही इलाक़े में कई लोग हों तो ऐसे में खानदान के नाम से पहचानना आसान होगा। पहचान के इलावा इस्लाम में जाति और खानदान के नाम का न कोई महत्व है और न ही कोई अन्य उद्देश्य। यह बात अपनी जगह पर सही है कि जाति बिरादरी या खानदान का संबंध खूनी रिश्ते या वंश से होता है लेकिन भारतीय उपमहाद्वीप के मुसलमानों में धर्म परिवर्तन के साथ साथ जाति परिवर्तन का चलन आम रहा है और यहां के अधिकांश मुसलमान जो खुद को सय्यद, खान, कुरैश या अंसार आदि से जोड़ते हैं, उनमें से अधिकतर के पूर्वज धर्म परिवर्तन से पहले कुछ और थे। जाति परिवर्तन की इस परंपरा और चलन ने यह गुंजाइश भी पैदा कर दी है कि इस्लाम अपनाने के बाद यदि किसी को अपने पैतृक जाति और खानदान के नाम के कारण कोई दिक्कत हो रही हो या भेदभाव का सामना हो तो वह उसे भी बदला सकता है।
भारत में बड़े पैमाने पर होने वाले जाति परिवर्तन ने खानदान के नाम से वंश या खूनी रिश्ते के अर्थ को कम करते हुए उससे पहचान के अर्थ को उजागर किया है जो कि एक सकारात्मक बात है और कुरान भी केवल यही चाहता है यानी "لتعارفوا" (ताकि एक दुसरे को पहचान सको) इस उद्देश्य को प्राप्त करने के लिए इस्लाम अपनाने वाला व्यक्त धर्मान्तरण के बाद खुद को किसी भी क़बीले या खानदान का नाम दे सकता है। संभव है कि शुरू मेंसमाज उसे स्वीकार न करे लेकिन समय बीतने के साथ एक दो नस्ल के बाद समाज आसानी से इस जातीय परिवर्तन को स्वीकार कर लेता है। इस्लाम की नज़र में जाति बिरादरी कोई ऐसी हार्ड लाइन नहीं है जिस की वजह से इंसान की धार्मिक, सामाजिक या आर्थिक स्थिति पर किसी प्रकार का प्रभाव पड़ता हो जैसा की हिन्दू धर्म और समाज में होता है।
समानता के समर्थन और नस्ल परस्ती व जाति पात के विरोध में इस्लाम के पक्ष को इस बात से भी समझा जा सकता है कि नबी मोहम्मद (s.a.w.) ने खुद दुसरे खानदानों और क़बीलों में शादियां की थीं। खानदान और क़बीले को लेकर नबी (s.a.w.) के साथियों में आपस में कोई भेद भाव नहीं था। लेकिन भारतीय उपमहाद्वीप के मुसलमानों पर कल्चरल इंटरेक्शन से जाति पात का कुछ प्रभाव ज़रूर पड़ा है, मगर उतना भी नहीं है कि उसे हिन्दू समाज में प्रचलित जाति पात के बराबर ठहराया जाए।
मुसलमानों में सवर्णवादी या मनुवादी सोच और जाति पात की जो थोड़ी बहुत समस्या है उसकी असल जड़ "अहले बैत" की थ्योरी और कुछ लोगों की नस्लवादी सोच में निहित है। बाक़ी जो जाति पात है उसका एकमात्र कारण कल्चरल इंटरेक्शन है। एक बात जो मेरी समझ में आज तक नहीं आई वो ये कि "अहले बैत" (यानी घर वालों) का अर्थ लोगों ने "अहले नस्ल" (अर्थात क़यामत तक की नबी की नस्ल) कहाँ से निकाल लिया? क्या नबी (स.अ.व.) द्वारा उम्र के आखिरी पड़ाव में हज के अवसर पर दिए गए ख़ुत्बे से सारे खानदानी और नस्ली भेदभाव, बरतरी और फ़ज़ीलतों की रद्दीकरण और नफ़ी नहीं हो जाती ? उस अवसर पर नबी (स.अ.व.) ने एक लाख से ज़्यादा लोगों के सामने तमाम खानदानी और नस्ली भेदभाव और फ़ज़ीलतों को ख़त्म करने का एलान किया था कि "आज से किसी को किसी पर कोई फ़ज़ीलत हासिल नहीं।" फिर ये सय्येदात (सभी नहीं) आज तक "अहले बैत" की नस्ल परस्ताना थ्योरी को क्यों ढो रहे हैं ?
मामूली अरबी जानने वाला भी ये बता सकता है कि "अहले बैत" का अर्थ "घर वाले" होता है यानी नबी (s.a.w) के घर का सदस्य। आप खुद सोचिए कि आज के दौर में कोई नबी (s.a.w) के घर का सदस्य यानी "अहले बैत" आखिर कैसे हो सकता है? आज कल जो अहले बैत होने के दावेदार हैं वो असल में "अहले नस्ल" हैं।
बहुत सी चीज़ों के मामले में उलमा या तो कन्फ्यूज हैं या फिर जान बूझ कर कई ऐसे ग़ैर इस्लामी कामों को औचित्य (जवाज़) प्रदान करने का काम करते हैं जिनमें या तो वो खुद लिप्त हैं या उनके आगे वो बेबस हैं या फिर डरते हैं कि इन चीज़ों का विरोध करने से समाज उनके खिलाफ हो जाएगा है।
इन्हीं चीज़ों में से एक "अहले बैत" और दूसरी "कुफु" की इस्तेलाह है। इस्लाम में खानदान या नस्लवाद को साबित करने के लिए कोई कुरान की एक आयत भी नहीं दिखा सकता, जबकि नस्लवाद का खंडन करती हुई कई स्पष्ट आयतें आप को कुरान में मिल जाएँगी। क़ुरान में कई नबीयों को उनके औलाद घर वालों के संबंध में अल्लाह ने चेताया है। कोई भी व्यक्ति जो कुरान और इस्लाम का थोड़ा सा भी ज्ञान रखता हो, वह यह बात दावे के साथ कह सकता है कि इस्लाम में नस्लवाद के लिए कोई जगह नहीं है। खुद नबी (s.a.w.) ने दूसरे खानदानों और क़बीलों में विवाह किया और समानता का एक अटल सूत्र देते हुए हज्जतुल विदा के अवसर पर इरशाद फ़रमाया: '' तुम सब आदम की औलाद हो और आदम मिट्टी से पैदा किए गए।''
इसके अलावा कुरान में लिखा है: ''बेशक मुसलमान आपस में भाई हैं'' कुरान और पैगंबर के इन इर्शादात में किसी खानदान या जाति का अपवाद नहीं है। इसके बावजूद आज तक '' अहले बैत'' की आड़ में नस्लवादी थ्योरी को ढोया जा रहा है, इस बात को जानते हुए भी कि ज़ात पात और नस्लवाद से इस्लाम का काफी नुकसान हो चुका है और आज भी नस्लवादी सोच के कारण ही मुसलमान कई टुकड़ों में विभाजित हैं। मुसलमानों की एकता, समानता और भाईचारा की मिसालें जो कहीं पीछे छूट गई हैं, समय की मांग है कि उन्हें फिर से प्राप्त किया जाए, चाहे इसके लिए कितनी ही बड़ी कीमत क्यों न चुकानी पड़े।
शादी ब्याह में खानदान और जाति पात का ख्याल रखने वाले अधिकांश मुसलमान अपने इस गलत अमल को वैध ठहराने के लिए '' कुफु '' वाली एक हदीस का सहारा लेते हैं। जबकि तथ्य यह है कि '' कुफु'' में खानदान और जाति पात कदापि शामिल नहीं है जिसका सबूत नबी (s.a.w) और सहाबा (r.) का व्यावहारिक जीवन और मुहाजिरीन व अंसार के भाईचारे और बराबरी का रिश्ता है। इस्लाम ऐसे किसी ''कुफु'' की कतई इजाजत नहीं दे सकता जिससे इस्लामी एकता, समानता और भाई चारा खतरे में पड़ जाए और इस्लाम में नस्लवाद को बढ़ावा मिले।
नोट: ''कुफु'' काअर्थ शादी ब्याह के समय रिश्ते को मज़बूत बनाने के लिए दोनों पक्षों के बीच सामाजिक समानता तलाश करना है.
लेखक इमामुद्दीन अलीग
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