Thursday 1 November 2018

पटेल ओर नेहरू की सोच मैं फ़र्क...?

एस एम फ़रीद भारतीय
सरदार पटेल से संघ ओर भाजपा की मुहब्बत क्यूं है, क्यूं पटेल इनको इतने पसंद हैं ये सब वरिष्ठ लेखक कुलदीप नैय्यर का ये लेख आपकी बंद आँख ओर कान खोलने के लिए काफ़ी है, लेख का जो सार है वो ये बताता है कि पटेल को इंसानियत से नहीं हिंदू से प्यार था, नफ़रत की ये बात इससे भी साबित होता कि पटेल को मनाने के लिए गांधी जी को आमरण अनशन तक करना पड़ा था, यही वजह रही गांधी ने सरदार पटेल को देश के सर्वोच्च पद से दूर रखने के एवज़ अपना जान तक गवां दी, आज इसी कारण सरदार पटेल को गांधी जी से बड़ा क़द दिया गया है...!

पढ़ें पूरा लेख...?
अगर जवाहर लाल नेहरू की जगह सरदार पटेल देश के प्रधानमंत्री बने होते तो भारत का ज्यादा हित होता, 2014 के लोकसभा चुनाव में भारतीय जनता पार्टी की ओर से प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार और गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी ने चुनाव अभियान में यह काल्पनिक सवाल उठाया है, नेहरू के मित्र, मार्गदर्शक और दार्शनिक मौलाना अबुल कलाम आजाद ने प्रशासक के तौर पर नेहरू का आकलन किया था, आजाद नेहरू के मंत्रिमंडल में थे और उन्हें नजदीक से देखा था, आजाद ने कहा था कि नेहरू को देश का राष्ट्रपति और पटेल को प्रधानमंत्री बनाना चाहिए.

आजाद को किसी भी तरह पटेल या उनके विचारों से नहीं जोड़ा जा सकता, राष्ट्रीय संग्राम में दोनों ने सक्रिय रूप से हिस्सा लिया था, लेकिन दोनों दो ध्रुवों पर थे, उन्होंने अपने इस अलगाव को छुपाया भी नहीं था, पटेल हिंदू समर्थक थे, लेकिन बहुलवाद के प्रबल समर्थक थे, आजाद धुर पंथनिरपेक्ष थे, मुस्लिम लीग ने उन्हें 'हिंदू शो ब्वॉय' कहकर उनकी आलोचना की थी, उन्होंने इस आलोचना को साहस के साथ झेला था, उन्हें यह कहने में सेंकेंड भर के लिए भी कोई झिझक नहीं हुई कि पाकिस्तान का बनना मुसलमानों के लिए नुकसानदेह होगा.
विभाजन से पहले आजाद कह सकते थे कि मुसलमान अपना सिर ऊंचा कर गर्व के साथ घूम सकते हैं, क्योंकि संख्या के हिसाब से कम होने के बावजूद वे समान रूप से हिस्सेदार हैं, लेकिन जब धर्म के आधार पर देश का बंटवारा हो गया तो मुसलमानों से यह कहने की नौबत आ गई कि तुम्हें अपना हिस्सा मिल गया, अब तुम लोग पाकिस्तान चले जाओ, मुझे याद है कि जब मैं अपने गृहनगर सियालकोट, जो पाकिस्तान का हिस्सा हो गया था, से आकर दिल्ली में शरण लिए हुए था तो मैंने हिंदुओं को भगाए जाने को लेकर पाकिस्तान को दी गई पटेल की चेतावनी सुनी थी.
उन्होंने कहा था कि पाकिस्तान से जितने हिंदू निकाले जाएंगे उतने ही मुसलमानों को भारत से बाहर कर दिया जाएगा, पाकिस्तान के मुसलमानों की करतूत की सजा भारत में रह रहे मुसलमानों को देने का यह बेतुका तर्क था, बंटवारे के 67 साल बाद भी न तो भारत और न ही पाकिस्तान ने इस तरीके को गलत माना है.
पाकिस्तान ने एक तरह से सारे हिंदुओं को निकाल दिया, लेकिन भारत में करीब 18 करोड़ मुसलमान हैं, जब कभी दोनों देशों के बीच तनाव होता है तो बहुत से लोग मुसलमानों को पाकिस्तानी करार देते हैं, हालांकि इस सवाल को उठाने से कोई मकसद नहीं सधने वाला, क्योंकि बंटवारे का जख्म अब तक भरा नहीं है और दोनों समुदाय के लोगों का बेवजह इस्तेमाल पंथ के नाम पर होता रहा है, पटेल की चलती तो वह बंटवारे को स्वीकार करने से पहले हिंदू-मुसलमान आबादी को अलग-अलग देशों में भेज देते.
नेहरू इससे अलग थे, उन्होंने पंथ को राजनीति या सरकार से नहीं जोड़ा, नजरिये के इसी अंतर के कारण स्वतंत्रता संग्राम का नेतृत्व करने वाले महात्मा गांधी ने नेहरू को अपना उत्ताराधिकारी घोषित किया, गांधी के लिए हिंदू-मुस्लिम एकता आस्था का सवाल था, न कि किसी नीति का हिस्सा, गांधीजी को पता था कि नेहरू सपना भी अंग्रेजी में देखते हैं और दुनियावी मामलों से पूरी तरह घिरे रहते हैं, लेकिन गांधीजी को यह भी पता था कि हिंदू-मुस्लिम एकता के उनके विचार को नेहरू ज्यादा ईमानदारी के साथ समझेंगे और इसे लागू करने के लिए सुविचारित, अहिंसक तथा जायज तरीका अपनाएंगे.
पटेल की सबसे बड़ी कामयाबी 540 देसी रियासतों को भारतीय संघ में मिलाना था, उन्होंने जो यह काम किया उसके लिए वह बधाई व धन्यवाद के पात्र हैं, लेकिन वह साध्य में भरोसा करते थे, साधन में नहीं, कुछ राज्य स्वेच्छा से भारतीय संघ में शामिल होने को तैयार थे, लेकिन कुछ ने इसका विरोध किया, पटेल के सचिव वीपी मेनन ने अपने संस्मरण में इस बात के लिए कोई खेद नहीं व्यक्त किया है कि सबसे ज्यादा अनिच्छुक राच्यों को भी सेना-पुलिस के बल पर रास्ते पर लाया गया.
त्रावणकोर इसका अद्भुत नमूना है, इसने अपने को आजाद घोषित कर दिया था और अलग होने की प्रक्त्रिया शुरू कर दी थी, पटेल जब त्रावणकोर महाराजा के पास गए तो काफी संख्या में खाकी वर्दी वालों को साथ ले गए थे, उन्होंने महाराजा को समझाया कि वह नहीं चाहते कि उनके परिवार वालों को तकलीफ हो और उन्हें जेल जाना पड़े, गांधीजी को इस बात का भी भरोसा था कि उनके पंथनिरपेक्ष आदर्श नेहरू के हाथों में च्यादा सुरक्षित रहेंगे.
पटेल ने जब पाकिस्तान को 64 करोड़ रुपये देने से इन्कार कर दिया तो यह बात साबित हो गई, बंटवारे के समय भारत यह राशि पाकिस्तान को देने पर सहमत हुआ था, लेकिन सरदार पटेल का तर्क था कि जब भारत और पाकिस्तान कश्मीर के सवाल पर लड़ रहे हैं तो फिर यह राशि पाकिस्तान को कैसे दी जा सकती है? इसके बाद गांधीजी को सरदार पटेल को मनाने के लिए आमरण अनशन करना पड़ा, अतिवादी हिंदुओं ने 64 करोड़ रुपये के सवाल पर सद्भावना के माहौल को बिगाड़ा, समाज के गिरोहबंदी की कोशिश की गई, उन लोगों ने राष्ट्रविरोधी और हिंदू विरोधी बताकर गांधीजी की बार-बार आलोचना की, फिर एक दिन गांधीजी कट्टरपंथी हिंदुत्व के शिकार हो गए.
इस घटना के बाद राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ पर प्रतिबंध लगाकर और इस पर माहौल बिगाड़ने का आरोप लगाकर पटेल ने बिल्कुल सही किया था, लेकिन फिर संघ ने खुद को सांस्कृतिक संगठन में बदल लिया तो संघ के प्रति अपने नजरिये के कारण पटेल ने प्रतिबंध हटा लिया, संघ के स्वरूप में यह बदलाव महज दिखावे का था और इसी के बल पर वह अपने राजनीतिक मकसद के लिए पहले भारतीय जनसंघ और अब भाजपा का इस्तेमाल करता आ रहा है.
मोदी उसके उम्मीदवार हैं, हकीकत यह है कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ प्रमुख मोहन भागवत ने खुलेआम कहा है कि उनका संगठन राजनीति में भाग लेगा, नेहरू ने इस दोहरेपन को कई बार उजागर किया था, आजाद ने जब नेहरू को राष्ट्रपति पद के लिए उपयुक्त माना था तो वह पूरी तरह आश्वस्त थे कि सांप्रदायिक ताकतों को पूरी तरह कुचल दिया गया है.
उन्होंने पटेल की प्रगतिशीलता और व्यावहारिकता की प्रशंसा की थी, आजाद को पटेल की पंथनिरपेक्ष प्रवृति पर पूरा भरोसा था, अब नरेंद्र मोदी सरदार पटेल के नाम का इस्तेमाल समाज को गोलबंद करने के लिए कर रहे हैं, यह दुर्भाग्यपूर्ण है, सरदार पटेल की तरह व्यवहारिक होकर उन्हें समझना चाहिए कि भारत का भविष्य लोकतांत्रिक और पंथनिरपेक्ष राजनीति में है, अगर मोदी अगले आम चुनाव के बाद प्रधानमंत्री बनते हैं तो उन्हें इसके आधार को नेहरू से ज्यादा मजबूत करना होगा.
[लेखक कुलदीप नैयर, वरिष्ठ स्तंभकार हैं]

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