Thursday 21 November 2019

अयोध्या फ़ैसला सबूतों की बिना पर हक़ है, अपनी नाकामी पर अब बहस नहीं होनी चाहिए...!

"एस एम फ़रीद भारतीय"

कुल हु वल्लाहु अहद - कहो कि वह एकेश्वर,
अल्लाहु समद - वह अमर है और हर कारण का कर्ता,
लम यलिद व लम यूलद - न वह किसी कोख से जन्मा है और न ही कोई उसकी कोख से जन्मा,
व लम यकुन लहू कुफुअन अहद - और उस जैसा कोई
और नहीं.

ये चार आयतें कुरान के इखलास नाम के 112 वें अध्याय की हैं. इस्लामी मत के अनुसार यह तर्कसंगत लगता है कि जो बहुआयामी हो, जिसका कोई आदि और अंत न हो और जिसके जैसा कोई न हो, ऐसे सर्वशक्तिमान और सर्वव्यापी आराध्य को चित्र या मूर्ति के सीमित दायरे से देखा-समझा नहीं जा सकता, यहीं से शुरू हुआ अयोध्या विवाद जिसको मुस्लिम पक्ष देश की सबसे बड़ी अदालत को समझा नहीं पाया, कैसे जानने के लिए पूरा लेख पढ़ें...!

१. अयोध्या मामले में ये तय किया जाना था कि क्या पहले वहाँ कोई हिंदू मंदिर था जिसे तोड़कर या संरचना बदल कर उसे मस्जिद का रूप दिया गया था, जो सुप्रीम कोर्ट ने तय किया कि यहां किसी मंदिर को तोड़कर मस्जिद बनी ये साबित नहीं होता, ये फ़ैसला हाईकोर्ट के मुस्लिम जज ने भी दिया था, जिसे सुप्रीम कोर्ट ने माना और लिख दिया कि मंदिर तोड़कर मस्जिद बनी ये सबूत नहीं हैं, लिहाज़ा एक बड़ा दाग़ मुस्लिमों और इस्लाम से हट गया, जो ख़ुशी की बात है.

२. अब ९ नवम्बर २०१९ को फ़ैसला देने वाली संवैधानिक बेंच में पांच जज थे, जिसकी अगुवाई खुद मुख्य न्यायाधीश रंजन गोगोई कर रहे थे, बाकी चार सदस्य थे- जस्टिस एसए बोबडे, जस्टिस अशोक भूषण, जस्टिस डीवाई चंद्रचूड़ और जस्टिस एस अब्दुल नज़ीर, मामले की सुनवाई कर रही पांच सदस्यीय बेंच में जस्टिस नज़ीर अकेले मुस्लिम थे, उन्होंने भी मौन रहकर अपनी सहमति दे दी, या क्या कहा फ़ैसले में किसी का नाम ना होने से ये पता नहीं चलता.

३. अयोध्या में हिंदुओं का दावा था, कि बाबरी मस्जिद की जगह राम की जन्मभूमि थी और 16वीं सदी में एक मुस्लिम आक्रमणकारी ने हिंदू मंदिर को गिराकर वहां मस्जिद बनाई थी, वहीं दूसरी तरफ़ मुस्लिम पक्ष का दावा था, कि दिसम्बर 1949 में जब कुछ लोगों ने अंधेरे का फायदा उठाकर मस्जिद में राम की मूर्ति रख दी और तबतक वे वहां नमाज़ अदा किया करते थे, मूर्ति रखने के बाद ही वहां राम की पूजा शुरू हो गई थी.

४. इस विवाद में साल 2010 में इलाहाबाद हाईकोर्ट की तीन सदस्यों वाली पीठ जिसमें दो हिंदू जज थे ने कहा कि ये इमारत भारत में मुग़ल शासन की नींव रखने वाले ने बनाया था, ये मस्जिद नहीं थी क्योंकि ये 'इस्लाम के सिद्धातों के ख़िलाफ़' एक गिराए गए मंदिर की जगह बनाई गई थी, जबकि इसमें तीसरे मुस्लिम जज ने अलग फैसला दिया और उनका तर्क था कि यहां कोई भी मंदिर नहीं गिराया गया था और मस्जिद खंडहर पर बनी थी, क्यूंकि खुदाई के बाद मिले सबूत भी ये नहीं बता पाये कि ये किस हिंदू देवता का मंदिर था, मिले सबूतों से ही ये साबित नहीं हुआ कि ये पहले राम का मंदिर था, और जब ये पहले राम का मंदिर नहीं था तब राम जन्मस्थान कैसे हो गया...? यहां मुस्लिम पक्ष इस दलील से चूक गया.

५.  ६ दिसम्बर १९९२ को विश्व हिंदू परिषद (वीएचपी) के कार्यकर्ताओं और भारतीय जनता पार्टी के कुछ नेताओं और इससे जुड़े संगठनों ने कथित रूप से विवादित जगह पर एक रैली आयोजित की, इसमें डेढ़ लाख कार सेवक शामिल हुए थे, नेताओं के भाषण के बाद रैली की भीड़ हिंसक हो गई और भीड़ ने सुरक्षा बलों को काबू कर लिया और 16वीं शताब्दी की निशानी बाबरी मस्जिद को गिरा दी, शहीद कर दी गई.

इसके बाद जिस सियासत को लेकर इस मुद्दे को गरमाया गया था वो सियासत अब शुरू हो चुकी थी, हज़ारों लोगों की लाश पर देश मैं सियासत की जा रही थी.

उस समय के राष्ट्रपति शंकर दयाल शर्मा ने उत्तर प्रदेश में राष्ट्रपति शासन लागू कर दिया और विधानसभा भंग कर दी, केंद्र सरकार ने 1993 में एक अध्यादेश जारी कर विवादित ज़मीन को अपने नियंत्रण में ले लिया, नियंत्रण में ली गई ज़मीन का रक़बा करीब 67.7 एकड़ है.

इसके बाद में इस घटना की जांच के आदेश दिए गए, जिसमें पाया गया कि इस मामले में 68 लोग ज़िम्मेदार थे, जिसमें बीजेपी और वीएचपी की कई नेताओं का भी नाम था, ये मामला अभी भी जारी है, जबकि मुस्लिम पक्ष को चाहिए था जगह से पहले इस कैस पर मेहनत की जाये, पहले मस्जिद गिराने वालों को सज़ा दिलाई जाये, अगर ऐसा होता तब आज देश की सियासत ना तो इस मुक़ाम पर होती और ना ही देश में दहशत के माहौल के साथ ये आरोप किसी पर लगता कि देश का सिस्टम किसी दबाव मैं काम कर रहा है.

हमको नहीं भूलना चाहिए कि बाबरी मस्जिद गिराने के मामले में कथित भूमिका को लेकर बीजेपी के वरिष्ठ नेता लाल कृष्ण आडवाणी, मुरली मनोहर जोशी, कल्याण सिंह, विनय कटियार, उमा भारती और कई अन्य नेताओं पर वर्तमान में विशेष सीबीआई जज एसके यादव की अदालत में सुनवाई चल रही है, जोकि आज भी वहीं अटकी है जहां से शुरू हुई थी, जबकि सभी आरोपी सत्ता के ऊंचे मुकाम पर पदासीन रह चुके हैं, अभी लड़ाई बहुत लम्बी है, क्या इसे कुछ मुस्लिमों नेताओं मिली भगत और सियासत मैं हिस्सेदारी नहीं माना जाना चाहिए...? अगर हां तब अकेले भाजपा ही दोषी क्यूं...?

अब आते हैं असल मुद्दे पर जिसके लिए ये लेख लिखा गया और इतना लम्बा हो गया कि शायद आपको पढ़ने मैं दुशवारी हो, लेकिन मामले के हर पहलू को समझना बेहद ज़रूरी है, तभी हम किसी नतीजे पर पहुंच सकते है, वरना पेड़ के तने को छोड़ शाख़ को पकड़ने का अंजाम क्या है ये फ़ैसला उसकी मिसाल है, लोगों की ज़ुबान पर फ़ैसले के बारे मैं सुना तो जा सकता है कि फ़ैसला ग़लत हुआ, मगर क्यूं ग़लत हुआ इसका जवाब किसी के पास नहीं होता, क्यूंकि अदालत सबूतों की बिना पर काम करती है और जो सबूत सामने हैं उनको आप आरोप लगाकर ख़ुद नकार रहे हैं, जबकि वही सबूत आपके हक़ की गवाही दे रहे हैं कैसे जानते हैं आगे...?

हजरत ईसा (अलैहि सलाम) को बनी इजराईल की तरफ नबी बनाकर भेजा गया था, उनकी कौम ने भी उनको ठुकरा दिया था और न केवल ठुकराया था बल्कि उन्हें सूली पर चढ़ाने पर भी आमादा हो गये थे मगर इसके बाबजूद हजरत ईसा (अलैहि सलाम) अपनी कौम की बेहतरी ही चाहते रहें, कुरान-मजीद में आता है कि कयामत के रोज जब अल्लाह ईसा (अलैहि सलाम) से ये पूछेगा कि क्या ये तुमने इनसे कहा था कि मुझे और मेरी माँ को माबूद बना लो? 

इसपर हजरत ईसा फरमायेंगें , 'मैनें उनसे इसके सिवा और कुछ नहीं कहा जिसका तूने मुझे हुक्म दिया था, यह कि अल्लाह की इबादत करो जो मेरा भी रब है और तुम्हारा भी, मैं जब तक उनके बीच रहा, उनकी खबर रखता रहा, जब तूने मुझे वापस लिया तो उनका निगहबान था, यदि तू उन्हें यातना में ग्रस्त करे तो वे तो तेरे बंदे ही हैं और यदि तू उन्हें क्षमा कर दे तो तू प्रभुत्वशाली और तत्वदर्शी है.' (कुरआन, सूरह माददह, 5:116)

हजरत इब्राहीम (अलैहि सलाम) का जन्म जहां हुआ था वो पूरी कौम बुतपरस्ती में मुब्तला थी, हजरत इब्राहीम (अलैहि सलाम) ने जब अपनी कौम को इसके खिलाफ खबरदार किया तो पूरी कौम उनकी मुखालफत पर आमादा हो गई, यहां तक की हजरत इब्राहीम (अलैहि सलाम) के वालिद भी उनके मुखालिफ हो गये, इब्राहीम (अलैहि सलाम) से उनकी कौम की नफरत का ये आलम था कि उन लोगों ने उन्हें आग में जलाने की भी नाकाम कोशिश की पर हजरत इब्राहीम (अलैहि सलाम) की जुबान से अपनी कौम के लिये बद्दुआ नहीं निकली वरन् उन्होंनें खुदा से यही दुआ कि "और याद करो जब इब्राहीम ने कहा, रब! इस नगर को शांति वाला बना दे।" (कुरआन, सूरह इब्राहीम, 14:35)

हजरत मूसा (अलैहि सलाम) की कौम भी खुदा की नाफरमान थी मगर फिर भी हजरत मूसा (अलैहि सलाम) उनके लिये खुदा से मग्रिफत की दुआ तलब करते थे, अपनी कौम को उन्होंनें जालिम फिरऔन से छुड़ाया था मगर बाबजूद इसके उनकी कौम हजरत मूसा (अलैहि सलाम) की नाफरमान थी, उनकी कौम के केवल चंद लोगों ने ही उनके ऊपर ईमान लाया था. (कुरान, 10:83) 

मगर तब भी हज़रत मूसा (अलैहि सलाम)  खुदा से अपनी कौम की बेहतरी के लिये ही दुआ करते थे, पवित्र कुरान (सूरह आराफ, 7:155-56) इसकी तस्दीक करते हुये कहता है, 'और मूसा ने अपनी जाति के 70 आदमियों को हमारे नियत किये हुये समय पर लाने के लिये चुना, तो जब इन लोगों को एक भूकंप ने आ घेरा तो मूसा ने कहा,  हे रब! यदि तू चाहता तो पहले ही इनको और मुझे भी नष्ट कर देता, जो कुछ हमारे नादानों ने किया क्या उसके लिये तू हमें भी नष्ट कर देगा ? यह तो तेरी ओर से एक आजमाईश है, तू जिसे चाहे भटका दे और जिसे चाहे मार्ग दिखा दे, तू हमारा संरक्षक मित्र है तो हमें क्षमा कर दे और हम पर दया कर और तू सबसे बढ़कर क्षमा करने वाला है, और हमारे तू इस दुनिया में भी भलाई लिख दे और आखिरत में भी.'

वहीं अल्लाह कहता है, कि हमने नूह को उसकी कौम की तरफ भेजा, उसने उसने कहा, हे मेरी कौम! अल्लाह की इबादत करो, उसके सिवा तुम्हारा कोई इलाह नहीं, मैं तुम्हारे लिये एक भारी दिन की यातना से डरता हूँ ! (सूरह आराफ, आयात-59)

हज़रत हूद (अलैहि सलाम) को कौमे आद की तरफ भेजा गया था। उन्होंनें भी अपने कौम वालों से कहा मैं तुम्हारा हितैषी और विश्वस्त हूँ। (सूरह आराफ, आयात-68)

हज़रत सालेह (अलैहि सलाम) ने भी अपनी कौम से यही कहा, ऐ मेरी कौम! मैनें तुम्हारा हित चाहा। (सूरह आराफ, 7:79)

हज़रत शुएब (अलैहि सलाम) को मदयन की तरफ भेजा गया था। उनकी कौम भी जालिम थी पर हज़रत शुएब (अलैहि सलाम) ने उनसे कहा, ऐ मेरी कौम! मैनें तुम्हारा हित चाहा। (सूरह आराफ, 7:93)

इन तमाम नबियों के लिये उनके कौम वालों ने तरह-तरह की मुश्किलें पैदा की और हर कदम पर उन्हें ठुकराया, उन्हें लांछित करने का कोई भी मौका खाली नहीं जाने दिया, पर इन सबके बाबजूद इन नबियों की जुबान पर कभी भी अपनी कौम के लिये बद्दुआ नहीं आई, और तो और वो ईश्वर से इनकी मग्रिफत की दुआयें ही करते रहे.

‘हुब्बुल वतनी मिनल ईमान‘ यानि वतनपरस्ती ईमान का हिस्सा है। ये नबी (सलल्ललाहु अलेयहि वसल्लम) की मशहूर हदीस है जो इस्लाम में वतनपरस्ती का मुकाम दर्शाती है। कुरान के अनुसार हजरत मोहम्मद (सलल्ललाहु अलेयहि वसल्लम) को सारे आलम के लिये रहमत बना कर भेजा गया था। यानि उन्हें तमाम दुनिया के लिये भेजा गया था। नबी (सलल्ललाहु अलेयहि वसल्लम) जानते थें कि उनकी रिसालत को मानने वाले दुनिया के मुख्तलिफ हिस्सों में होंगें जहां ये मुमकिन है कि वहां की हुकुमत मुसलमानों की नहीं हो इसलिये उन्होंनें अपने उम्मतियों को अपने वतन से मोहब्बत करने की तालीम दी, वहां के हुक्मरानों के बनाए विधानों के मातहत काम करने का हुक्म दिया और अपनी मुबारक जुबान से फरमाया, ‘हुब्बुल वतनी मिनल ईमान‘ यानि वतनपरस्ती ईमान का हिस्सा है.

कुरान मजीद मोमिनों को हक्म देता है कि वो अल्लाह, उसके रसूल और उनमें जो साहिबाने-हुकूमत हो उनकी बात माने, कुरान में आता है, ऐ ईमानवालों! इताअत करो अल्लाह की और रसूल की और जो तुममें से साहिबाने-हुकूमत हो उनकी। (सूरह निसा, 4: 59)

नबी ऐ करीम (सलल्ललाहु अलेयहि वसल्लम) की तालीम भी मुसलमानों को सही ताकीद करती है कि वो जिस किसी भी मुल्क के रहने वाले हों, वहां की सरकार या हुकूमत की इताअत करे, उसके खिलाफ न जाये, उनकी इस तालीम से मुतल्लिक दसियों हदीसें हैं- जैसे

जो कौमें तुमसे पहले हलाक हो चुकीं हैं उनमें ऐसे समझदार लोग क्यों न हुये जो लोगों को मुल्क में फसाद फैलाने से मना करते अलबत्ता चंद आदमी ऐसे थे जो फसाद से रोकते थे जिन्हें हमने अजाब से बचा लिया था. (सूरह हूद, 116ः117)

हज़रत अनस बिन मालिक से रिवायत है कि रसूल (सलल्ललाहु अलेयहि वसल्लम) ने इर्शाद फरमाया, अमीर की बात सुनते और मानते रहो, अगरचे तुम पर हब्शी गुलाम ही अमीर क्यों न बनाया गया हा, जिसका सर गोया (छेाटे होने में) किशमिश की तरह हो। (बुखारी शरीफ)

हज़रत वाइल हजरमी से रिवायत है, रसूल (सलल्ललाहु अलेयहि वसल्लम) ने इर्शाद फरमाया, तुम अमीरों की बात सुनो और मानो क्योंकि उनकी जिम्मेदारियों (मसलन इंसाफ करना) के बारे में उनसे और तुम्हारी जिम्मेदारियों के बारे में तुमसे पूछा जाएगा (मसलन अमीर की बात मानना) (मुस्लिम शरीफ)

हज़रत अब्दुल्ला बिन उमर रिवायत करतें हैं कि रसूल (सलल्ललाहु अलेयहि वसल्लम) ने इर्शाद फरमाया कि अमीर की बात मानना और सुनना मुसलमान पर बाजिब है। (मस्नदे अहमद)

हज़रत जैद बिन साबित से रिवायत है कि रसूल (सलल्ललाहु अलेयहि वसल्लम) ने इर्शाद फरमाया तीन आदतें ऐसी हैं जिनकी वजह से मोमिनों का दिल कीना और खयानत (हर किस्म की बुराई) से पाक रहता है, उसमें से एक है हाकिमों की खैरख्वाही करना। (इब्ने हब्बान)

हज़रत अबू हुरैरा से रिवायत है कि रसूल (सलल्ललाहु अलेयहि वसल्लम) ने इर्शाद फरमाया, बेशक दीन खुलूस और वफादारी का नाम है। (इस बात को तीन बार दुहराया)। सहाबियों ने अर्ज किया, या रसूल (सलल्ललाहु अलेयहि वसल्लम) ! किसके साथ खुलूस और वफादारी? इर्शाद फरमाया, अल्लाह तआला, अल्लाह की किताब, अल्लाह के रसूल, मुसलमानों के साथ और उनके अवाम के साथ। (नसाई शरीफ)

नबी (सलल्ललाहु अलेयहि वसल्लम) की सीरत अनेकों ऐसी मिसालों से भरी हुई है जो हुजूर-पाक (सलल्ललाहु अलेयहि वसल्लम) की वतन और हमवतनों की मोहब्बत की तालीम से वाबस्ता हैं, मक्का वालों की दुश्मनी जब हद से बढ़ कई तो नबी (सलल्ललाहु अलेयहि वसल्लम) को लगा कि फिलहाल मक्के वाले को छोड़कर उसके आस-पास के इलाकों में तब्लीग करनी चाहिये, इसी  क्रम में उन्होंनें अपना रुख ताएफ की तरफ किया और अपने मुँहबोले बेटे जैद को लेकर तब्लीग करने ताएफ पहुँच गये, वहां पहुँच कर जब उन्होनें वहां के सरदारों को दीन की दावत दी तो वे बजाये उनकी बात सुनने के वो सब उनसे उलझ पड़े और ताएफ के बच्चों को जमा कर कहा कि इन दोनों को पत्थर मारकर यहां से निकाल दो, सारा शहर इन दोनों पर टूट पर, इन पर तीर बरसाये गये, पत्थरों की बारिश की गई। नबी (सलल्ललाहु अलेयहि वसल्लम) और हजरत जैद लहूलूहान हो गये, उनके जूते खून से भर गये, वहां के बचकर नबी (सलल्ललाहु अलेयहि वसल्लम) एक बगीचे में पहुँचे और निढ़ाल होकर एक पेड़ के किनारे बैठ गये.

तभी अल्लाह ने जिब्रील (अलैहि सलाम) को उनके पास भेजा, जिब्रील(अलैहि सलाम) ने आकर उनसे कहा, नबी (सलल्ललाहु अलेयहि वसल्लम) आपकी खिदमत में पहाड़ों का फरिश्ता हीबाल हाजिर है, ताकि वह आपके हुक्म की तामील करे, आप अगर कहें तो हीबाल अभी इन दोनों पहाड़ों को मिला देगा और ताएफ वालों को उसमें पीसकर कर रख देगा, नबी (सलल्ललाहु अलेयहि वसल्लम) ने जिब्रील से कहा, नहीं ! बल्कि मैं उम्मीद करता हूँ कि अल्लाह उनकी नस्लों में से ऐसे बंदों को पैदा फरमाएगा जो सिर्फ अल्लाह की इबादत करने वाली होगी.

इतनी तकलीफ और मुसीबतों को झेलने के बाद भी नबी (सलल्ललाहु अलेयहि वसल्लम) की रहमत अपने कौम वालों के लिये बनी रही, नबी (सलल्ललाहु अलेयहि वसल्लम) ने हमेशा अपने कौम वालों के लिए खुदा से यही दुआ कि "या अल्लाह! ये मेरी कौम है, इन्हें अजाब न दे बल्कि हिदायत दे, आमीन सुम्मा आमीन"

यूं तो पहले मूर्ति पूजा शुरू में हिन्दू धर्म में भी नहीं थी, अग्नि में होम कर दैवी शक्तियों को हविष्य प्रदान किया जाता था वैदिक और उपनिषद् काल तक, बाद में देवों देवियों की मूर्तियां बनायीं जाने लगीं, वास्तव में यह एक नवाचार या इन्नोवेशन था, लोगों ने महसूस किया कि ईश्वर या देवताओं को प्रतीकात्मक रूप में आँखों से देखकर अधिक सरलता से याद रखना संभव था, देवता की मूर्ति बनी तो उन्हें रखने के लिए मंदिर बने, इस प्रकार मूर्ति पूजा और मंदिरों का रिवाज शुरू हुआ.

सुप्रीम कोर्ट के फ़ैसले को समझने के लिए हमको पहले इस्लाम और बुत परसती को समझना होगा, तभी हम फ़ैसले मैं कहां किससे क्या चूक और ग़लती हुई उसको समझ सकते हैं, क्यूंकि किसी भी फ़ैसले पर ऊंगली उठाना बहुत आसान है, लेकिन ये फ़ैसला ऐसा क्यूं आया, वजह क्या रही इसको साबित करने के लिए वक़्त और दिमाग़ दोनों ही लगाना बहुत ज़रूरी है, जिसको आज के दौर मैं आसानी से समझा जा सकता है.

बुतपरस्ती से अभिप्राय मूर्तियों की पूजा करना और उनसे लगाव रखना है। यह शब्द उन स्थलीय (लौकिक) धर्मों को इंगित करता है, जो मूर्तियों की पूजा करते हैं, जैसे कि अरब, भारत, जापान इत्यादि के अनेकेश्वरवादी, जबकि अह्ले किताब यानी यहूदियों और ईसाइयों का मामला इसके विपरीत है.
कुरआन और सुन्नत हदीसों में मूर्तियों की पूजा करने से निषेध किया गया है, और अकेले अल्लाह की पूजा करने का आदेश दिया गया है.

अल्लाह तआला ने फरमाया :

 فَاجْتَنِبُوا الرِّجْسَ مِنَ الْأَوْثَانِ وَاجْتَنِبُوا قَوْلَ الزُّورِ

الحج/30 

“तो तुम मूर्तियों की गन्दगी से बचो और झूठी बात से (भी) बचो।” (सूरतुल हज्जः 30)

तथा सर्वशक्तिमान (अल्लाह) ने फरमाया :

 وَالرُّجْزَ فَاهْجُرْ

المدثر/5  

“और अर-रुज्ज़ (मूर्तियों) से दूर रहो!” (सूरतुल मुद्दस्सिरः 5).

अबू सलमह ने कहा : “अर-रुज्ज़” से अभिप्राय मूर्तियाँ हैं। इसे बुखारी ने अपनी सहीह में किताबुत-तफसीर, अल्लाह के कथनः ‘वर्रुज्ज़ा फह्जुर’ के अध्याय के अंतर्गत, मुअल्लक़न रिवायत किया है।

तथा अल्लाह तआला ने फरमाया :

 وَإِبْرَاهِيمَ إِذْ قَالَ لِقَوْمِهِ اعْبُدُوا اللَّهَ وَاتَّقُوهُ ذَلِكُمْ خَيْرٌ لَكُمْ إِنْ كُنْتُمْ تَعْلَمُونَ (16) إِنَّمَا تَعْبُدُونَ مِنْ دُونِ اللَّهِ أَوْثَانًا وَتَخْلُقُونَ إِفْكًا إِنَّ الَّذِينَ تَعْبُدُونَ مِنْ دُونِ اللَّهِ لَا يَمْلِكُونَ لَكُمْ رِزْقًا فَابْتَغُوا عِنْدَ اللَّهِ الرِّزْقَ وَاعْبُدُوهُ وَاشْكُرُوا لَهُ إِلَيْهِ تُرْجَعُونَ 

العنكبوت/16، 17 

“और याद करो इबराहीम को जब उन्होंने अपनी क़ौम के लोगों से कहा, अल्लाह की उपासना करो और उससे डरते रहो, यही तुम्हारे लिए बेहतर है, यदि तुम जानते हो, तुम तो अल्लाह को छोड़कर मात्र मूर्तियों को पूज रहे हो और झूठ घड़ रहे हो, निःसंदेह तुम अल्लाह को छोड़कर जिनको पूजते हो वे तुम्हारे लिए रोज़ी का भी अधिकार नहीं रखते, अतः तुम अल्लाह ही के यहाँ रोज़ी तलाश करो और उसी की इबादत करो और उसके आभारी बनो, तुम्हें उसी की ओर लौटकर जाना है.” (सूरतुल अनकबूतः 16 -17).

तथा उसने फरमाया :

 وَقَالَ إِنَّمَا اتَّخَذْتُمْ مِنْ دُونِ اللَّهِ أَوْثَانًا مَوَدَّةَ بَيْنِكُمْ فِي الْحَيَاةِ الدُّنْيَا ثُمَّ يَوْمَ الْقِيَامَةِ يَكْفُرُ بَعْضُكُمْ بِبَعْضٍ وَيَلْعَنُ بَعْضُكُمْ بَعْضًا وَمَأْوَاكُمُ النَّارُ وَمَا لَكُمْ مِنْ نَاصِرِينَ

العنكبوت/26

“और उसने कहा कि तुमने अल्लाह को छोड़कर जिन मूर्तियों को (पूज्य) बना रखा है वह केवल सांसारिक जीवन में तुम्हारी पारस्परिक दोस्ती के कारण है, फिर क़ियामत के दिन तुममें से (हर) एक, दूसरे (की दोस्ती) का इनकार करेगा और तुममें से (हर) एक, दूसरे पर लानत (धिक्कार) करेगा, और तुम्हारा ठिकाना आग होगा और कोई तुम्हारा सहायक न होगा।” (सूरतुल अनकबूतः 26).

बुखारी (हदीस संख्या : 7) ने अबू सुफयान के साथ हिरक़्ल की कहानी के विषय में रिवायत किया है कि हिरक़्ल ने कहाः “और मैंने तुमसे पूछा कि वह तुमसे किस चीज़ के लिए कहते हैं, तो तुमने कहा कि वह तुम्हें हुक्म देते हैं कि तुम अल्लाह की इबादत करो और उसके साथ किसी भी चीज़ को साझी न ठहराओ, और वह तुम्हें मूर्तियों की पूजा से रोकते हैं, तथा वह तुम्हें नमाज़ पढ़ने, सच्च बोलने और सतीत्व की रक्षा करने का हुक्म देते हैं, अतः यदि ये बातें जो तुम कह रहे हो, सच्च हैं तो निकट ही वह इस स्थान का मालिक हो जाएगा जहाँ मेरे ये दोनों पाँव हैं.”

अबू दाऊद (हदीस संख्या : 4252) और तिर्मिज़ी (हदीस संख्या : 2219) ने सौबान रज़ियल्लाहु अन्हु से रिवायत किया है कि उन्हों ने कहा: अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने फरमाया : "अल्लाह ने मेरे लिए ज़मीन को समेट दिया, तो मैंने उसके पूर्व और पश्चिम को देखा, और निःसंदेह मेरी उम्मत का राज्य वहाँ तक पहुँचकर रहेगा जहाँ तक मेरे लिए ज़मीन समेटी गई, तथा मुझे लाल और सफेद दो खज़ाने दिए गए, तथा क़यामत उस समय तक नहीं आएगी जब तक कि मेरी उम्मत के कुछ क़बीले (गोत्र) मुश्रिकों से मिल न जाएँ, और यहाँ तक कि मेरी उम्मत के कुछ क़बीले (गोत्र) मूर्तियों की पूजा न करने लगें।'' इस हदीस को अलबानी ने सहीह अबू दाऊद में सहीह कहा है.

इमाम बुखारी ने अपनी सहीह में यह अध्याय क़ायम किया हैः ''अध्यायः समय का बदलना यहाँ तक कि मूर्तियों की पूजा होने लगेगी'', फिर उन्हों ने अबू हुरैरा रज़ियल्लाहु अन्हु की हदीस को उल्लेख किया है कि अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने फरमाया: “क़यामत क़ायम नहीं होगी यहाँ तक कि दौस के गोत्र की महिलाओं के नितंब ज़ुल-खलसा पर हिलने लगें.'' ज़ुल-खलसा दौस गोत्र की मूर्ति थी, जिसकी वे इस्लाम के पूर्व अज्ञानता के काल में पूजा करते थे, इसे बुखारी (हदीस संख्या : 7116)  ने रिवायत किया है.

सारांश यह किः बुतपरस्ती अर्थात मूर्तियों की पूजाः अरब प्रायद्वीप में व्यापक रूप से प्रचलित थी, जो कि आजकल कुछ देशों, जैसे भारत, जापान और अफ्रीका के कुछ देशों में प्रचलित है, और हदीस में है कि वह अंतिम समय में क़यामत क़ायम होने से पहले, अरब प्रायद्वीप में वापस आ जाएगी, और अल्लाह तआला ही सबसे अधिक ज्ञान रखता है.

नूह (अलैहिस्लाम) जिस कौम मे मबउस थे उस कौम मे पाँच नेक सालेहीन नेक बुजुर्ग औलिया अल्लाह थे, उनकी मज्लिसों मे बैठकर लोग अल्लाह को याद करते थे और मसाइल सुनते थे, इससे उनके दीन को तक्वियत पहुँचा करती थी, जब वे ग़ुजर गए तो क़ौम मे परेशानी हुई कि अब न वो मज्लिस रही न वो मसाइल रहे, अब कहा बैठे ?
उस वक्त शैतान ने उनके दिलों मे यह फूंक मारी कि इन बुजूर्गों की इबादतगाहों मे उनकी तस्वीर (बूत) बनाकर अपने पास रख लो, जब उन तस्वीरों को देखोगे तो उनका जमाना याद आ जाएगा और वह क़ैफियत पैदा हो जाएगी.

तो उन के पाँचों के मुजस्समें बनाए गए और उन पाँचों का नाम था (1) वद , (2) सुवाअ , (3) यग़ूस , (4) नसर , (5) यऊक. उनका कुरआन मे जिक्र है ये पाँच बुत बनाकर रखे गए !
उनका मक्सद सिर्फ तज़्कीर था की उन तस्वीरों (बुतो) के जरीए याद दिहानी हो जाएगी, उनको पूजना मक्सद नही था, शूरू मे जब तक लोगो के दिलों मे मारिफ़त रही, उन बुजूर्गों के असरात रहे.

लेकिन जब दुसरी नस्ल आई तो उनके दिलों मे वह मारफत नहीं रही उनके सामने तो यही बुत थे, चूनांचे कुछ अल्लाह की तरफ मुतवज्जेह हुए और कुछ बुतों की तरफ मुतवज्जेह हुए.

और जब तीसरी नस्ल आई तब तक शैतान अपना काम कर चुका था, उनके दिलों मे इतनी भी मारफत नही रही, उनके सामने बुत ही बुत रह गए, उन्हीं को सजदा, उन्हीं को नियाज उन्हीं की नज़र यहां तक कि शिर्क शुरू हो गया, फिर तो नज़राने वसूल किए जाने लगे मेंले और उर्स न जाने क्या क्या ख़ुराफ़ात शुरू हो गई. (तफ़्सीरे इब्ने कसीर:पारा 29 ,पेज. 42 ,सूर: नूह के दुसरे रूकूअ मे)

अब फ़ैसला सुप्रीम कोर्ट जिसने कहा कि हमको जो सबूत मिले हैं वो मस्जिद के तो नहीं हैं लेकिन किस देवता के मंदिर के हैं ये भी मालूम नहीं हो सका, चीफ जस्टिस रंजन गोगोई ने कहा- राम जन्मभूमि स्थान न्यायिक व्यक्ति नहीं है, जबकि भगवान राम न्यायिक व्यक्ति हो सकते हैं, ढहाया गया ढांचा ही भगवान राम का जन्मस्थान है, हिंदुओं की यह आस्था निर्विवादित है, विवादित 2.77 एकड़ जमीन रामलला विराजमान को दी जाए, इसका स्वामित्व केंद्र सरकार के रिसीवर के पास रहेगा, 3 महीने के भीतर ट्रस्ट का गठन कर मंदिर निर्माण की योजना बनाई जाए.

अदालत ने कहा- उत्तर प्रदेश सुन्नी वक्फ बोर्ड विवादित जमीन पर अपना दावा साबित करने में विफल रहा, मस्जिद में इबादत में व्यवधान के बावजूद साक्ष्य यह बताते हैं कि प्रार्थना पूरी तरह से कभी बंद नहीं हुई, मुस्लिमों ने ऐसा कोई साक्ष्य पेश नहीं किया, जो यह दर्शाता हो कि वे 1857 से पहले मस्जिद पर पूरा अधिकार रखते थेे.

इस सवाल पर जब बहस हुई तब मुस्लिम पक्ष को अपनी दलील एएसआई की रिपोर्ट को पूरा पढ़कर रखनी थी कि आख़िरी नबी और क़ुरआन के नाज़िल होने से पहले और कुछ वक़्त बाद तक इस्लाम मैं भी इबादतगाहें ऐसी नहीं थीं जैसी कि आज हैं, पहले बुतपरसती हुआ करती थी, और जब अल्लाह का नया हुकुम आया बुत परसती ख़त्म हुई तब अपनी पुरानी इबादतगाह को शहीद कर नये हुकुम के मुताबिक इबादतगाह को बनाया गया जिसका नाम आज बाबरी मस्जिद है, और नीचे जांच मैं जो मिला वो इसका सबूत है, क्यूंकि जब दुनियां मैं इतनी ख़ाली जगह पड़ी है तब किसी धर्म की इबादतगाह को गिराकर बनाने की किसी भी धर्म को कोई ज़रूरत ही नहीं है.

इस्लाम शुरू से ही भारत मैं भी था जो वेदों से साबित होता है, मगर इबादत का तरीका अल्लाह का पैग़ाम अल्लाह के नबियों के ज़रिये आने के साथ बदलता रहा, जो नबियों को मानते रहे वो इस्लाम के मानने वाले बनते रहे और जिन्होंने नकारा वो अपने पुराने धर्म मैं रहे, यही वजह है जो बाबरी मस्जिद के नीचे खुदाई मैं मिला वो बुत परसती करने वाले इसलाम का था और जो 1992 मैं शहीद किया गया वो अल्लाह के आख़िरी हुकुम क़ुरआन के अनुसार बना था, मगर बना अपनी ही पुरानी इबादतगाह की जगह पर था, क्यूंकि अब बुत परसती हराम हो चुकी थी।

लेकिन अफ़सोस जिरह करने वाले और केस को लड़ने वाले मुस्लिमों ने ये मान लिया कि इस्लाम आख़िरी नबी के ज़माने से है, और मुस्लमान भी तभी से दुनियां मैं वजूद मैं आये हैं, जबकि ये सरासर क़ुरआन और हदीसों को झुंठलाने वाला है, मुस्लिम पक्ष ने इस्लाम को मस्जिद से ही शुरू माना, वो भूल गये कि इस्लाम जिस दिन से दुनियां बनी उस दिन से है यानि बाबा आदम की पैदाईश से लेकर आज तक और इबादत के तरीके भी अलग रहे हैं, जैसा कि ऊपर साबित किया है पहले इस्लाम मैं भी बुत परस्ती हुआ करती थी पूजा स्थलों पर भी अक़ीदतमंदों ने अपनी समझ के लिहाज़ से बुत बना लिये थे जो एएसआई की रिपोर्ट से मालूम हो रहा है.

सुप्रीम कोर्ट ने कहा- "मीर बाकी ने बाबरी मस्जिद बनवाई, धर्मशास्त्र में प्रवेश करना अदालत के लिए उचित नहीं होगा, बाबरी मस्जिद खाली जमीन पर नहीं बनाई गई थी, मस्जिद के नीचे जो ढांचा था, वह इस्लामिक ढांचा नहीं था."  पीठ नें वहीं ये भी कहा कि , "मस्जिद के नीचे जो ढांचा था, वह इस्लामिक ढांचा नहीं था, ढहाए गए ढांचे के नीचे एक मंदिर था, इस तथ्य की पुष्टि आर्कियोलॉजिकल सर्वे ऑफ इंडिया (एएसआई) कर चुका है, पुरातात्विक प्रमाणों को महज एक ओपिनियन करार दे देना एएसआई का अपमान होगा, हालांकि, एएसआई ने यह तथ्य स्थापित नहीं किया कि मंदिर को गिराकर मस्जिद बनाई गई।'

जवाब था बिल्कुल ख़ाली जगह नहीं बनी थी, अपने ही पुराने इबादतगाह को तोड़कर बनी थी, क्यूंकि जो कुछ जांच टीम को मिला वो ये भी साबित करता है कि ये किसी हिंदू देवता या देवता के मंदिर से मेल नहीं खाता.

सुप्रीम कोर्ट ने कहा- अदालत अगर उन मुस्लिमों के दावे को नजरंदाज कर देती है, जिन्हें मस्जिद के ढांचे से पृथक कर दिया गया तो न्याय की जीत नहीं होगी, इसे कानून के हिसाब से चलने के लिए प्रतिबद्ध धर्मनिरपेक्ष देश में लागू नहीं किया जा सकता, गलती को सुधारने के लिए केंद्र पवित्र अयोध्या की अहम जगह पर मस्जिद के निर्माण के लिए 5 एकड़ जमीन दे.

सुप्रीम कोर्ट ने कहा, "सीता रसोई, राम चबूतरा और भंडार गृह की मौजूदगी इस स्थान की धार्मिक वास्तविकता के सबूत हैं, हालांकि, आस्था और विश्वास के आधार पर मालिकाना हक तय नहीं किया जा सकता है, यह केवल विवाद के निपटारे के संकेतक."

पीठ ने कहा- विवादित जमीन रेवेन्यू रिकॉर्ड में सरकारी जमीन के तौर पर चिह्नित थी, यह सबूत मिले हैं कि राम चबूतरा और सीता रसोई पर हिंदू 1857 से पहले भी यहां पूजा करते थे, जब यह ब्रिटिश शासित अवध प्रांत था, रिकॉर्ड में दर्ज साक्ष्य बताते हैं कि विवादित जमीन का बाहरी हिस्सा हिंदुओं के अधीन था.

सुप्रीम कोर्ट ने कहा, "अदालत को धर्म और श्रद्धालुओं की आस्था को स्वीकार करना चाहिए, अदालत को संतुलन बनाए रखना चाहिए, हिंदू इस स्थान को भगवान राम का जन्मस्थान मानते हैं, मुस्लिम भी विवादित जगह के बारे में यही कहते हैैं, प्राचीन यात्रियों द्वारा लिखी किताबें और प्राचीन ग्रंथ दर्शाते हैं कि अयोध्या भगवान राम की जन्मभूमि रही है, ऐतिहासिक उद्धहरणों से संकेत मिलते हैं कि हिंदुओं की आस्था में अयोध्या भगवान राम की जन्मभूमि रही है।"

यहां मुस्लिम अपनी श्रद्धा को क़ुरआन से साबित करने मैं नाकाम रहे, जबकि मुस्लिमों के पास पुख़्ता सबूत थे जो साबित करते कि इस्लाम वाहिद मज़हब है जहां हर मज़हब का सम्मान है, दूसरे तमाम दुनियां के इंसान एक इंसान की औलादें हैं यानि सबका रिश्ता एक ही बाप से है बेशक पूजा इबादत के तरीके अलग हों और इस्लाम मैं किसी दूसरे धर्म की इबादतगाह को गिराकर या किसी की जबरन ज़मीन कब्ज़ा कर इबादतगाह बनाने की इजाज़त बिल्कुल नहीं है।

अब मैं भी अपने लेख को यहीं ख़त्म करता हुँ, क्यूंकि लिखने को तो किताबें इस पर लिखी जा सकती हैं मगर लेख के लिहाज़ से ये भी बड़ा है, आपने पूरा पढ़ा शुक्रिया, इसलिए मैने कहा सबूतों और जिरह के हिसाब से सुप्रीम कोर्ट का फ़ैसला जायज़ है...!

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