अलाउद्दीन ख़िलजी जब नाम आता है तब उनको क्रूर शासकों मैं गिना जाता है, आज नफ़रत की राजनीति करने वाले उनको विलेन के रूप मैं दिखाते हुए ख़ुद ये भूल जाते हैं कि हम क्या कर रहे हैं, ख़िलजी का दौर बादशाही हुकूमत का दौर था और आज प्रजातंत्र का दौर है, लेकिन आज मानवाधिकारों को जिस तरहां कुचला जा रहा है, उसके सामने ख़िलजी का दौर कुछ भी नहीं, और ख़िलजी किनके लिए क्रूर हुआ करते थे ये इतिहासकार ही बता सकते हैं और समझ वही सकता है जो मानवता को समझता हो, चलिए बताते हैं ख़िलजी हुकूमत के कुछ कड़वे सच...?
भारत मैं अलाउद्दीन ख़िलजी की हुकूमत ऐसी थी एक बार मंगोल सरदार ओलजेतू खान ने अलाउद्दीन ख़िलजी के दरबार में एक मंगोलो लड़ाकाओं का समूह भेजा उनकी मांग थी कि अलाउद्दीन ख़िलजी अपनी शहज़ादी को उनके साथ उनके हवाले कर दें, क्यूंकि मंगोल सरदार उनकी शहज़ादी को अपनी बीवी बनाना चाहता है तब अलाउद्दीन खिलजी ने जवाब कुछ इस तरहां से दिया कि उसके दरबार में आए सभी उन 18 मंगोल लड़ाकों के सर हाथियों के पांवो से कुचलवा दिये और ये पैग़ाम मंगोलो के सरदार तक पहुंचा दिया गया कि यह अलाउद्दीन खिलजी का जवाब है समझ लो तुम किससे बात कर रहे हो.
इस घटना के बाद कभी मंगोलो ने भारत की तरफ़ पलटने की
हिम्मत नहीं की, खिलजी के दौर में मंगोलो से ज़्यादा बर्बर कोई नहीं था, उन्होने संपूर्ण एशिया को रौंद दिया था, लेकिन हिंदोस्तान आने पर उनका मुक़ाबला अलाउद्दीन ख़िलजी और उनके बहादुर सिपहसालार ज़फर से हुआ और यही वो सिपहसालार जो अपनी तमाम ज़िंदगी मंगोलो से लड़ते रहे, अगर इन्होंने मंगोलो को ना खदेड़ा होता तो आज यहां का इतिहास और भूगोल कुछ और ही होता, ना मुस्लमान मुसलमान होता और ना ही हिंदू हिंदू होता, यहां सबकुछ जल्लादों के हाथ होता, कभी मंगोलों पर बनी फ़िल्मे देखना जो इतिहास की सच्चाई को लेकर बनी हैं, बनाने वाले भी मुसलमान नहीं हैं, यहूदी और ईसाई हैं, जो ख़ुद मंगोलों के ज़ुल्म के शिकार हुआ करते थे, तब उनको भी मंगोलों से बचाने वाले मुसलमान सरदार ही का नाम सामने आयेगा, सबसे ज़्यादा कुर्बानी मंगोलों से लड़ते हुए मुसलमानों ने दीं हैं, लेकिन नतीजा ये रहा कि मंगोलों के ज़ुल्म का ही नहीं बल्कि मंगोलों का भी सफ़ाया हो गया.
अलाउद्दीन खिलजी की पूरी प्रशासनिक व्यवस्था की विस्तृत जानकारी बरनी के विवरण से मालूम होती है, अलाउद्दीन ने एक विशाल साम्राज्य स्थापित करने के बाद उसे प्रशासनिक रूप से सुदृढ़ किया, अपने पूर्वकालीन सुल्तानों की तरह अलाउद्दीन के पास भी कार्यपालिका, व्यवस्थापिका एवं न्यायपालिका की सर्वोच्च शक्तियां विद्यमान थीं, वह प्रशासन के केन्द्रीकरण में विश्वास रखते थे, उन्होंने प्रान्तों के सूबेदार तथा अन्य अधिकारियों को अपने पूर्ण नियंत्रण में रखा.
●अलाउद्दीन ने विशाल साम्राज्य स्थापित करने के बाद प्रशासनिक व्यवस्था को सुदृढ़ किया.
●इसके लिए जिन प्रान्तों की सरकारें दुर्बल थीं, उन्हें दक्ष राज्यपालों के नियंत्रण में लाया गया.
●अलाउद्दीन खिलजी अपने प्रशासनिक कार्यों का संचालन--दीवान-ए-विजारत, दीवान-ए-आरिज, दीवान-ए-इंशा व दीवान-ए-रसातल के सहयोग से करता था.
●दीवान-ए-विजारत--यह वित्त विभाग होता था। जो वजीर के अधीन होता था.
●दीवान-ए-आरिज--यह सैन्य विभाग था। इसका सर्वोच्च अधिकारी आरिज-ए-मुमालिक कहलाता था
●दीवान-ए-इंशा--यह शाही सचिवालय होता था, इसका प्रमुख दबीर-ए-मुमालिक कहलाता था.
●दीवान-ए-रसातल--यह विदेश विभाग होता था.
●दीवान-ए-रियासत--इस विभाग की स्थापना अलाउद्दीन खिलजी ने की थी। यह विभाग बाजार व्यापारियों पर नियंत्रण रखता था.
●दिल्ली के सुल्तानों में अलाउद्दीन प्रथम सुल्तान था जिसने एक स्थायी केन्द्रीय सेना गठित की.
अलाउद्दीन खिलजी के प्रशासनिक मंत्रीगण का ब्यौरा कुछ इस प्रकार है...?
मंत्रीगण सिर्फ अलाउद्दीन को सलाह देने और राज्य के दैनिक कार्यों को संभालने का कार्य करते थे, उसके समय में चार महत्वपूर्ण मंत्री थे, जिन्हें शासन का आधार स्तम्भ कहा जाता था, पहला मंत्री वजीर कहलाता था, यह दीवान ए विजारत विभाग का प्रमुख होता था तथा सुल्तान के बाद शासन का सर्वोच्च अधिकारी होता था, राजस्व वसूली की जिम्मेदारी उसी की होती थी, इसके अतिरिक्त वह अन्य मंत्रियों के विभागों की भी देखभाल करता था तथा शाही सेना का नेतृत्व करता था, अलाउद्दीन खिलजी के शासनकाल में ख्वाजा खातिर, नुसरत खां एवं मलिक काफूर वजीर के पद पर कार्य किये थे, दूसरा मंत्री आरिज ए मुमालिक कहलाता था यह सैन्य विभाग का प्रमुख होता था, वजीर के बाद यह दूसरा महत्वपूर्ण मंत्री पद था, इसके मुख्य कार्य सैनिकों की भर्ती करना, उन्हें वेतन बांटना, सेना की दक्षता एवं साज सज्जा की देखभाल करना, युद्ध क्षेत्र में सेनापति के साथ जाना आदि थे, अलाउद्दीन खिलजी के शासनकाल में मलिक नसीरुद्दीन मुल्क सिराजुद्दीन आरिज ए मुमालिक के पद पर तैनात थे.
तीसरा महत्वपूर्ण मंत्री दबीर ए मुमालिक था, यह दीवान ए इंशा विभाग का प्रमुख होता था, इसका कार्य शाही आदेशों एवं पत्रों का प्रारूप तैयार करना था, चौथा प्रमुख मंत्री विदेश मंत्री होता था, यह दीवान ए रसातल विभाग का प्रमुख होता था, इसका कार्य विदेशों में भेजे जाने वाले पत्रों का प्रारूप तैयार करना तथा विभिन्न देशों के राजदूतों से सम्पर्क बनाये रखना था, अलाउद्दीन खिलजी ने बाजार व्यवस्था पर नियंत्रण स्थापित करने के लिए एक नए विभाग दीवान ए रियासत की स्थापना की थी.
सैन्य प्रशासन अलाउद्दीन खिलजी ने आन्तरिक विद्रोहों को दबाने, बाह्म आक्रमण का सफलता पूर्वक सामना करने एवं साम्राज्य विस्तार हेतु एक सुदृढ़ एवं स्थायी सेना का गठन किया था, उसने घोड़ों को दागने एवं सैनिकों का हुलिया लिखने की प्रथा शुरू की, अलाउद्दीन खिलजी दिल्ली का प्रथम सुल्तान था जिसने स्थायी सेना का गठन किया था, उसने सेना का केन्द्रीकरण किया तथा सैनिकों की सीधी भर्ती एवं नकद वेतन देने की प्रथा प्रारम्भ की, अलाउद्दीन की सेना में घुड़सवार, पैदल सैनिक एवं हाथी सैनिक थे, इनमें घुड़सवार सबसे अधिक महत्वपूर्ण थे, तुमन दस हजार सैनिकों की एक टुकड़ी को कहा जाता था, तब सैनिकों को 19.5 टका से लेकर 234 टका तक वार्षिक वेतन मिलता था.
●उसने घोड़ों को दागने और सैनिकों का हुलिया लिखने की प्रथा आरम्भ की.
●सैनिकों को नकद वेतन देने की प्रथा की शुरुआत करने वाला प्रथम सुल्तान अलाउद्दीन खिलजी था.
●दीवान-ए-आरिज--प्रत्येक सैनिक की नामावली एवं हुलिया रखता था.
●भली-भांति जांच परख कर भर्ती किये गये सैनिक को मुर्रत्तब कहा जाता था.
अलाउद्दीन खिलजी ने पुलिस व गुप्तचर विभाग को कुशल व प्रभावशाली बनाया. गर्वनर, मुस्लिम सरदार, बड़े-बड़े अधिकारियों और साधारण जनता के कार्यों और षड़यन्त्रों आदि की पूर्ण जानकारी रखने हेतु गुप्तचर व्यवस्था को बहुत महत्व दिया. कोतवाल शांति व कानून का रक्षक था तथा वह ही मुख्य पुलिस अधिकारी था. पुलिस व्यवस्था को सुधारने के लिए कई पदों का सृजन किया गया और उन पर योग्य व्यक्तियों की नियुक्ति की गई. गुप्तचर विभाग का प्रमुख अधिकारी ‘बरीद-ए-मुमालिक’ होता था. उसके नियन्त्रण में अनेक बरीद (संदेश वाहक) कार्य करते थे. बरीद के अतिरिक्त अन्य सूचना दाता को ‘मुनहियन’ तथा ‘मुन्ही’ कहा जाता था.
अलाउद्दीन खिलजी ने साम्राज्य के विभिन्न भागों से सम्पर्क बनाए रखने के लिए उचित डाक-व्यवस्था का प्रबन्ध किया, उसने अनेक घुड़सवारों और क्लर्को को डाक चौकियों में नियुक्त किया, कुशल डाक-व्यवस्था के कारण ही सुल्तान को साम्राज्य के विभिन्न क्षेत्रों में हुए विद्रोहों की सूचना तुरन्त मिल जाती थी और सुल्तान तुरन्त आवश्यक कार्यवाही करता था, इस प्रकार कुशल डाक-व्यवस्था उसके साम्राज्य की एकता हेतु सहायक सिद्ध हुई.
सुल्तान अलाउद्दीन खिलजी ने साम्राज्य विस्तार, आन्तरिक विद्रोहों को कुचलने तथा बाह्य आक्रमणों का सामना करने हेतु व एक विशाल, सुदृढ़ तथा स्थाई साम्राज्य स्थापित करने के लिए सैनिक व्यवस्था की ओर पर्याप्त ध्यान दिया. उसने बलबन की तरह प्राचीन किलों की मरम्मत करवाई और कई नए दुर्ग बनवाए.
तथा घोड़ों को दागने तथा सैनिकों का हुलिया दर्ज करवाने के नियम बनाए, वह पहला सुल्तान था जिसने एक विशाल स्थाई सेना रखी, फरिश्ता के अनुसार “उसकी सेना में 4,75,000 सुसज्जित व वर्दीधारी घुड़सवार थे.” उसने सैनिकों को नकद वेतन देने की प्रथा चलाई तथा वृद्ध सैनिकों को सेवा-निवृत करके उन्हें पेंशन दी.
‘दीवान-ए-आरिज’ प्रत्येक सैनिक का हुलिया रखता था. अमीर खुसरो के अनुसार ‘दस हजार सैनिकों की टुकड़ी को ‘तुमन’ कहा जाता था. भलीभांति जाँच-परख कर भर्ती किए गए सैनिक को ‘मुरत्तब’ कहा जाता था. एक साधारण अश्वारोही मुरत्त को 234 टंके प्रतिवर्ष वेतन दिया जाता था. सवार का वेतन 156 टंके था. सेना की प्रत्येक इकाई में जासूस रहते थे जो सैनिक अधिकारियों के व्यवहार के विषय में सुल्तान को बराबर सूचित करते रहते थे.
अलाउद्दीन खिलजी पहला सुल्तान था जिसने वित्तीय और राजस्व व्यवस्था को सुधारने में गहरी रुचि ली. भूमिकर के सम्बन्ध में ‘मुस्तखराज’ नामक एक नए अधिकारी की नियुक्ति की गई. उसका कार्य किसानों से न दिए गए करों को वसूल करना था.
सुल्तान ने भूमिकर की दर 25% तथा 30% से बढ़ा कर 50% कर दी. यह वृद्धि सम्भवतः उसने अपनी विशाल सेना का खर्च चलाने के लिए की थी. लेकिन जहाँ उसने कर की दर में वृद्धि की वहीं किसानों को भूमिकर अधिकारियों के भ्रष्टाचार से बचाने के उपाय भी किए.
उसने दोषी पाए गए अधिकारियों व कर्मचारियों हेतु कठोर दण्ड की व्यवस्था की. ज़ियाउद्दीन बरनी के अनुसार ‘बिस्वा’ के आधार पर राजस्व एकत्र किया जाता था.
‘जजिया‘ भी लिया जाता था. सम्भवतः ब्राह्मणों, स्त्रियों, बच्चों, पागलों और निर्बलों से जजिया नहीं लिया जाता था. मुसलमानों से ‘जकात’ (धार्मिक कर) के रूप में सम्पत्ति का 1/40वां भाग लिया जाता था.
खम्स (युद्ध कमें लूट के माल का भाग) राज्य की आय का महत्वपूर्ण साधन बन गया था क्योंकि इसमें राज्य का भाग 1/5 से बढ़ा कर 4/5 कर दिया गया था. आवास तथा चराई कर भी लिए जाते थे.
सुल्तान अलाउद्दीन खिलजी को आर्थिक क्षेत्र में सुधार हेतु ध्यान देने की आवश्यकता इसलिए पड़ी थी कि वह अपने विशाल साम्राज्य पर नियन्त्रण रखने व इसकी रक्षा हेतु एक विशाल सेना का खर्च चलाना चाहता था. उसके आर्थिक सुधारों के सम्बन्ध में हमें तत्कालीन जानकारी जियाउद्दीन बरनी के पुस्तक ‘तारीखे-फिरोजशाही‘, अमीर खुसरो की पुस्तक ‘खजाइनुल-फूतूह‘, इब्नबतूता की पुस्तक ‘रेहला‘ तथा इसामी की पुस्तक ‘फतूहस्सलातीन‘ से प्राप्त होती है.
डा. के.एच. लाल, मोरलैण्ड तथा डा. आशीर्वादी लाल श्रीवास्तव आदि विद्वानों के अनुसार अलाउद्दीन खिलजी के मूल्य नियन्त्रण के नियम केवल दिल्ली में ही लागू किए गए थे. प्रो. बनारसी दास सक्सेना ने इस मत का खण्डन किया है.
अलाउद्दीन खिलजी के आर्थिक सुधारों में मूल्य अथवा बाजार-नियन्त्रण के नियम प्रमुख हैं. जियाउद्दीन बरनी ने खाद्यान्नों को सस्ता करने के निम्नलिखित सात नियमों का उल्लेख किया है- (1) खाद्यानों की दरें अत्यन्त कम करके इस प्रकार निश्चित की गई-
गेहूं प्रति मन 7 .5 जीतल, जौ प्रति मन 4 जीतल, धान प्रति मन 5 जीतल, उड़द प्रति मन 5 जीतल, चना प्रति मन 5 जीतल, मोठ प्रति मन 5 जीतल, शक्कर प्रति सेर 7.5 जीतल, गुड़ प्रति सेर 1.5 जीतल, मक्खन प्रति तीन सेर 1 जीतल, सरसों का तेल प्रति ढाई सेर 1 जीतल, नमक प्रति ढाई सेर 5 जीतल...
उल्लेखनीय है कि आजकल के हिसाब से एक मन 12 सेर और 14 सेर के बीच होता था तथा चाँदी का एक ‘टका’ 46 से 48 जीतल के बराबर होता था.
(2) अनाज को स्थाई रूप से सस्ता रखने के लिए उलूग खाँ के विश्वसनीय सेवक मलिक कुबूल को मण्डी का शहना (अध्यक्ष) नियुक्त किया गया. मण्डी में प्रतिष्ठित राज्यभक्त बरीद (गुप्तचर) नियुक्त किए गए.
(3) दोआब तथा अन्य क्षेत्रों से भूमिकर अनाज के रूप में एकत्रित किया गया. इस व्यवस्था से दिल्ली में इतना अनाज पहुंच गया कि अकाल और सूखा पड़ने आदि की अवस्था का दिल्ली के निवासियों को पता भी नहीं चलता था.
(4) व्यापारियों को ‘मण्डी-ए-शहना’ मलिक कुबूल के सुपुर्द कर दिया गया. सुल्तान ने आदेश दिया कि राज्य के समस्त प्रदेशों के व्यापारी शहना की प्रजा समझे जाएंगे.
(5) एहतिकार (चोर-बाजारी) का सख्ती से निषेध कर दिया गया.
(6) मुतसरिफों तथा शहनों को सख्त आदेश थे कि प्रजा से इस कठोरता से खराज वसूल करें कि वह अनाज खलिहान से अपने घरों में लाकर एहतिकार न कर सकें.
(7) मण्डी के समाचार सुल्तान को हला-ए-मण्डी, बरीद तथा मुनहियान (गुप्तचर) द्वारा समय-समय पर प्राप्त होते रहते थे. अतः मण्डी के कर्मचारी तथा अधिकारी मण्डी के नियमों का जरा भी उल्लंघन नहीं कर सकते थे.
अकाल आदि का सामना करने के लिए राजकीय अन्नागार (State food) स्थापित किए गए. राशनिंग की व्यवस्था (Rationing system) अलाउद्दीन खिलजी की नई सोच थी.
अकाल के समय प्रत्येक परिवार को आधा मन अनाज प्रतिदिन दिया जाता था. राशन-कार्ड व्यवस्था लागू नहीं थी. सम्भवतः राशन वितरण के समय परिवार को कुल सदस्य संख्या पर ध्यान नहीं दिया जाता था.
अनाज के अतिरिक्त अन्य सामग्री अर्थात् कपड़ा, शक्कर, मिश्री, मेवा, |घी, चौपाए जानवरों, जलाए जाने वाले तेल तथा अन्य निर्मित वस्तुओं को स्थाई रूप से सस्ता रखने के लिए पाँच नियम बनाए गये. ये नियम थे-
‘सराए-अदल’ (बदायूँ-द्वार के समीप एक बड़े मैदान में निर्मित बाजार) का निर्माण,
राज्य के प्रदेशों के व्यापारियों का रजिस्टर रखना,
खजाने से प्रतिष्ठित और मालदार मुल्तानियों को माल दिया जाना और सराए-अदल का उनके सुपुर्द होना,
प्रतिष्ठित और बड़े-बड़े आदमियों के काम में आने वाली बहुमूल्य वस्तुओं के लिए रईस (हाकिम) के परवान (परमिट) की आवश्यकता आदि.
घोड़ों, दासों, एवं मवेशियों के भावों को सस्ता करने हेतु निम्न चार नियम बनाए गए-
उनका वर्गीकरण तथा मूल्य निश्चित होना,
कीसादार (धनी) तथा व्यापारियों पर उन्हें खरीदने हेतु प्रतिबन्ध,
दलालों पर अंकुश तथा
प्रत्येक बाजारी क्रय-विक्रय के बारे में पूछताछ.
अलाउद्दीन खिलजी के बाजार नियन्त्रण की पूरी व्यवस्था का संचालन ‘दीवान-ए-रियासत’ नामक अधिकारी करता था. ‘मुहतसिब’ (सेंसर) तथा ‘नाजिर’ (नाप-तौल अधिकारी) की भी मूल्य नियन्त्रण को सफल बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका थी.
जब कभी भी अलाउद्दीन खिलजी का नाम लिया जाता है. उसे सिर्फ उसकी बर्बरता और अमानवीयता के लिए ही याद किया जाता है. उसके इन युद्धों के जीतने के तरीके की वजह से ही इतिहास उसे एक निर्दयी शासक के तौर पर याद रखे हुए है.
खिलजी ने एक सिरे से कई सारे युद्ध लगातार जीते. इन युद्धों में जालौर का युद्ध, चित्तोड़ का युद्ध, नागौर का युद्ध, रणथम्भौर युद्ध आदि शामिल हैं. उसने अपनी सेना और रणनीतियों की बदौलत ही एक लम्बे समय तक हिन्दुस्तान पर राज किया.
ख़ास बात यह है कि अलाउद्दीन खिलजी की वजह से वहशी मंगोल भारत में अपना कब्ज़ा नहीं कर पाए. ये खिलजी ही था जिसकी वजह से एक या दो नहीं 6 बार मंगोलों को अपने पैर पीछे खींचने पड़े.
मंगोल वंश की स्थापना 1206 CE में हुई थी. इस दौरान मंगोल आदिवासियों की काउंसिल ने सर्वसम्मति से योद्धा ‘तेमुजिन’ को अपना नेता चुना. आगे चलकर, 44 साल की उम्र में उसे ‘चंगेज खान’ की उपाधि से सम्मानित किया गया. इस शब्द का अर्थ था ‘शक्तिशाली’.
मंगोलिया से निकलने वाले ये मंगोल अनपढ़ थे. मंगोलों ने पहले चंगेज खान के नेतृत्व में कई सारी विजय हासिल की. इसके बाद 1227 CE में उसकी मृत्यु के बाद उसके बेटे और पोतों के नेतृत्व में पूरा विश्व जीतने की रणनीति भी बनायी.
नतीजतन, ये विश्व इतिहास में सबसे बड़ा भू-भाग अपने आधीन करने में सफल हो गए. इस भू-भाग में चीन, रूस, मध्य एशिया, पर्शिया, इराक, सीरिया, अफगानिस्तान, कश्मीर और पूर्वी यूरोप के हिस्से शामिल हैं.
मंगोलों की यह प्रवृत्ति रही कि वह कहीं भी राज करने के लिए नहीं रुकते थे. वह एक राज्य में प्रवेश करते थे तो सिर्फ उसे लूटने के लिए. वो जहाँ जाते वहां मौत का तांडव मचा देते थे. पूरी जगह को तहस नहस कर डालते थे.
इसके अलावा, वह सुंदर स्त्रियों को अपने हरम में जबरदस्ती रख लेते थे. साथ ही, अच्छी कद-काठी और शक्तिशाली पुरुषों को अपनी सेना में शामिल कर लिया करते थे. मंगोलों का एक और नियम था. वह किसी भी राज्य पर आक्रमण करने से पहले उसे चेतवानी जरूर देते थे. साथ ही, अपनी मांगों को पूरा करने के बारे में भी कहते.
जब मंगोल लोगों को मौत के घाट उतारने से नहीं कतराते थे, मंगोल ‘चरवाहे’ थे, जो अपनी जीती हुई जमीन पर कभी भी बसेरा नहीं करते थे. उनका उद्देश्य साफ होता था. वह इलाकों से पैसा-खजाने के अलावा सारी नयी तकनीक लूट लिया करते थे. वह अपने जीते हुए इलाके में कुछ नहीं छोड़ा करते थे.
यदि कोई राज्य उनकी मांगों को मान कर पूरी कर देता तो, वह उन्हें बिना किसी नुकसान पहुंचाए छोड़ देते थे. इसके विपरीत यदि उनकी बात को कोई राज्य नहीं मानता था, तो वह उस राज्य को पूरी तरह से तहस-नहस कर देते थे. कर्टिन ने अपनी किताब में मंगोलों के विषय में कहा है कि यह हर चीज को बर्बाद कर दिया करते थे. वह जीव और निर्जीव किसी को भी नहीं छोड़ा करते थे.
ये मंगोल इतने निर्दयी थे कि जाते-जाते कुत्ते-बिल्लियों को भी नहीं छोड़ते थे. उन मासूम जानवरों को भी मौत के घाट उतार दिया करते थे. बता दें, मंगोलों का कोई धर्म नहीं होता था. मंगोल राष्ट्र काफी हद तक धर्मनिरपेक्ष रहा. ऐसे में, इस वंश में धर्म का कोई लेना देना नहीं रहा. मंगोलों की बर्बरता का सबसे बड़ा उदाहरण है उनका पर्सियन साम्राज्य पर किया गया हमला. इस निर्दयी वंश ने 6 मिलियन लोगों को मौत के घाट उतार दिया था.
आपको जानकार यह हैरानी होगी कि उस समय पूरे विश्व की आबादी 400 मिलियन थी. सन 1258 में मंगोल हलाकू खान ने बग़दाद पर किये हमले में लगभग 20 हजार लोगों को मौत के घाट उतार दिया था. इस्लामी स्कॉलर इब्न इफ्तिखार ने भी यह लिखा कि यह किसी बच्चे, बूढ़े, महिला, बीमार और अपाहिज किसी पर दया नहीं किया करते थे. वो लोगों को घरों मस्जिदों में ढूंढ-ढूंढ कर मारा करते थे. वह खून की नदियां बहाते थे.
सन 1266 CE में अलाउद्दीन खिलजी का जन्म दिल्ली में ही हुआ था. उसने अपना पूरा जीवन भारतीय उपमहाद्वीप में ही गुजारा. इसके साथ ही, उसने सन 1296 CE – 1316 CE तक दिल्ली के सुल्तान के रूप में भारत पर राज किया.
जब मंगोलों की जीत पर लगाम लगाई, एक शासक के तौर पर उसे देखा जाए, तो वह एक बेहतरीन योद्धा होने के साथ एक सफल रणनीति कार भी था. जिसके पास एक बहुत बड़ी और कुशल सेना मौजूद थी.
खिलजी ने सत्ता अपने चाचा सुल्तान जलालुद्दीन की हत्या करके हथिया ली थी. चाचा की मौत के बाद वह खुद दिल्ली के सुल्तान की गद्दी पर आ बैठा. इसके बाद उसने बड़ी तेजी से अपना साम्राज्य फैलाना शुरू कर दिया. इसी कड़ी में उसने कई हिंदू राजाओं के प्रशासित राज्यों पर अपना अधिपत्य स्थापित कर लिया. जिसमें गुजरात समेत पंड्या किंगडम, रणथम्भौर आदि शामिल है.
जब भारत में खिलजी का शासन था, उस समय मंगोलों ने हमला किया. चगताई खानाते के मंगोल के अंतर्गत दुवा खान ने भारतीय उपमहाद्वीप पर हमला करने की कोशिश की. हालांकि, इससे पहले भी हमले की कोशिश की गई थी. चूँकि पहली बार मंगोलों ने इतने बड़े स्तर पर हमला किया था इसीलिए यह महत्वपूर्ण हो गया.
इतिहास कारों ने कहा है कि भारत की किस्मत अच्छी रही कि मंगोलों ने उस समय बड़ा हमला किया जब अलाउद्दीन जैसा शक्तिशाली योद्धा राज कर रहा था. खिलजी ने न सिर्फ एक बार बल्कि छह बार मंगोलों को भारत में कदम बढ़ाने से रोका. मंगोलों ने पहली बार सन 1298 CE में हमले की कोशिश की. इस हमले में उन्होंने करीब एक लाख घोड़ों का भी इस्तेमाल किया.
इसके जवाब में अलाउद्दीन ने अपने भाई उलुग खान और जनरल ज़फर खान के नेतृत्व में अपनी सेना भेजी. खिलजी की सेना ने मंगोलों को इस युद्ध में करारी शिकस्त दी. जीत के साथ ही करीब 20 हजार सैनिकों को युद्धबंदी भी बना लिया, जिन्हें बाद में मौत की सजा दे दी गई. अपनी हार के एक साल बाद एक बार फिर उन्होंने भारतीय उपमहाद्वीप पर हमला किया. इस बार भी ज़फर खान के नेतृत्व में सेना खिलजी ने जीत हासिल की.
अपने खोये हुए किलों को उन्होंने आसानी से वापिस पा लिया. लगातार हो रही अपनी हार से दुवा खान झल्ला उठा था. उसने एक बार फिर अपने बेटे कुतलुग ख्वाजा के नेतृत्व में दो लाख सेना को हमले में भेज दिया.
खिलजी ने चखाया 'मंगोलों' को हार का स्वाद, मंगोलों ने इस बार उसने दिल्ली की सल्तनत को खत्म करने का पूरा इरादा कर लिया. इस बार उसने पूरी तैयारी के साथ सेना को भेजा. कहते हैं अलाउद्दीन खिलजी के सलाहकार भी इस बार डर गया और उसने खिलजी को युद्ध न करने की सलाह भी दी. लेकिन, अलाउद्दीन बिलकुल भी भयभीत नहीं हुआ और उसने अंत समय तक लड़ने का फैसला लिया.
बता दें, इससे पहले खिलजी के चाचा जलालुद्दीन ने मंगोलों की मांगों को मानते हुए युद्ध का फैसला नहीं किया था. लेकिन अलाउद्दीन को झुकना पसंद ही नहीं था. अलाउद्दीन का आमना-सामना मंगोल कुतलुग ख्वाजा से किली पर हुआ. साथ ही यही वो दिन था जब खिलजी ने एक बार जनरल ज़फर खान की वजह से जीत हासिल कर ली. इस तरह हार की वजह से मंगोल पीछे हट गए और वापस लौट गए.
दुवा खान अभी भी अपनी हार को नहीं भुला था. उसने सन 1303 CE एक लाख, बीस हजार सेना के साथ दोबारा हमला किया. इस बार यह हमला जनरल ताराघई के नेतृत्व में किया गया.
रोचक बात यह है कि इसी समय अलाउद्दीन चित्तोड़ की लड़ाई को अभी ही जीता था. उसने इस युद्ध में जीत तो हासिल की थी, लेकिन बहुत भारी क्षति भी झेली थी. ऐसे में, जनरल ताराघई ने हमला बोल दिया. लेकिन इस बार भी वह खिलजी की सेना के घेरे को नहीं तोड़ पाया. लगातार दो महीने तक कोशिश करके वह थक-हारकर वापस लौट गया.
इसके दो साल बाद मंगोल ने एक बार फिर घुसपैठ की नाकामयाब कोशिश की, दुश्मनों के बीस हजार घोड़े जब्त कर लिए गए, दुश्मनों की सेना का सारा सामान ढूंढ लिया, आठ हजार युद्ध बंदियों को दिल्ली लाया गया, जनरल अली बेग और जनरल तर्ताक के सिर को कलम कर दिया गया, आखिरी बार दुआ खान ने 1306 CE में हमला किया, लेकिन इस हमले में भी वह नाकामयाब रहा.
मंगोलों को हराकर अलाउद्दीन खिलजी ने वह कारनामा किया, जो पूरे विश्व में कोई भी नहीं कर पाया था, मंगोलों को खिलजी ने लगातार हराने के बाद अपनी बेहतरीन सेना और बहादुरी का परिचय अवश्य दिया था, और आज क्या कहते हैं अलाउद्दीन ख़िलजी क्रूर था, ज़ालिम था...?
सोचना ज़रूर ये नफ़रत की राजनीति आपको और हमको ही नहीं हमारे देश को कहां लेजा रही है, क्या आज हमको दुश्मन के लिए अलाउद्दीन ख़िलजी बनने की ज़रूरत नहीं है, क्या चीन जो मंगोलों का ठिकाना हुआ करता था आज अलाउद्दीन ख़िलजी बनकर जवाब देने की ज़रूरत नहीं है, सिर्फ़ लाल आंखे दिखाने की कहकर झूला झुलाकर किसने अपने को कमज़ोर साबित किया है, क्यूं चीन और पिद्दी सा पाकिस्तान हमको आंखे दिखाता है...?
हम आपको ये भी बताते चलें, कि मंगोल सिर्फ कश्मीर के हिस्से तक ही अपना पैर पसार पाए थे.
नोट- सभी तस्वीरें गूगल साभार
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