Tuesday, 11 February 2020

फिर भी दुनियां का मुस्लिम आतंकवादी क्यूं...?

एस एम फ़रीद भारतीय 

रुआण्डा (Rwanda) मध्य-पूर्व अफ़्रीका में स्थित एक देश है, इसका क्षेत्रफल लगभग २६ हज़ार वर्ग किमी है, जो भारत के केरल राज्य से भी छोटा है, यह अफ़्रीका महाद्वीप की मुख्यभूमि पर स्थित सबसे छोटे देशों में से एक है, रुआण्डा पृथ्वी की भूमध्य रेखा (इक्वेटर) से ज़रा दक्षिण में स्थित है और महान अफ़्रीकी 
झीलों के क्षेत्र का भाग है, इसके पश्चिम में पहाड़ियाँ और पूर्व में घासभूमि है.

रवांडा के सेलिस्टिन की तरह ही हूतू समुदाय से जुड़े तमाम लोगों ने 7 अप्रैल 1994 से लेकर अगले सौ दिनों तक तुत्सी समुदाय से ताल्लुक रखने वाले अपने पड़ोसियों, अपनी पत्नियों और रिश्तेदारों को जान से मारना शुरू कर दिया.

इस तरह इस जनसंहार में लगभग आठ लाख लोगों की मौत हुई, तुत्सी समुदाय की तमाम महिलाओं को सेक्स स्लेव बनाकर रखा गया.

रवांडा के इस  नरसंहार में हूतू जनजाति से जुड़े चरमपंथियों ने अल्पसंख्यक तुत्सी समुदाय के लोगों और अपने राजनीतिक विरोधियों को निशाना बनाया, रवांडा की कुल आबादी में हूतू समुदाय का हिस्सा 85 प्रतिशत है लेकिन लंबे समय से तुत्सी अल्पसंख्यकों का देश पर दबदबा रहा था.

लेकिन साल 1959 में हूतू ने तुत्सी राजतंत्र को उखाड़ फेंका, इसके बाद हज़ारों तुत्सी लोग अपनी जान बचाकर युगांडा समेत दूसरे पड़ोसी मुल्कों में पलायन करने लगे, इसके बाद एक निष्कासित तुत्सी समूह ने अपना विद्रोही संगठन रवांडा पैट्रिएक फ्रंट (आरपीएफ़) बनाया.
ये आरपीएफ़ संगठन 1990 के दशक में फिर रवांडा आया और अपना संघर्ष शुरू किया, इसके बाद ये लड़ाई 1993 में शांति समझौते के साथ ख़त्म हुई थी.

मगर उससे पहले छह अप्रैल 1994 की रात तत्कालीन राष्ट्रपति जुवेनल हाबयारिमाना और बुरुंडी के राष्ट्रपति केपरियल नतारयामिरा को ले जा रहे विमान को किगाली, रवांडा में मार गिराया गया, इस विमान में सवार सभी लोग मारे गए.
लेकिन ये जहाज़ किसने गिराया था, इसका फ़ैसला आज तक नहीं हो पाया, कुछ लोग तो इसके लिए हूतू चरमपंथियों को ज़िम्मेदार मानते हैं जबकि अधिकतर लोग रवांडा पैट्रिएक फ्रंट (आरपीएफ़) को, क्यूंकि ये दोनों नेता हूतू जनजाति से आते थे और इसलिए इनकी हत्या के लिए हूतू चरमपंथियों ने आरपीएफ़ को ज़िम्मेदार ठहराया, इसके तुरंत बाद हत्याओं का दौर शुरू हो गया.

याद रखें इस संघर्ष की नींव खुद नहीं पड़ी थी, बल्कि ये रवांडा की हुतू जाति के प्रभाव वाली सरकार जिसने इस जनसंहार को प्रायोजित किया था, इस सरकार का मकसद विरोधी तुत्सी आबादी का देश से सफाया था, इसमें ना सिर्फ तुत्सी लोगों का कत्ल किया गया, बल्कि तुत्सी समुदाय के लोगों के साथ जरा सी भी सहानुभूति दिखाने वाले लोगों को मौत के घाट उतार दिया गया.

नरसंहार को सफल बनाने वालों में रवांडा सेना के अधिकारी, पुलिस विभाग, सरकार समर्थित लोग, उग्रवादी संगठन और हुतु समुदाय के लोग और कुछ पत्रकार भी शामिल थे, हुतु और तुत्स समुदाय में लंबे समय से चली आ रही आला दर्जे की दुश्मनी भी एक बड़ी वजह थी.

वहीं जुलाई के मध्य में इस संहार पर काबू पाया गया, हालांकि, हत्या और बलात्कार की इन वीभत्स घटनाओं ने अफ्रीका की आबादी के बड़े हिस्से के लोगों को बुरी तरह प्रभावित किया, इस घटना का असर लोगों के दिलो दिमाम पर आज भी बरकरार है.

इस संहार के बाद संयुक्त राष्ट्र संघ और अमेरिका, ब्रिटेन, बेल्जियम समेत तमाम देशों को उनकी निष्क्रियता के लिए आलोचना का सामना करना पड़ा, संयुक्त राष्ट्र यहां शांति स्थापना करने में नाकाम रहा, वहीं, पर्यवेक्षकों ने इस नरसंहार को समर्थन देने वाली फ्रांस सरकार की भी जमकर आलोचना की, मानवाधिकार की पैरोकार अधिकांश पश्चिमी देश इस पूरे मसले को खामोशी से देखते रहे, आधुनिक शोध इस बात पर बल देते हैं सामान्य जातीय तनाव इस नरसंहार की वजह न देकर इसकी वजह युरोपीय उपनिवेशवादी देशों अपने स्वार्थों के लिये हुतू और तुत्सी लोगों को कृत्रिम रूप से विभाजित किया जाना है.

वहीं हूतू चरमपंथियों ने एक रेडियो स्टेशन स्थापित किया, 'आरटीएलएम' और एक अख़बार शुरू किया जिसने नफ़रत का प्रोगैंडा फैलाया, इनमें लोगों से आह्वान किया गया, 'तिलचट्टों को साफ़ करो' मतलब तुत्सी लोग जहां मिलें उनको मारो.

इसके अलावा जिन प्रमुख लोगों को मारा जाना था उनके नाम रेडियो पर भी प्रसारित किए गए, यहां तक कि पादरी और ननों का भी उन लोगों की हत्याओं में नाम आया, जो चर्चों में शरण के लिए गये थे, रवांडा में 100 दिन के इस नरसंहार में करीब 8 लाख तुत्सी और उदारवादी हूतू मारे गए थे.

कहने को रवांडा में संयुक्त राष्ट्र और बेल्जियम की सेनाएं थीं लेकिन उन्हें हत्याएं रोकने की इजाज़त ही नहीं दी गई, सोमालिया में अमरीकी सैनिकों की हत्या के एक साल बाद अमरीका ने तय किया था कि वो अफ़्रीकी विवादों में नहीं पड़ेगा.

एक रिपोर्ट संयुक्त राष्ट्र के एक जांच समूह ने तैयार की है, इस रिपोर्ट में जांचकर्ताओं ने मानवाधिकार हनन के कई मामलों का हवाला दिया है, डेमोक्रेटिक रिपब्लिक ऑफ़ कांगों में हुए इस युद्ध को अक्सर ‘अफ्रीकी विश्व युद्ध’ की संज्ञा दी जाती है, रिपोर्ट में इस तरह की कई सौ घटनाओं का उल्लेख है जिनमें अफ्रीकी सुरक्षाबलों ने शरणार्थियों के साथ आमानवीय बर्ताव किया, जांचकर्ताओं ने इन अपराधों को जनसंहार माना है.

रिपोर्ट कहती है कि बहुत सी जगहों पर पहचान परेड के ज़रिए हूतू मूल के लोगों को भीड़ से अलग कर उनकी हत्या की गई, इनमें बहुत बड़ी संख्या में महिलाएं, बुज़ुर्ग, बीमार और बच्चे भी शामिल थे.


रुआण्डा में तीन मुख्य मानव जातियाँ हैं, त्वा लोग (Twa) जंगलों में बसने वाले पिग्मी हैं, टुटसी (Tutsi) और हूटू (Hutu) दोनों बांटू जातियाँ हैं, ऐतिहासिक रूप से टुटसी अल्पसंख्यक रहे हैं लेकिन उन्होने शासन किया है जबकि हूटू बहुसंख्यक होने के बावजूद टुट्सियों के अधीन रहे हैं.

रुआण्डा में रहने वाले लगभग सभी लोग किन्यारुआण्डा भाषा बोलते हैं जो एक बांटू भाषा परिवार की सदस्य है और जिसे रुआण्डा की एक राजभाषा होने का दर्जा प्राप्त है, इसके अलावा फ़्रान्सीसी भाषा और अंग्रेज़ी को भी राजभाषा होने की मान्यता प्राप्त है.

हज़ारों वर्ष पूव पाषाण युग और लौह युग में रुआण्डा क्षेत्र में शिकारी-फ़रमर लोग बसे और वर्तमान रुआण्डा के त्वा लोग उन्ही के वंशज हैं, बाद में यहाँ बांटू जातियों का विस्तार हुआ, यह किस काल और किन कारणों से टुटसी और हूटू में बंट गई इसे लेकर इतिहासकारों में मतभेद है, मध्य १८वीं शताब्दी में रुआण्डा राजशाही स्थापित हुई जिसमें टुटसियों ने हूटूओं पर राज किया, सन् १८८४ में जर्मनी ने रुआण्डा को अपना उपनिवेश बना लिया लेकिन प्रथम विश्व युद्ध में बेल्जियम ने जर्मनों को यहाँ से खदेड़कर १९१४ में रुआण्डा पर अपना राज कर लिया, बांटो और राज करो की विचारधारा के अंतरगत उन्होने हूटू और टुटसिओं में आपसी नफ़रत बढ़ाने के लिये काम किया और टुटसी राजाओं को अपना मित्र बनाकर शासन किया, १९५९ में हूटू जनसमुदाय ने विद्रोह कर दिया और १९६२ में स्वतंत्रता प्राप्त करने में सफल हो गये.

 टुटसी इस हूटू-केन्द्रित राज्य से असंतुष्ट हुए और उन्होने आर-पी-एफ़ (RPF, Rwandan Patriotic Front, रुआण्डाई देशभक्त मोर्चा) नामक सेना में संगठित होकर १९९० में सरकार के विरुद्ध गृह युद्ध आरम्भ किया, यह तनाव विस्फोटक रूप से १९९४ के रवांडा जनसंहार का कारण बना जिसमें हूटूओं ने ५ से १० लाख के बीच टुटसी और निरपेक्ष हूटू मारे, यह नरसंहार तब समाप्त हुआ जब आर-पी-एफ़ सेना ने विजय प्राप्त कर ली.

अब कहना ये है कि इस नरसंहार से मिला क्या, हज़ारों लोग जिन्होंने इस नरसंहार में हिस्सा लिया वो जेलों में ही मारे गये, हज़ारों ऐसे हैं जिनपर आज भी मुकदमा चल रहा है लेकिन खाने को नहीं है, हज़ारों नरसंहार करने वाले ख़ुद अपाहिज हो चुके हैं, यहां इंसानों को इतनी बेदर्दी से काटा गया कि कोई इंसान जानवरों को भी इतनी बेदर्दी से नहीं काटता होगा, मगर रवांडा में ये सब हुआ, फ़्रांस की भूमिका को भी मत भूलिये.

रवांडा की इस घटना में सबसे दुखद पहलू है रेडियो रवांडा जिसने इस नरसंहार के लिए लोगों को उकसाया ही नहीं बल्कि किसको मारना है उनकी पहचान भी रेडियो से बताई गई जो मीडिया जगत में सबसे शर्मनाक घटना है जो हमेशा के लिए काला अध्याय बन चुका है.

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