Thursday, 21 November 2019

इस्लाम दीने-फितरत है, इस मजहब में इंसानी फितरतों को समझने और उसके तद्नुरुप अनुरुप कर्म करने की सुविधा दी गई है। वतन के प्रति वफादारी भी इंसान के स्वाभाविक फितरतों में से है, इसलिये इस्लाम और उसके लाने वाले ने इंसानों के इस प्राकृतिक जज्बे का
सम्मान रखा है.

इस्लाम की तालीमें अपने वतन और हमवतनों से मोहब्बत करने, उसकी तरक्की के लिये जी तोड़ मेहनत करने और अपने साहिबे-हुकूमत का अनुपालन करने की सीख देती है, इस्लामी मान्यताओं के अनुसार ईश्वर मानवों में सुधार करने के लिये हर कौम में नबी भेजता है, मान्यता ये भी है कि अल्लाह ने धरती पर 1 लाख 24 हजार नबी भेजे,  हजरत मोहम्मद (सलल्ललाहु अलेयहि वसल्लम) से पहले जितने भी नबी भेजे गये थे वो सबके सब अपनी कौम के लिये भेजे गये थे, यानि उनकी नुबूबत और तब्लीग का दायरा उनके अपने वतन तक सीमित था.

यकीनन उन्होंनें अपने वतन और अपने हमवतनों की बेहतरी, सुरक्षा और खुशहाली के लिये हर संभव कोशिशें की होंगी और ये बात कुरान और हदीस से भी साबित है, खुद आखिरी पैगंबर नबी (सलल्ललाहु अलेयहि वसल्लम) और उनके सहाबियों का अमल अपने वतन और हमवतनों से मोहब्बत की तालीम देती है.

कुल हु वल्लाहु अहद - कहो कि वह एकेश्वर,
अल्लाहु समद - वह अमर है और हर कारण का कर्ता,
लम यलिद व लम यूलद - न वह किसी कोख से जन्मा है और न ही कोई उसकी कोख से जन्मा,
व लम यकुन लहू कुफुअन अहद - और उस जैसा कोई और नहीं
ये चार आयतें कुरान के इखलास नाम के 112 वें अध्याय की हैं. इस्लामी मत के अनुसार यह तर्कसंगत लगता है कि जो बहुआयामी हो, जिसका कोई आदि और अंत न हो और जिसके जैसा कोई न हो, ऐसे सर्वशक्तिमान और सर्वव्यापी आराध्य को चित्र या मूर्ति के सीमित दायरे से देखा-समझा नहीं जा सकता.  आख़िरी पैगंबर हज़रत मुहम्मद सलल्ललाहु अलैहिवसल्लम के जीवनकाल में जब भी इस विषय पर कोई सवाल खड़े हुए तो उसका समाधान खुद उनके द्वारा हुआ. पैगंबर सलल्ललाहु अलैहिवसल्लम की मृत्यु के बाद इस्लामी मसलों का समाधान इस्लाम के चार खलीफा - हज़रात अबू बकर, उमर, उस्मान और अली के द्वारा किया जाता था.

हज़रत पैगम्बर मुहम्मद [स्वल्लल्लाहु अलैहि वस्सल्लम] के समय उनके साथ रहने वाले उनके साथी उनकी बातों और उनके तरीकों को लिख या याद कर लिया करते थे इसी को हदीस कहा गया , बाद में हदीस और फ़िक़ह के जानकार इमामों ने इन हदीसो को संग्रहित कर किताबों का रूप दिया, हदीस इस्लाम के कुरान का प्रामाणिक व्याख्यान करने वाला ग्रंथ माना जाता है।

इस्लाम का हज़रत मुहम्मद [स्वल्लल्लाहु अलैहि वस्सल्लम] के रसूल बनने के साथ उसके विशुद्ध रूप में जब पुनः आगमन हुआ, उससे पहले के धर्म-ग्रथों में जो विकार आ गया था, उसके कई कारणों में से एक यह भी था कि ईश-वाणी, रसूल के कथन और दूसरे इन्सानों व धर्माचार्यों, उपदेशकों, वाचकों, सुधारकों और धर्मविदों आदि के कथन भी आपस में मिल-जुल गए। ईशवाणी और मनुष्य-वाणी के मिश्रण में, मूल ईश-ग्रंथ कितना है और इसके अंश कौन-कौन से हैं, यह पता लगाना असंभव हो गया था। पैग़म्बर [स्वल्लल्लाहु अलैहि वस्सल्लम] के साथी हज़रत अबू सलमा की बयान की गई एक हदीस के मुताबिक़ आप ने हदीस-वर्णनकर्ताओं को सख़्त चेतावनी दी थी कि

‘‘जो व्यक्ति मुझ से संबंध लगाकर वह बात कहे जो मैंने नहीं कही, वह अपना ठिकाना जहन्नम (नर्क) में बना ले।’’
—हज़रत मुहम्मद[स्वल्लल्लाहु अलैहि वस्सल्लम] , हज़रत अबू सलमा की बयान की गई एक हदीस

हदीस के निम्नलिखित छः विश्वसनीय संग्रह हैं जिनमें 29,578 हदीसें संग्रहित हैं :

सहीह बुख़ारी : संग्रहकर्ता—अबू अब्दुल्लाह मुहम्मद-बिन-इस्माईल बुख़ारी, हदीसों की संख्या—7225
सहीह मुस्लिम : संग्रहकर्ता—अबुल-हुसैन मुस्लिम बिन अल-हज्जाज, हदीसों की संख्या—4000
सुनन अल-तिर्मिज़ी : संग्रहकर्ता—अबू ईसा मुहम्मद बिन ईसा तिर्मिज़ी, हदीसों की संख्या—3891
सुनन अबू दाऊद : संग्रहकर्ता—अबू दाऊद सुलैमान बिन अशअस सजिस्तानी, हदीसों की संख्या—4800
सुनन इब्ने माजह : संग्रहकर्ता—मुहम्मद बिन यज़ीद बिन माजह, हदीसों की संख्या—4000
सुनन अन-नसाई : संग्रहकर्ता—अबू अब्दुर्रहमान बिन शुऐब ख़ुरासानी, हदीसों की संख्या—5662
मैं ने अधिक बार पढ़ा है कि : (यह काम शिर्क अकबर (बड़ा शिर्क) है, और यह शिर्क असग़र (छोटा शिर्क) है) तो क्या आप मेरे लिए इन दोनों के बीच अंतर स्पष्ट कर सकते हैं ?

उत्तर का पाठ

हर प्रकार की प्रशंसा और गुणगान अल्लाह के लिए योग्य है।

अनिवार्य कर्तव्यों और सब से महत्वपूर्ण दायित्वों मे से यह है कि : बन्दा शिर्क के अर्थ, उसकी गंभीरता और उसके प्रकार की जानकारी प्राप्त करे ताकि उसका एकेश्वरवाद (तौहीद) संपूर्ण, उसका इस्लाम समूचित और उसका ईमान शुद्ध हो सके। तथा हम कहते है और अल्लाह ही शक्ति का स्रोत और उचित मार्गदर्शन करने वाला हैः

आप यह बात जान लें -अल्लाह तआला आप का मार्गदर्शन करे- कि अरबी भाषा में शिर्क का अर्थ : साझी बनाना है अर्थात् किसी को दूसरे का साझीदार और भागीदार बनाना। कहा जाता है : "अश्रका बैनहुमा" जब वह उन्हें दो में विभाजित कर दे, या "अश्रका फी अम्रिहि ग़ैरहु" जब वह उस मामले को दो आदमियों के हाथ में कर दे।

इस्लामी शरीअत की शब्दावली में शिर्क का अर्थ : अल्लाह अज़्ज़ा व जल्ल के साथ उसकी रुबूबियत (स्वामित्व) या इबादत या नामों और गुणों में कोई साझीदार या सदृश बनाना।

"निद्द" अरबी भाषा का शब्द है जिस का अर्थ समकक्ष और प्रतिद्वंद्वी के होते हैं, इसी लिए अल्लाह तआला ने निद्द (अपना समकक्ष और प्रतिद्वंद्वी) बनाने से रोका है और क़ुर्आन करीम की बहुत सी आयतों में अल्लाह तआला को छोड़ कर उस का समकक्ष और सदृश बनाने वालों की निन्दा की है, अल्लाह तआला ने फरमाया : "अत: जानते हुए अल्लाह के समकक्ष (शरीक) न बनाओ।" (सूरतुल-बक़रा: 22)

तथा महान प्रतिष्ठावान अल्लाह ने फरमाया : "और उन्हों ने अल्लाह के लिए समकक्ष बना लिये ताकि लोगों को अल्लाह के मार्ग से भटकायें। (आप) कह दीजिये कि ठीक है मज़ा उड़ा लो, तुम्हारा ठिकाना तो अंत में नरक ही है।" (सूरत इब्राहीम : 30)

तथा हदीस में है कि नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने फरमाया : "जो आदमी इस अवस्था में मरा कि वह अल्लाह को छोड़ कर किसी समकक्ष (प्रतिद्वंद्वी) को पुकारता था, वह नरक में जायेगा।" (सहीह बुखारी हदीस संख्या : 4497, सहीह मुस्लिम हदीस संख्या : 92)

शिर्क के प्रकार:
क़ुरआन व हदीस के नुसूस (सूत्रों) से इंगित होता है कि शिर्क और अल्लाह के अलावा किसी को प्रतिद्वंद्वी और समकक्ष बनाना कभी तो धर्म से निष्कासित करने वाला होता है, और कभी धर्म से निष्कासित नहीं करता है, इस लिए विद्वानों ने उसे दो प्रकार में विभाजित किया है : "शिर्क अक्बर और शिर्क अस्ग़र" (छोटा शिर्क और बड़ा शिर्क),और आप के सामने हर प्रकार की संछिप्त परिभाषा प्रस्तुत की जा रही है:

प्रथम : शिर्क अक्बर (बड़ा शिर्क)

अल्लाह तआला की रुबूबियत, उसकी उलूहियत और उस के नामों और गुणों में से जो उस का एक मात्र हक़ है उसे अल्लाह के अलावा किसी दूसरे के लिए फेर देना शिर्क अक्बर है।

यह शिर्क कभी ज़ाहिर (प्रत्यक्ष) होता है : जैसे कि मूर्तियों और पत्थरों के पूजकों, तथा क़ब्रों, मृतकों और अनुपस्थित लोगों के पुजारियों का शिर्क।

और कभी कभार यह शिर्क गुप्त होता है : जैसे कि अल्लाह के अलावा विभिन्न पूज्यों पर भरोसा करने वालों का शिर्क, या मुनाफिक़ों (पाखण्डियों) का शिर्क और कुफ्र ; क्योंकि इन लोगों का शिर्क भले ही बड़ा शिर्क है जो धर्म से निष्कासित कर देता है और उस के करने वाले को सदैव नरक का भागी बना देता है, किन्तु यह एक गुप्त और अप्रत्यक्ष शिर्क है, क्योंकि वे लोग इस्लाम का प्रदर्शन (दिखावा) करते हैं और कुफ्र और शिर्क को छिपाते हैं, अत: वे प्रोक्ष में मुशरिक (अनेकेश्वरवादी) हैं न कि प्रत्यक्ष रूप से।

इसी तरह यह शिर्क कभी कभार आस्थाओं (मान्यताओं) में होता है:

जैसे कि यह आस्था (विश्वास) रखना कि अल्लाह के साथ कोई और भी है जो पैदा करता है, या जीवन और मृत्यु देता है (मारता और जिलाता है), या इस ब्रह्मांड में नियंत्रण करता है।

अथवा यह आस्था रखना कि अल्लाह के अलावा कोई और भी है जिस का अल्लाह के साथ सामान्य रूप से आज्ञापालन किया जायेगा, चुनाँचि वे किसी भी चीज़ को हलाल (वैद्ध) ठहराने और किसी भी चीज़ को हराम (अवैध) ठहराने में उस का पालन करते हैं, भले ही वह पैग़ंबरों के धर्म के विपरीत और विरूद्ध हो।

अथवा प्रेम और सम्मान में अल्लाह के साथ शिर्क करना (किसी को साझी ठहराना), इस प्रकार कि आदमी किसी मख्लूक़ से उसी तरह से प्रेम करे जिस तरह कि अल्लाह से प्रेम करता है, तो यह ऐसा शिर्क है जिसे अल्लाह तआला क्षमा नहीं करेगा, यही वह शिर्क है जिस के बारे में अल्लाह तआला का फरमान है : "और कुछ लोग ऐसे भी हैं जो अल्लाह के साझीदार दूसरों को ठहरा कर उन से ऐसा प्रेम रखते हैं जैसा प्रेम अल्लाह से होना चाहिए।" (सूरतुल बक़रा : 165)

या यह आस्था रखना कि अल्लाह के साथ कोई और भी है जो प्रोक्ष का ज्ञान (इल्मे-ग़ैब) रखता है, यह चीज़ कुछ पथभ्रष्ट दलों जैसे कि राफिज़ा, कट्टरपंथी सूफिया और सामान्य रूप से बातिनिय्या के यहाँ बाहुल्यता से पाई जाती है। राफिज़ा (शिया) अपने इमामों के बारे में यह आस्था रखते हैं कि वे प्रोक्ष का ज्ञान रखते हैं, इसी प्रकार बातिनिय्या और सूफिया अपने औलिया (सदाचारियों) के बारे में इसी तरह का आस्था रखते हैं। और जैसे यह आस्था रखना कि कोई ऐसा भी है जो उसी तरह दया करता है जो दया अल्लाह अज़्ज़ा व जल्ल के लिए ही योग्य है, चुनाँचि वह अल्लाह तआला के समान दया करता है और वह इस प्रकार कि वह पापों को क्षमा करता है, अपने भक्तों को माफ कर देता है और बुराईयों को क्षमा कर देता है.

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