Saturday, 31 July 2021

भारत के मंदिरों के असल लुटेरे कौन थे राजा या बादशाह...?

एस एम फ़रीद भारतीय 
इस देश पर आक्रमण करके मंदिरों को तोड़ने या लूटने का आरोप सबसे अधिक महमूद गजनबी और औरंगज़ेब पर लगता है।

उस दौर में हर हिन्दू राजा दूसरे राज्य पर आक्रमण करके मंदिरों को लूटता था क्युँकि मंदिरों में सोने चाँदी के आभूषण रहा करते थे।

मंदिरों को लूटने में सबसे आगे "मराठा" थे , मगर शुरुआत करते हैं , "महमूद गजनबी" से ही।

महमूद गजनबी ने सोमनाथ मंदिर पर जब आक्रमण किया तो उसे मदद के लिए बुलाया किसने था ? नागेश्वर (अब सोमनाथ) के राजा "आनंद पाल" ने , महमूद गजनबी के आगमन पर आनंदपाल की सेना ने उसका स्वागत किया।

उस समयकाल की इतिहास की सबसे प्रतिष्ठित किताब "तारीखी बयान" के अनुसार महमूद गजनबी के पाँच सेनापति हिन्दू थे , जिनके नाम थे तिलक , सोंधी , हरजन और राय हिंद।

उस समय नागेश्वर ज्योतिर्लिंग मंदिर में करीब 20 हज़ार सोने की दिनार के बराबर संपत्ती थी , "तारीखी बयान" के अनुसार जब महमूद गजनबी मंदिर में गया तो वहाँ शिवलिंग को हवा में लटकता देख कर हैरान रह गया।

लोग इसे शिवलिंग का चमत्कार मानकर भक्ति में विभोर हो रहे थे , धन और सोना फेंक रहे थे।

गजनबी ने अपने हिन्दू सेनापतियों को जाँच का आदेश दिया , तिलक , सोंधी , हरजन और राय हिंद ने पाया कि मंदिर के ऊपर बड़ा सा शक्तिशाली चुंबक लगाया गया था और शिवलिंग को हवा में लटका कर लोगों को बेवकूफ बनाया जा रहा था , श्रृद्धा के नाम पर झूठ दिखाया जा रहा था , इस झूठ और पाखंड से क्रोधित होकर उसने मंदिर तोड़ने का आदेश दे दिया।

फिर उसके बाद वहाँ के धन को जैसे सारे राजा लूटते थे महमूद गजनबी ने भी लूटा , 20 हज़ार सोने की दिनारें किसी भी राजा को लूटने के लिए आकर्षित करतीं।

यह शुद्ध रूप से साम्राज्यवाद की वैसी ही लूट थी जैसी अमेरिका ने इराक में लूटा , और अंग्रेजों ने भारत को लूटा।

मगर इसे सांप्रदायिक बनाया "कन्हैय्या लाल माणिक लाल मुंशी" ने। 

कन्हैय्या लाल माणिक लाल मुंशी , स्वतंत्रता सेनानी, राजनेता, वकील, लेखक थे और काँग्रेस की हिन्दुत्ववादी लाबी में से एक थे , जिनमें पंडित महामना मदन मोहन मालवीय , बाल गंगाधर तिलक और पंत इत्यादि शामिल थे।

यह लोग तब काँग्रेस में "संघ" के शुक्राणु की तरह कार्यरत थे। इन लोगों ने ही बाद में "हिन्दू महासभा" की स्थापना की जो बाद में "राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ" कहलाई।

मुंशी , बॉम्बे स्टेट के गृहमंत्री (1937–40) रहे , फिर हैदराबाद राज्य के एजेन्ट-जनरल (1948) और भारतीय संविधान सभा के सदस्य , संसद सदस्य और नेहरू मंत्रीमंडल में कृषि एवं खाद्य मंत्री (1952–53) थे।

मंत्री पद पर रहते हुए पहले सरदार पटेल ने सोमनाथ मंदिर को सरकारी धन से जिर्णोद्धार कराने का प्रयास किया मगर नेहरू ने ऐसा करने नहीं दिया। एक ट्रस्ट बनाकर मंदिर का जिर्णोद्धार कराया गया , जिसके उद्घाटन में प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू के रोकने के बावजूद पद पर रहते हुए पहले राष्ट्रपति डाक्टर राजेन्द्र प्रसाद सोमनाथ गये।

घोर संघी मानसिकता के मुंशी ने सैकड़ों किताबें लिखीं , जिनमें एक थी "जय सोमनाथ" , इसके बाद "सोमनाथ मंदिर" सांप्रदायिक कारण से लूटे गये मंदिरों का प्रतीक बन गया।

अपना काम करके , मुंशी , काँग्रेस से स्वतंत्र पार्टी में होते हुए "जनसंघ" अर्थात आज की भाजपा में समाहित हो गये।

एक मंदिर जो हिन्दू राजा के आमंत्रण पर अफगानिस्तान से आए महमूद गजनबी ने लूटा उसे मुंशी जैसे काँग्रेसियों ने सांप्रदायिक रंग दे दिया जबकि उसी महमूद गजनबी के अफगानिस्तान के बामियान में बुद्ध की प्रतिमा कल तक खड़ी रही।

कश्मीर के उत्पाल वंश के राजा हर्षदेव ने 1089 से 1111 तक कश्मीर पर शासन किया। वह कश्मीर में मौजूद मूर्तियों, हिंदू मंदिरों और बौद्ध मंदिरों को भी ध्वस्त करने लगा , उसमें मौजूद धन और आभूषण को लूट कर सोने का सिक्का बनाकर जमा करने लगा।

इस काम के लिए उसने 'देवोत्पतन नायक' नाम से एक विशेष पद का प्रावधान तक किया था। अर्थात एक ऐसा विभाग जो मंदिरों को लूट कर , सोने चाँदी के देवी देवताओं को गलाकर सरकारी संपत्ती में जमा करता।

तब की इतिहास की सबसे सम्मानजनक किताब 'राजतरंगिणी' के लेखक "कल्हण" राजा हर्ष के समकालीन थे। कल्हण के पिता चंपक को राजा हर्ष का महामंत्री भी बताया जाता है। 

कल्हण ने "मूर्तिभंजक हर्ष" को अपमानजनक अंदाज में 'तुरुष्क' यानी 'तुर्क' की निंदात्मक उपाधि दी।

इतिहासकार ए0 एल0 बाशम अपनी पुस्तक "Harsha of Kashmir and Iconoclast Ascetics" में लिखते हैं कि "जब भ्रष्ट राजा (हर्ष या हर्षदेव) (1089-1101 ई), आर्थिक तंगी में होता था , उसका दुष्ट परामर्शदाता "लोट्सधारा" उन्हें मंदिरों को लूटने और देवताओं की स्वर्ण मूर्तियों को पिघलाने की सलाह देता था"।

इस राजा को कलांतर में इतिहासकारों ने इस्लाम से प्रभावित बताकर उसके हिन्दू होकर मंदिर तोड़ने का बचाव किया। यह होती है दोगलई।

इस प्रकार इस हिन्दू राजा ने अपने स्वार्थ और अय्याशी के लिए हिन्दू मन्दिरों को तोड़ा। इस कार्य में इसके कुछ दुष्ट और स्वार्थी साथियों ने भी साथ दिया मगर बदनाम केवल मुस्लिम शासक हुए , हिन्दूकुश कहलाए।

मगर सबसे अधिक मंदिरों को तोड़ा मराठों ने।

भारतीय उपमहाद्वीप 1700 की शताब्दी के आखिरी सालों में मंझदार में फंसा दिख रहा था। क्युँकि तब तक मुगल सिर्फ नाममात्र के शासक रह गए थे। देश के अधिकांश हिस्सों में सत्ता का असल नियंत्रण उनके हाथ से निकल चुका था।

पानीपत की तीसरी लड़ाई के बाद यह उम्मीद भी खत्म होती दिख रही थी कि मराठे उनकी जगह ले लेंगे। इस लड़ाई में अफगानों ने मराठों को बुरी तरह हराया था। 

यानी उपमहाद्वीप के शासकों की सत्ता एक तरफ कमजोर हो रही थी तो दूसरी तरफ अंग्रेजों के सितारे बुलंद हो रहे थे।
 
इस दौर में 1789 में अंग्रेजों ने मराठों और हैदराबाद के निजाम को अपनी तरफ मिला लिया ताकि अपनी राह के आखिरी कांटे को भी हटाया जा सके।

यह कांटा था, मैसूर के शासक "टीपू सुल्तान", जिन्होंने दूसरे कई शासकों की तुलना में काफी पहले ही ईस्ट इंडिया कंपनी से पैदा होने वाले खतरे और उससे मिलने वाली चुनौती को भांप लिया था।

उस वक्त मराठे और टीपू सुल्तान एक-दूसरे को पसंद नहीं करते थे। यहां तक कि इस आपसी बैर की वजह से दोनों पक्षों के बीच लड़ाई वक्त से पहले ही शुरू हो गई थी।

दरअसल, सबसे पहले टीपू के पिता हैदर अली ने भयंकर संघर्ष के बाद मराठाओं को पराजित करके उनसे देवनहल्ली (बेंगलुरू के पास) का किला छीन लिया था। 

जवाब में 1791 में रघुनाथ राव पटवर्धन के नेतृत्व में मराठों ने मैसूर जिले के बेदनूर पर जवाबी हमला किया और इसी हमले के दौरान उन्होंने "श्रृंगेरी मठ" को तोड़ दिया।

वैसे, साम्राज्य की लड़ाइयों के दौरान मठ-मंदिरों पर हमले करना मराठों के लिए सामान्य बात थी। मराठों ने 1759 में "तिरुपति मंदिर" पर भी हमला किया था और उसे काफी नुकसान पहुंचाया था। इसके अतिरिक्त भी मराठों द्वारा सैकड़ों मंदिरों को लूटने का उदाहरण मौजूद है।

हालांकि श्रृंगेरी का मंदिर और मठ कोई साधारण नहीं था , इसकी महत्ता इससे समझिए कि इसे हजारों साल पहले हिन्दुओं के प्रमुख शंकराचार्य "आदि शंकराचार्य" ने स्थापित किया था। उन्होंने देश के हर कोने पर इस तरह के मठ-मंदिर स्थापित किए थे। 

दक्षिण में श्रृंगेरी था तो उत्तर में जोशीमठ, पश्चिम में द्वारका और पूर्व में पुरी की स्थापना उन्होंने ही की थी।

अपनी इसी अहमियत की वजह से "श्रृंगेरी के मठ" की प्रतिष्ठा काफी अधिक थी। इसकी स्थापना के बाद से ही हिन्दू और मुस्लिम दोनों शासकों ने इसकी प्रतिष्ठा और गरिमा को अब तक कायम रखा हुआ था।

टीपू सुल्तान ने इस परंपरा को जारी रखा ।

मठ की इस प्रतिष्ठा का अर्थ यह भी था कि उसके पास काफी धन-दौलत थी। संभवत: इसी वजह से मराठों ने उसे निशाना भी बनाया और मठ को अपनी स्थापना के करीब 1000 साल के इतिहास के दौरान पहली बार इस तरह की लूट का सामना करना पड़ा था। 

मराठों ने मठ की पूरी संपत्ति लूट ली थी। वहां रह रहे कई ब्राह्मणों को मार दिया। यहां तक कि वहां स्थापित देवी शारदा की प्रतिमा को भी खंडित कर दिया।

इस हमले के वक्त मठ के स्वामी किसी तरह जान बचाकर भाग निकले और बाद में उन्होंने टीपू सुल्तान को पत्र लिखकर उनसे मदद मांगी ताकि मठ और वहां के मंदिर में देवी की प्रतिमा को फिर स्थापित किया जा सके। 

इस पर टीपू ने बेहद नाराजगी के साथ संस्कृत में जवाबी पत्र भेजा. इसमें उन्होंने लिखा, 

"लोग गलत काम करके भी मुस्कुरा रहे हैं. लेकिन उनकी इस गुस्ताखी ने हमें जो पीड़ा पहुंचाई है, उन्हें इसकी सजा भुगतनी होगी"

इसके साथ ही टीपू ने मठ के लिए माली मदद भी भेजी ताकि देवी की प्रतिमा वहां फिर स्थापित की जा सके. नई प्रतिमा के लिए उन्होंने अपनी तरफ से अलग से चढ़ावा भी भेजा।

कहने का अर्थ यह है कि मराठों ने साम्राज्यवाद के युद्ध में लूट के लिए आदि शंकराचार्य द्वारा स्थापित "श्रृंगेरी के मठ" को भी नहीं बख्शा। मंदिरों को लूटना उनके धन इकट्ठा करने का प्रमुख अस्त्र था।

यदि यही कार्य कोई मुसलमान शासक करता तो वह आज देश का सबसे बड़ा लुटेरा , आक्रमणकारी और हिन्दूकुश बादशाह होता , औरंगज़ेब की तरह।

औरंगज़ेब पर एक मात्र इल्ज़ाम बनारस में मंदिर तोड़ने का है। मगर कम लोग जानते हैं कि इसका कारण धार्मिक या सांप्रदायिक नहीं बल्कि आपराधिक था।

उस मंदिर के तहखाने में काशी दर्शन करने आई एक राज्य की रानी का बलात्कार हुआ था , मंदिर अपवित्र हुआ और राजा ने औरंगजेब के आदेश से मंदिर गिराने का काम शुरू किया जिसे बाद में बनारस के पंडों के विरोध पर औरंगजेब के आदेश से ही रोक दिया गया।

औरंगजेब के जीवन का अधिकांश समय दक्षिण राज्यों में बीता , शाहजहाँ ने उनको दक्षिण के राज्यों का प्रभार दिया था मगर आजतक दक्षिण में एक भी मंदिर गिराने का कोई उदाहरण नहीं , हजारों साल के मंदिर आज भी अपने स्थान पर हैं।

जबकि गोलकुंडा स्थित एक मस्जिद अवश्य औरंगजेब के आदेश से गिराई गयी , जब यह सिद्ध हो गया था कि राजकोष को चुराकर मस्जिद के नीचे गाड़ दिया गया है।

कहने का अर्थ बस इतना है कि बादशाह या राजा अपने साम्राज्य को सुरक्षित और मजबूत रखने के लिए जो भी करते रहें हैं उनका आधार सांप्रदायिक नहीं था।

सांप्रदायिक होता तो औरंगजेब की दो बहुएँ राजपूत ना होतीं। 

5 जुलाई 1678, औरंगजेब के पुत्र मोहम्मद आजाम का विवाह कीरत सिंह की बेटी से हुआ। कीरत सिंह मशहूर राजा जय सिंह के पुत्र थे। (कछवाहा-आंबेर)

30 जुलाई 1681, औरंगजेब के पुत्र काम बख्श की शादी अमरचंद की बेटी से हुई (शेखावत-मनोहरपुर)।

नोट :- काँग्रेस के पंडित महामना मदन मोहन मालवीय , बाल गंगाधर तिलक ,  कन्हैय्या लाला माणिक लाल मुंशी और गोविंद वल्लभ पंत इत्यादि को देखकर मान लीजिए कि "काँग्रेस ही संघ की अम्मा है"
आज के समय की सारी खुराफात की जड़ यही शुक्राणु हैं।

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