Friday 7 July 2017

इज़राईल का पूरा सच, क्या क्यूं ओर कैसे...?

एस एम फ़रीद भारतीय
यहूदियों के धर्मग्रंथ "पुराना अहदनामा" के मुताबिक यहुदी मज़हब का निकास पैगंबर हज़रत अबराहम (इस्लाम में इब्राहिम अलेयहिसलाम ईसाइयत में Abraham) से शुरू होता है, अबराहम का वक़्त ईसा से लगभग दो हजार वर्ष पहले का है, अबराहम के एक बेटे का नाम इसहाक और पोते का याकूब (ईसाईयत में Jacob) था, याकूब अलेयहिसलाम का ही दूसरा नाम इज़रायल था, याकूब अस ने यहूदियों की 12 बिरादरियों को
मिलाकर एक किया, इन सब बिरादरियों का यह सम्मिलित राष्ट्र इज़रायल के नाम के कारण "इज़रायल" कहलाने लगा, आगे चलकर इबरानी भाषा में इज़रायल का मतलब हो गया, ऐसा राष्ट्र जो ईश्वर (अल्लाह) का प्यारा हो।
याकूब के एक बेटे का नाम यहूदा अथवा जूदा था, यहूदा के नाम पर ही आपके वंशज यहूदी (जूदा-ज्यूज़) कहलाए और उनका धर्म यहूदी धर्म (जुदाइज्म) कहलाया, शुरू की शताब्दियों में याकूब के दूसरे बेटों की संतानें इज़रायल या बनी इज़रायल के नाम से मशहूर रहीं,  फ़िलिस्तीन और अरब के उत्तर में याकूब की इन संततियों की "इज़रयल" और "जुदा" नाम की एक दूसरी से मिली हुई लेकिन अलग-अलग दो छोटी-छोटी सल्तनतें थीं, दोनों में शताब्दियों तक गहरी दुश्मनी रही, आखिर में दोनों मिलकर एक हो गईं, इस सम्मिलन के परिणामस्वरूप देश का नाम इज़रायल पड़ा और बिरादरी का यहूदी।
यहूदियों के शुरू इतिहास का पता अधिकतर उनके धर्मग्रंथों से मिलता है जिनमें मुख्य बाइबिल का वह पहला भाग है जिसे "पुराना अहदनामा" (ओल्ड टेस्टामेंट) कहते हैं, पुराने अहदनामे में तीन किताबें शामिल हैं, सबसे शुरू में "तौरेत" (इबरानी थोरा) है, तौरेत का अल्फ़ाजी नाम वही है जो "धर्म" शब्द का है, यानि अपनाना या बाँधनेवाला, दूसरी किताब "यहूदी पैगंबरों का जीवनचरित" और तीसरी "पवित्र लेख" है, इन तीनों किताबों का संग्रह "पुराना अहदनामा" है। पुराने अहदनामें में 39 खंड या पुस्तकें हैं, इसका रचनाकाल ई.पू. 444 से लेकर ई.पू. 100 के बीच है, पुराने अहदनामे में सृष्टि की रचना, इंसान की पैदाईश, यहूदी बिरादरी का इतिहास, सदाचार के अहम कानून, मज़हबी कानून, पुरानी कथाएँ और दुआऐं शामिल हैं।
अब्राहम और मूसा
ईसाई धर्म, इस्लाम तथा यहूदी धर्म को संयुक्त रूप से इब्राहिमी धर्म भी कहते हैं क्योंकि इब्राहम तीनों धर्म के मूल में हैं।
यहूदी जाति के आदि संस्थापक अबराहम को अपने स्वतंत्र विचारों के कारण दर-दर की खाक छाननी पड़ी, अपने जन्मस्थान ऊर (सुमेर का प्राचीन नगर) से सैकड़ों मील दूर निर्वासन में ही उनकी मृत्यु हुई।
अबराहम के बाद यहूदी इतिहास में सबसे बड़ा नाम मूसा (मूसा अलेयहिसलाम जिनको मुस्लिम अल्लाह के नबी मानते हैं ओर क़ुरआन मैं ज़िक्र है) का है, मूसा ही यहूदी जाति के अहम माने जाते हैं, मूसा के उपदेशों में दो बातें मुख्य हैं, एक-अन्य देवी देवताओं की पूजा (इबादत) को छोड़कर एक निराकार ईश्वर (यानि अल्लाह) की उपासना (इबादत) और दूसरी- सदाचार के दस नियमों का पालन, मूसा अलेयहिसलाम ने अनेकों दुख सहकर ईश्वर (अल्लाह) की आज्ञानुसार जगह-जगह बँटी हुई अत्याचार पीड़ित यहूदी जाति को मिलकार एक किया और उन्हें फ़िलिस्तीन में लाकर बसाया, यह वक़्त ईसा से प्राय: 1,500 वर्ष पहले का था, मूसा के वक़्त से ही यहूदी जाति के बिखरे हुए समूह स्थायी तौर पर फ़िलिस्तीन में आकर बसे और उसे अपना देश समझने लगे, बाद में अपने इस नए देश का उन्होंने "इज़रायल" पहचान दी।
अबराहम ने यहूदियों का उत्तरी अरब और ऊर से फ़िलिस्तीन की ओर संक्रमण कराया, यह उनका पहला संक्रमण था। दूसरी बार जब उन्हें मिस्र छोड़ फ़िलिस्तीन भागना पड़ा तब उनके नेता हज़रत मूसा थे (प्राय: 16वीं सदी ई.पू.)। यह यहूदियों का दूसरा संक्रमण था जो महान् बहिरागमन (ग्रेट एग्ज़ोडस) के नाम से मशहूर है।
अबराहम और मूसा के बाद इज़रायल में जो दो नाम सबसे ज़्यादा आदरणीय माने जाते हैं वे दाऊद (ईसाइयत में David) और उसके बेटे सुलेमान (ईसाइयत में Solomons) के हैं, सुलेमान के समय दूसरे देशों के साथ इज़रायल के व्यापार में खूब उन्नति हुई, सुलेमान ने समुद्रगामी जहाजों का एक बहुत बड़ा बेड़ा तैयार कराया और दूर-दूर के देशों के साथ तिजारत शुरु की।
अरब, एशिया कोचक, अफ्रीका, यूरोप के कुछ देशों तथा भारत के साथ इज़रायल की तिजारत होती थी, सोना, चाँदी, हाथी दाँत और मोर भारत से ही इज़रायल आते थे, सुलेमान उदार विचारों के थे, सुलेमान के ही समय इबरानी यहूदियों की राष्ट्रभाषा बनी, 37 वर्ष के कामयाब हुकूमत के बाद सन् 937 ई.पू. में हज़रत सुलेमान अलेयहिसलाम की मौत हुई।
८३० ईसा पूर्व में इजराइल और जूदा (यहूदा) राज्य
सुलेमान अलेयहिसलाम की मौत से यहूदी एकता को बहुत बड़ा धक्का लगा, सुलेमान अलेयहिसलाम के मरते ही इज़रायली और जूदा (यहूदा) दोनों फिर अलग-अलग स्वाधीन रियासतें बन गईं।
सुलेमान अलेयहिसलाम की मौत के बाद 50 साल तक इज़रायल और जूदा के आपसी झगड़े चलते रहे, इसके बाद लगभग 884 ई.पू. में उमरीनामक एक राजा इज़रायल की गद्दी पर बैठे आपने फिर दोनों शाखों में प्यार के रिश्ते कायम किये, लेकिन उमरी की मौत के बाद यहूदियों की ये दोनों शाखें तबाहकुन लड़ाई युद्ध में उलझ गईं।
यहूदियों की इस हालत को देखकर असुरिया के राजा शुलमानु अशरिद पंचम ने सन् 722 ई.पू. में इज़रायल की राजधानी समरिया पर चढ़ाई की और उसपर अपना अधिकार कर लिया, अशरिद ने 27,290 प्रमुख इज़रायली सरदारों को कैद करके और उन्हें गुलाम बनाकर असुरिया भेज दिया और इज़रायल का शासन असूरी अफसरों को सपुर्द कर दिया, सन् 610 ई.पू. में असुरिया पर जब खल्दियों ने आधिपत्य कर लिया तब इज़रायल भी खल्दी सत्ता के अधीन हो गया।
सन् 550 ई.पू. में ईरान सुप्रसिद्ध हख़ामनी राजवंश का समय आया, इस कुल के सम्राट् कुरुश ने जब बाबुल की खल्दी सत्ता पर जीत हासिल की तब इज़रायल और यहूदी राज्य भी ईरानी हुकुमत मैं आ गए, आसपास के देशों में उस समय ईरानी सबसे अधिक अकलमंद और रहम वाले थे, अपने अधीन देशों के साथ ईरानी सम्राटों का व्यवहार प्यार से इंसाफ़ का होता था। अवाम यानि जनता के उद्योग धंधों को वे संरक्षा देते थे।
समृद्धि उनके पीछे-पीछे चलती थी, उनके धार्मिक विचार उदार थे, ईरानियों का शासनकाल यहूदी इतिहास का सबसे अधिक विकास और कामयाबी का वक़्त था, जो हजारों यहूदी बाबुल में निर्वासित और ग़ुलामी में पड़े थे उन्हें ईरानी सम्राट् कुरु ने आज़ाद कर अपने देश लौट जाने की इजाज़त दी, कुरु ने जेरूसलम के इबादतगाह के पुराने इमाम के एक बेटे योशुना और यहूदी बादशाह दाऊद के एक निकाले हुए वंशज जेरुब्बाबल को जरूसलम की वह दौलत देकर, जो लूटकर बाबुल लाई गई थी, वापस जेरूसलम भेजा और अपने खर्च पर जेरूसलम के इबादतगाह का फिर से निर्माण कराने की इजाज़त दी, इज़रायल और यहूदा के हजारों घरों में खुशियाँ मनाई गईं, शताब्दियों के बाद इज़रायलियों को साँस लेने का मौक़ा मिला।
यही वह वक़्त था जब यहूदियों के धर्म ने अपना असली रूप कायम किया, इससे पहले उनके मज़हब की बातें एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी को ज़ुबानी मिलती रहती थीं, अब कुछ यादों के सहारे, कुछ उल्लेखों के आधार पर मज़हबी किताब का जोड़ना फिर से शुरू हुआ, इनमें से थोरा या तौरेत का संकलन 444 ई.पू. में ख़त्म हुआ।
दोनों वक़्त की इबादत, जिसमें लोहबान जैसी सुगंधित चीजें, खाद्य पदार्थ, तेल इत्यादि के अतिरिक्त किसी मेमने, बकरे, पक्षी या अन्य पशु की क़ुरबानी दी जाती थी, यहूदी अल्लाह की इबादत का ज़रूरी हिस्सा था, ऋग्वेद के "आहिताग्नि" पुरोहितों के समान यहूदी आलिम इस बात का विशेष ध्यान रखते थे कि वेदी की आग चौबीस घंटे किसी तरह बुझने न पाए।
इज़रायली धर्मग्रंथों में शायद सबसे ख़ूबसूरत किताब "दाऊद अलेयहिसलाम की दुआऐं" हैं, पुराने अहदनामे की यह सबसे ज़्यादा छाप छोड़ने वाली किताब समझी जाती है, जिस तरहां दाऊद के बोल   इबादत के ख़ूबसूरत उदाहरण हैं उसी तरहां सुलेमान अलेयहिसलाम की ज़्यादातर कहावतें हर देश और हर काल के लिए कीमती हैं और सचाई से भरी हैं, एक तीरा यहूदी मज़हबी किताब। "प्रचारक" (एक्लज़िएस्टेस) इन ग्रंथों के बाद का लिखा हुआ है।
सन् 330 ई.पू. में सिकंदर ने ईरान को जीतकर वहाँ के हख़ामनी साम्राज्य का अंत कर दिया। सन् 320 ई.पू. में सिकंदर के सेनापति तोलेमी प्रथम ने इज़रायल और यहूदा पर आक्रमण कर उसपर अपना अधिकर कर लिया, बाद में सन् 198 ई.पू. में एक दूसरे यूनानी परिवार सेल्यूकस राजवंश का अंतिओकस चतुर्थ यहूदियों के देश का अधिराज बना, जेरूसलम के बलवे से नाराज़ होकर अंतिओकस ने उसके यहूदी पूजाघर को लूट लिया और हजारों यहूदियों का क़त्ल करवा दिया, शहर की चहारदीवारी को गिराकर जमीन से मिला दिया और शहर यूनानी सेना के सपुर्द कर दिया।
अंतिओकस ने यहूदी धर्म का पालन करना इज़रायल और यहूदा दोनों जगह कानूनी अपराध घोषित कर दिया, यहूदी पूजाघरों में यूनानी मूर्तियाँ स्थापित कर दी गईं और तौरेत की जो भी प्रतियाँ मिलीं आग के सपुर्द कर दी गईं।
यह स्थिति सन् 142 ई.पू. तक चलती रही, सन् 142 ई.पू. में एक यहूदी सेनापति साइमन ने यूनानियों को हराकर राज्य से बाहर निकाल दिया और यहूदा तथा इज़रायल की राजनीतिक स्वाधीनता की घोषण कर दी, यहूदियों की यह स्वाधीनता 141 ई.पू. से 63 ई.पू. तक बराबर बनी रही।
यह वह वक़्त था जब भारत में बौद्ध भिक्षु और भारतीय महात्मा अपने धर्म का प्रचार करते हुए पश्चिमी एशिया के देशों में फैल गए, इन भारतीय प्रचारकों ने यहूदी धर्म को भी प्रभवित किया, इसी प्रभाव के परिणामस्वरूप यहूदियों के अंदर एक नए "एस्सेनी" नामक संप्रदाय की स्थापना हुई, हर एस्सेनी ब्राह्म मुहूर्त में उठता था और सूर्योदय से पहले प्रात: क्रिया, स्नान, ध्यान, उपासना आदि से निवृत हो जाता था, सुबह के स्नान के अतिरिक्त दोनों समय भोजन से पहले स्नान करना हर एस्सेनी के लिए ज़रूरी था, उनका सबसे मुख्य सिद्धांत था-अहिंसा, हर एस्सेनी हर तरह की जानवरों की कुरबानी, गोश्त खाना या शराब ओर नशे के खिलाफ़ थे, हर एस्सेनी को दीक्षा के समय प्रतिज्ञा करनी पड़ती थी।
यहूदियों की राजनीतिक स्वाधीनता का अंत उस समय हुआ जब सन् 66 ई.पू. में रोम के जनरल पांपे ने तीन महीने के घेरे के पश्चात् जेरूसलम के साथ-साथ सारे देश पर अधिकार कर लिया,  इतिहास लेखकों के अनुसार हजारों यहूदी लड़ाई में मारे गए और 12,000 यहूदी कत्ल कर दिए गए।
इसके बाद सन् 135 ई. में रोम के सम्राट् हाद्रियन ने जेरूसलम के यहूदियों से रुष्ट होकर एक-एक यहूदी निवासी को कत्ल करवा दिया, वहाँ की एक-एक ईंट गिरवा दी और शहर की समस्त जमीन पर हल चलवाकर उसे बराबर करवा दिया, इसके बाद अपने नाम एलियास हाद्रियानल पर ऐंलिया कावितोलिना नामक नया रोमी नगर उसी जगह निर्माण कराया और हुकुम दे दिया कि कोई यहूदी इस नए नगर में कदम न रखे, नगर के मुख्य गेट पर रोम के प्रधान चिह्न सुअर की एक मूर्ति कायम कर दी गई, इस घटना के लगभग 200 वर्ष बाद रोम के पहले ईसाई सम्राट् कोंस्तांतीन ने नगर का जेरूसलम नाम फिर से प्रचलित किया।
छठी ई. तक इज़रायल पर रोम और उसके पश्चात् पूर्वी रोमी साम्राज्य बीज़ोंतीन का प्रभुत्व कायम रहा, खलीफ़ा अबूबक्र और खलीफ़ा उमर के समय अरब और रोमी (Bizantine) सेनाओं में टक्कर हुई, सन् 636 ई. में खलीफ़ा उमर की सेनाओं ने रोम की सेनाओं को पूरी तरह पराजित करके फ़िलिस्तीन पर, जिसमें इज़रायल और यहूदा शामिल थे, अपना कब्जा कर लिया, खलीफ़ा उमर जब यहूदी पैगंबर दाऊद की इबादतगाह पर बने यहूदियों के प्राचीन मंदिर में गए तब उस जगह को उन्होंने कूड़ा कर्कट और गंदगी से भरा हुआ पाया, उमर और उनके साथियों ने स्वयं अपने हाथों से उस स्थान को साफ किया और उसे यहूदियों के सपुर्द कर दिया।
इज़रायल और उसकी राजधानी जेरूसलम पर अरबों की सत्ता सन् 1099 ई. तक रही, सन् 1099 ई. में जेरूसलम पर ईसाई धर्म के जाँनिसारों ने अपना कब्जा कर लिया और बोलोन के गाडफ्रे को जेरूसलम का राजा बना दिया।
येरुसलम राज्य की स्थापना हुई जो रोमन कैथोलिक राज्य था, ईसाइयों के इस धर्मयुद्ध में 5,60,000 सैनिक काम आए, इस युद्ध में मुसलमानों एवं यहूदियों दोनों की निर्मम हत्या की गयी या उन्हें दास के रूप में बेच दिया गया, लेकिन 88 सालों के शासन के बाद यह हुकुमत ख़त्म हो गई।
इसके बाद सन् 1147 ई. से लेकर सन् 1204 तक ईसाइयों ने धर्मयुद्धों (क्रूसेडों) द्वारा इज़रायल पर कब्जा करना चाहा लेकिन उन्हें कामयाबी नहीं मिली, सन् 1212 ई. में ईसाई महंतों ने 50 हजार किशोरवयस्क लड़कों और लड़कियों की एक सेना तैयार करके पाँचवें धर्मयुद्ध की घोषणा की, इनमें से ज़्यादातर बच्चे भूमध्यसागर में डूबकर समाप्त हो गए, इसके बाद इस पाक ज़मीन पर कब्ज़ा करने के लिए ईसाइयों ने चार नाकामयाब हमले और किए।
13वीं और 14वीं शताब्दी में हलाकू और उसके बाद तैमूर लंग ने जेरूसलम पर आक्रमण करके उसे नेस्तनाबूद कर दिया। इसके बाद 19वीं शताब्दी तक इज़रायल पर कभी मिस्री आधिपत्य रहा और कभी तुर्की सन् 1914 में जिस समय पहला विश्वयुद्ध हुआ, इज़रायल तुर्की के कब्जे में था।
सन् 1917 में ब्रिटिश सेनाओं ने इसपर अधिकार कर लिया, 2 नवम्बर सन् 1917 को ब्रिटिश विदेश मंत्री बालफ़ोर ने यह घोषणा की कि इज़रायल को ब्रिटिश सरकार यहूदियों का धर्मदेश बनाना चाहती है जिसमें सारे संसार के यहूदी यहाँ आकर बस सकें।
मित्रराष्ट्रों ने इस घोषणा की पुष्टि की, इस घोषणा के बाद से इज़रायल में यहूदियों की जनसंख्या निरंतर बढ़ती गई, लगभग 21 साल (दूसरे विश्वयुद्ध) के बाद मित्रराष्ट्रों ने सन् 1948 में एक इज़रायल नामक यहूदी राष्ट्र की कानूनन स्थापना की।
5 जुलाई सन 1950 को इज़रायल की पार्लामेंट ने एक नया कानून बनाया जिसके अनुसार संसार के किसी कोने से यहूदियों को इज़रायल में आकर बसने की स्वतंत्रता मिली, यह कानून बन जाने के सात सालों के अंदर इज़रायल में सात लाख यहूदी बाहर के देशों से आकर बसे।
इज़रायल में जनतंत्री शासन है, वहाँ एक संसदीय पार्लामेंट है जिसे "सेनेट" कहते हैं, इसमें 120 सदस्य सानुपातिक प्रतिनिधान की चुनाव के ज़रिये चार सालों के लिए चुने जाते हैं, इज़रायल का नया जनतंत्र एक ओर आधुनिक वैज्ञानिक साधनों के ज़रिये देश को उन्नत बनाने में लगा हुआ है तो दूसरी तरफ़ पुरानी परंपराओं को भी उसने पुनर्जीवन दिया है, जिनमें से एक है सनिचर को सारे कामकाज बंद कर देना, इस प्राचीन नियम के मुताबिक आधुनिक इज़रायल में शनिवार के पवित्र "सैबथ" के दिन रेलगाड़ियाँ तक बंद रहती हैं।
यहूदियों ने ही पश्चिमी धर्मों में नबियों और पैगंबरों तथा इलहामी शासनों का आरंभ और प्रचार किया, उनके नबियों ने, विशेषकर छठी सदी ई.पू. के नबियों ने जिस साहस और निर्भीकता से श्रीमानों और असूरी सम्राटों को धिक्कारा है और जो बाइबिल की पुरानी पोथी में आज भी सुरक्षित है, उसका संसार के इतिहास में सानी नहीं।
उन्होंने ही नेबुखदनेज्ज़ार की अपनी बाबुली कैद में बाइबिल के पुराने पाँच खंड (पेंतुतुख) पेश किए, इसी से बाबुल के संबध से ही मिलाझुला बाइबिल का यह नाम पड़ा।
सन्‌ 1948 ई. से पहले फिलिस्तीन ब्रिटेन के औपनिवेशिक प्रशासन के अंतर्गत एक अधिष्ठित (मैनडेटेड) क्षेत्र था, यहूदी लोग एक लंबे अरसे से फिलिस्तीन क्षेत्र में अपने एक निजी राष्ट्र की स्थापना के लिए प्रयत्नशील थे, इसी मक़सद को लेकर दुनियां के अलग अलग हिस्सों से आकर यहूदी फिलिस्तीनी इलाके में बसने लगे।
अरब राष्ट्र भी इस हालत के लिए चौकंन्ना थे, मगर 1947 ई. में अरबों और यहूदियों के बीच युद्ध शुरू हो गया, 14 मई 1948 ई. को अधिवेश (मैनडेट) समाप्त कर दिया गया और इज़रायल नामक एक नए देश अथवा राष्ट्र का उदय हुआ, युद्ध जनवरी, 1949 ई. तक जारी रहा, न तो किसी तरहां की शांतिसंधि हुई, न ही किसी अरब राष्ट्र ने इज़रायल से राजनयिक संबंध स्थापित किए।
सन्‌ 1957 में इज़रायल ने पुन: ब्रिटेन तथा फ्रांस से मिलकर स्वेज की लड़ाई में गाजा क्षेत्र में अधिकार कर लिया, मगर संयुक्त राष्ट्रसंघ के आज्ञानुसार उसे इस भाग को अंतत: छोड़ना पड़ा, प्रथम युद्ध एक प्रकार से समाप्त हो गया, लेकिन अप्रत्यक्ष तनातनी बनी रही।
1967 ई. में स्थिति बहुत खराब हो गई और इज़रायल, सीरिया सीमाक्षेत्र में हुई झड़पों के बाद मिस्र ने इज़रायल की सीमा पर अपनी सेना बड़ी संख्या में तैनात कर दी, राष्ट्रसंघीय पर्यवेक्षक दल को निष्कासित कर दिया गया और रक्त सागर में इज़रायल की जहाजरानी पर मिस्र द्वारा रोक लगा दी गई, 5-6 जून की रात्रि को इज़रायल ने मिस्र पर जमीनी और हवाई हमले शुरू कर दिए, जार्डन भी इज़रायल के खिलाफ़ युद्ध में शामिल हो गया और सीरिया की सीमाओं पर भी लड़ाई जारी हो गई।
11 जून को राष्ट्रसंघ द्वारा की गई युद्धविराम की अपील लगभग सभी युद्धरत राष्ट्रों ने स्वीकार कर ली, लेकिन इस समय तक इज़रायल गाज़ा पट्टी, स्वेज़ नहर के तट तक सिनाई प्रायद्वीप के भूभाग, जार्डन घाटी तक जार्डन के भूभाग, जेरूसलम तथा गैलिली सागर के पूर्व में स्थित सीरिया के गालन नामक पर्वतीय भाग (जिसमें क्यूनेत्रा नामक नहर भी है) पर अधिकार कर चुका था, जेरूसलम को तत्काल इज़रायल का अभिन्न अंग घोषित कर दिया गया, लेकिन बाकी इलाके को 'अधिकृत क्षेत्र' के रूप में ही रखा गया।
गोलडा मेयर
फरवरी, 1969 ई. में लेवी एश्कोल की मौत हो जाने पर गोलडा मायर इज़रायल की प्रधानमंत्री नियुक्त हुईं और अक्टूबर, 1969 ई. के चुनाव में उन्हें फिर प्रधानमंत्री चुन लिया गया, युद्ध-विराम रेखा पर और विशेष रूप से अधिकृत स्वेज़ क्षेत्र में इज़रायलियों तथा अरब राष्ट्रों एवं फिलिस्तीनी गुरिल्ला संगठन के बीच छोटी-मोटी झड़पें चलती रहीं जिनका अंत अगस्त, 1970 ई. में हुए युद्धविराम समझौते के बाद ही हुआ ।

लेकिन आज भी सबकुछ मामला तय हो जाने के बाद इजरायल के फौजी फ़िलस्तनियों पर अपना ज़ुल्म हथियारों के ज़रिये ढाते रहते हैं, मगर आज तक दुनियां का कोई मुल्क इन ज़ुल्मों के ख़िलाफ़ सबकुछ जानकर भी बोलने को तैयार नहीं हैं ।
1967 मैं जिन मुल्कों ने इजराइल का विरोध किया था आज वो मुल्क क्या हैं कैसे अमेरिका का शिकार बने आपके सामने है अब आगे क्या होगा ये तो अल्लाह ही जाने लेकिन आज हमारे मुल्क भारत के प्रधानमंत्री ने वहां जाकर एक नया इतिहास रच दिया है जो अब तक नहीं हुआ वो अब हो चुका है वहां जाने की मंशा क्या है ये मैं दावे से नहीं कह सकता लेकिन जो कुछ मेरी समझ मैं आया वो अगले लेख मैं ज़रूर लिखूंगा ।

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