एस एम फ़रीद भारतीय
हक़ की बुलंद आवाज़
(ये कहानी नहीं, मेरी आपबीती है मुझे फ़क्र है मुझपर ये बीती)
बात उन दिनों की है, जब हम बहुत छोटे थे. जब वालिद साहब की तनख़्वाह के आठ सौ सत्तर रुपये पूरी तरहां खत्म हो जाते तब अम्मी हमारा पसंदीदा पकवान तैयार करतीं.
तरकीब ये थी कि सूखी रोटियों के
टुकड़े कपड़े के पुराने थैले में जमा होते रहते और महीनों के आखिरी दिनों में उन टुकड़ों की किस्मत खुलती, उन्हे साफ़ कर बीनने के बाद थैले मैं ही कूटा जाता फिर पानी में भिगोकर नर्म करके उनके साथ एक दो मुट्ठी बची हुई दालें सिल बट्टे पर पिसे हुए मसाले के साथ पतीले में डालकर पकने को छोड़ दिया जाता.
जहां तक कि वो बिल्कुल मजेदार ‘हलीम’ सा बन जाता और हम सब बच्चे वो हलीम उंगलियां चाटकर खतम कर जाते, दूसरी बार कुछ मीठा डालकर बनाया जाता ओर अम्मी के लिये सिर्फ पतीली की तह में लगे कुछ टुकड़े ही बचते, उनका कहना था खुरचन का मजा तुम लोग क्या जानो!
मेरी अम्मी ऐसी सुघड़ थीं कि एक दिन गोभी पकती तो अगले दिन उसी गोभी के पत्तों और डंठलों की सब्जी और ये कहना मुश्किल हो जाता गोभी मजेदार थी या डंठलों की सब्जी..?
अम्मी जब बाज़ार जातीं तो दर्जी की दुकान के कोने में पड़े कतरनों की पोटली बना लातीं, या मुझसे मंगाती, कुछ अरसे बाद ये कतरन तकिये के नये ग़िलाफों में भर दिये जाते क्यूंकि बक़ौल अम्मी एक तो रुई महंगी होती है और फिर रुई के तकियों में ज़रासीम बसेरा कर लेते हैं. फिर कतरनों से भरे तकियों में अम्मी रंग बिरंगे धागों से फूल पत्ती काढ़ देती थीं, कभी जब लाड आ जाता तो कहतीं तुम शहज़ादे शहज़ादियों के तो नखरे भी निराले हैं, सोते भी फूलों पर सर रखकर हो, क्यूंकि हम भी कोई कम नहीं पूरे दस भाई बहिन थे, मगर सब रूखी सूखी खाकर ख़ुश ।
ईद के मौके पर मुहल्ले भर के बच्चे दर्जी से कपड़े सिलवाते, हम ज़िद करते तो अम्मी कहतीं कि वो तो मज़बूरी में सिलवाते हैं क्यूंकि उनके घरों में किसी को सीना पिरोना नहीं आता, मैं तो अपने शहज़ादे शहज़ादियों के लिये हाथ से कपड़े सिलूंगी, ओर उल्टे हाथ से कपड़ा किस कमाल से काटा करती थी मैं बस यही देखा करता था पास बैठकर अपने हाथों से मशीन चलाना तो एक बहाना था ।
अलविदा जुमा के मुबारक दिन वालिद साहब सफेद के टी और फूलदार छींट के दो आधे-आधे थान जाने कहां से खरीदकर लाते, हां मुझको याद आया वालिद साहब के दोस्त सिख की कपड़ों की बड़ी दुकान थी सफेद के टी के थान में से वालिद साहब और पांचों हम भाईयों के ओर छींट के थान में से पांचों बहनों और अम्मी जान के जोड़े कटते और फिर अम्मी हम सबको सुलाने के बाद सहरी तक शहनाज़ बाज़ी को साथ बिठाकर मशीन पर रात मैं कपड़े सिलतीं, जबकि छोटी बहन तलत बाकी काम करती सिलने के बाद मेरी ज़िम्मेदारी भी सुबह शुरू होती मशीन को पड़ौस मैं या रिश्तेदारों मैं देकर आना क्यूंकि हमारी मशीन की बुकिंग पहले ही हो जाती थी कि कब किसको देनी है ओर ये काम मेरा था ।
ओहह यहां आपकी सोच कुछ भटक गई शायद अरे भाई मशीन की बुकिंग से मुराद पैसों से किराये पर नहीं दोस्ती ओर मुहब्बत मैं हुआ करती थी, क्यूंकि मैं यहां आपको एक बात बताकर चौंका दूं कि मेरी मां मशीन की बेहतरीन कारीगर भी थीं ओर ये हुनर उनको अपने वालिद ओर भाईयों से मिला था सुना तो ये जाता है मेरे नाना इंग्लैंड से ही ये हुनर सीखकर आये ओर सब बेटियों को मशीने भी ख़ुद बनाकर दी ।
दोस्तों कपड़े सिलने के बाद कोयले की प्रेस को गर्म कर सभी सिले कपड़ों पर बड़ी ही एहतियात से प्रेस करने का काम मेरा यानि आपके दोस्त एस एम फ़रीद भारतीय का होता ओर वो दिन मेरे लिए बड़े भाई इदरीस से बदला लेने के साथ वालिद साहब के भी प्यार भरे ख़ुशामदी अल्फ़ाज़ सुनने का होता जब वो कहते बैटा संभलकर करना जल ना जायें ओर बड़े भाई तो बस ख़ुशामद ही ख़ुशामद बड़ा मज़ा आता ।
हम भाई बहन जब थोड़ा और सयाने हुए तो अजीब सा लगने लगा कि मुहल्ले के सारे बच्चे-बच्चियां तो नए नए रंगों के अलग-अलग चमकदार कपड़े पहनते हैं मगर हमारे घर में सब एक ही तरहां के, मगर अम्मी के इस जवाब से हम मुतमईन हो जाते कि एक से कपड़े पहनने से क़ुनबे में मुहब्बत कायम रहती है और फिर ऐसे चटक मटक कपड़े का आखिर क्या फायदा जिन्हें ईद के बाद तुम इस्तेमाल ही न कर सको, था ना लाजवाब जवाब ।
ईद उल फितर वाहिद ऐसा त्यौहार था जिस पर सब बच्चों को वालिद एक एक रुपये का मकई वाला बड़ा सिक्का देते थे, जिसके इंतज़ार और खर्च करने का प्लान बनाने में चांद रात आंखों में ही कट जाती हमारी, मगर सुबह सब प्लाॅन फ़ेल पुराना ही लागू ना ख़र्च करना।
सुबह सुबह नमाज़ के बाद सब बच्चों की खरीदारी शुरू हो जाती, सबसे पहले हर बहन भाई होती लाल के ठेले से एक पन्नी वाला चश्मा लेता जिसे पहनकर जमीन पर गढ्ढा गढ्ढा दिखता, फिर सब लाल ज़बान चूरन और इमली खरीदते.
वहीं बगल में सजे मिट्टी के खिलौनों को बस छूकर खुशी जाहिर करते, एक बांसुरी लेता दूसरा गुब्बारा, तीसरा लट्टू. फिर सब आपस में छीना झपटी करते और आखिर मे बस उतने ही पैसे बचते कि दो तीन बर्फ की रंगीन पेप्सी मिल सके, यहां तक कि उन्हीं दो तीन में से सब बहन भाई अपना गला तर कर लेते, ये ध्यान रखते हुए कि कोई देर तक न चूसता रह जाए.
मगर हम कोई पैसा बाहरी चीज़ों पर ख़र्च नहीं करते थे सिवाये बड़े भाई के ओर ये सब रिश्तेदारों मैं ईद मिलने जाते वक़्त होता था ओर हां हमको पहले ही मालूम होता कहां से क्या ईनाम मिलेगा ओर वो ईनाम सब हम लिखकर अम्मी के हवाले कर देते ये कहकर कि नुमाइश मैं काम आयेगा, सबके पैसों मैं दस बीस पैसे कम मिलते जोड़ करने पर मगर मेरा हमेशा पूरे या कभी कुछ ज़्यादा ।
ज़्यादा इसलिए कि हर ईद पर मुझे कुछ ना कुछ पाता ज़रूर था ओर हर बार ही अम्मी की प्यार भरी डाँट के साथ नसीहत सुनने को मिलती कि बैटा ऐसे चीज़ नहीं उठाते ये ग़लत है ओर तब वो पाई चीज़ किसी फ़क़ीर के लिए अलग रख दी जाती ओर हमको नसीहत भी हो जाती ।
इसके बाद हम दूसरे बच्चों को दीवार पर लगे गुब्बारों को छर्रे वाली बंदूक से फोड़ते हुए बड़ी हसरत से देखते. बंदर और भालू का तमाशा भी अक्सर मुफ्त हाथ आ जाता, बड़े वाले गोल से झूले में बैठने से हम सब डरते थे और जबकि पापा के पास सर्कस ओर झूलों के पास हुआ करते थे मगर हम नहीं बैठते ।
बकरा ईद को सबके यहां कुरबानी होती, हमारे यहां भी ताया जान दिल्ली से आकर कुर्बानी किया करते बकरा भी पहले ही ख़रीदकर दे दिया जाता कभी हमको कभी अपनी ससुराल वालों को यानि ताई के भाई के यहां।
ओर हमारा सवाल अम्मी से होता कि पापा बकरा क्यूं नहीं लेते तब यहां भी अम्मी ने घोल बना रखा था कि जो लोग किसी वजह से कुर्बानी नहीं कर सकते उनके बकरे अल्लाह मियां ऊपर जमा कर रखता है, जब हम ऊपर जाएंगे तो एक साथ सब जानवर कुरबान करेंगे, इंशा अल्लाह!
एक दफ़ा छोटी बहन निकहत ने पूछा कि अम्मी क्या हम जल्दी ऊपर नहीं जा सकते.
हर सवाल पर मुतमईन कर देने वाली अम्मी चुप सी हो गई और हमें सहन में छोड़कर इकलौते कमरे में चली गई, हम बच्चों ने पहली बार कमरे से सिसकियों की आवाजें आती सुनीं मगर झांकने की हिम्मत न हुई, समझ में न आया कि आखिर बहन की बात पर रोने की क्या बात थी.
ऐसा नहीं है कि हम बेहद ग़रीब परिवार से ताल्लुक रखते थे ये कहना अल्लाह की नाशुक्री करना होगा बल्कि मामला ये था कि मेरी अम्मी जब गांव से अनाज आता था तब अपने घर का कोटा अपने हिसाब से रोककर बाकी ज़रूरतमंदों मैं बांट दिया करती थी, ओर उसके बाद भी अगर पूरे साल कोई सवाली परेशान सवाल लेकर मेरी मां के पास आता तब वो घर के अनाज ओर सामान मैं से उनको दे दिया करती ।
कभी भी मेरे वालिद मेरे चचा ओर तायाजान ने अनाज या बाकी सामान गुड शक्कर लेहसुन अदरक प्याज या सौंफ़ आदि का एक दाना भी बाज़ार मैं नहीं बेचा ओर ना ही मेरे वालिद ने कभी मेरी वालिदा से ये सवाल किया कि इतना अनाज या बाकी चीज़े जाती कहां हैं, ओर वो चीज़ें जाती कहां थी उसके लिए अपनी अम्मी का राज़दार मैं था, क्यूंकि देकर आने की ज़िम्मेदारी मेरी ही थी ।
अल्लाह का शुक्र था ज़मीन मैं ज़रूरत से बहुत ज़्यादा पैदावार थी लेकिन बाकी ख़र्चों के लिए वालिद की तनख़्वाह के सिवा कोई ओर ज़रिया नहीं था ओर मेरे वालिद अपनी इमानदारी के लिए पूरे विभाग मैं मशहूर हुआ करते थे मेरे वालिद की रिश्वत क्या थी समझ लें प्यार से सलाम ओर दो बोल के साथ एक पान ओर एक सिगरेट बस ।
30 अक्टूबर 1990 को एक दर्दनाक हादसे (तफ़सील फिर कभी) मैं मेरी वालिदा इस दुनियां से रूखस्त हो गई, ओर तब घर का सारा बोझ छोटी बहनों पर आ गया क्यूंकि एक बहन बड़ी शहनाज़ बाजी की शादी हो चुकी थी उनसे छोटी मेरी अज़ीज़ मुझसे लड़ने ओर सबसे ज़्यादा प्यार करने वाली इस दुनियां से जा चुकी थी जिसका सदमा भी अम्मी को बहुत था ।
मेरी वालिदा साहिबा की पहचान वाली आज भी जब मेरी मां की ख़ूबसरती ओर दिल की तारीफ़ करते हैं तब मैं तो फ़क्र करता ही हुँ लेकिन बस एक ही सोच दिल मैं रहती है कि मां नाम ही ऐसा है ओर ये मां की शख़्सियत जो है ना इसको समझना हम लोगों के बस की बात नहीं है ओर ये दौलत कितनी कीमती है तब समझ मैं आता है जब हम इससे मेहरूम हो जाते हैं।
तब दोस्तों मेरी आपसे एक ही गुज़ारिश है कि जो इस दौलत से माला माल हैं उनको फ़क्र करना चाहिए ओर कद्र करनी चाहिए मां बाप की मेरी नज़र मैं ये सबसे बड़ी दौलत है ओर मेरी नज़र मैं वो सबसे अमीर है जो इस दौलत की कद्र करते हैं ।
मैं बदनसीब इस दौलत से मेहरूम हुँ ओर आप लोगों से गुज़ारिश करता हुँ कि आप मेरे वालिदेन के हक़ मैं अल्लाह से दुआ करें कि अल्लाह मेरे वालिदेन को जन्नतुल फ़िरदौस मैं अपनी रहमत से बिन हिसाब किताब के आला मुकाम ओर मुझसे वालिदेन की शान मैं जो जाने अंजाने गुस्ताख़ियां हुई हैं उनको अपने महबूब के सदके मांफ़ फरमाऐ आमीन ।
ओर अल्लाह से मेरी बस दिली एक ही दुआ है कि ऐ अल्लाह तू दुनियां के हर मां बाप को औलाद की इज़्ज़त से नवाज़ दे ओर मां बाप की दुआओं को उनके हक़ मैं कबूल फ़रमा, हम नालायकों के दिलों मैं वालिदेन की इज़्ज़त ओर एहतराम करने का जज़्बा अता कर, हमारी औलादों को भी मां बाप की दुआऐं लेने वाला बना दे सुम्माआमीन ।
दोस्तों मेरी ज़िंदगी की सच्चाई इतनी दिलचस्प है कि अगर मैं लिखने बैठ जाऊं तो शायद ये ज़िंदगी भी कम पड़ जाये, ये कोई कहानी नहीं है एक एक लफ़्ज़ मेरी ज़िंदगी की सच्चाई है।
ओहहहह मां!
मां आख़िर, मां होती है ओर अमानत भी अल्लाह की ।
आपका बदनसीब मां बाप की दौलत से मेहरूम एक साथी दोस्त ॥
हम बदलेंगे तभी देश बदलेगा और मिलकर मज़बूत देश की बुनियाद रखें !बहुत बहुत शुक्रिया आपका, अगर आपको किसी खबर या कमेन्ट से शिकायत है तो हमको ज़रूर लिखें !
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