Monday, 23 October 2017

क्या है मानवाधिकार की परिभाषा ?

एस एम फ़रीद भारतीय
देश के विशाल आकार और विविधता ,
विकसनशील तथा संप्रभुता संपन्न धर्म-निरपेक्ष, लोकतांत्रिक गणतंत्र के रूप में इसकी प्रतिष्ठा, तथा एक भूतपूर्व औपनिवेशिक राष्ट्र के रूप में इसके इतिहास के परिणामस्वरूप भारत में
मानवाधिकारों की परिस्थिति एक प्रकार से जटिल हो गई है.

भारत का संविधान हमें मौलिक अधिकार प्रदान करता है, जिसमें धर्म की स्वतंत्रता भी अंतर्भूक्त है, संविधान की धाराओं में बोलने की आजादी के साथ-साथ कार्यपालिका और न्यायपालिका का विभाजन तथा देश के अन्दर एवं बाहर आने-जाने की भी आजादी दी गई है, यह अक्सर मान लिया जाता है, विशेषकर मानवाधिकार दलों और कार्यकर्ताओं के द्वारा कि दलित अथवा अछूत जाति के सदस्य पीड़ित हुए हैं एवं लगातार पर्याप्त भेदभाव झेलते रहे हैं.

हालांकि मानवाधिकार की समस्याएं भारत में मौजूद हैं, फिर भी इस देश को दक्षिण एशिया के दूसरे देशों की तरह आमतौर पर मानवाधिकारों को लेकर चिंता का विषय नहीं माना जाता है, इन विचारों के आधार पर, फ्रीडम हाउस द्वारा फ्रीडम इन द वर्ल्ड 2006 को दिए गए रिपोर्ट में भारत को राजनीतिक अधिकारों के लिए दर्जा 2, एवं नागरिक अधिकारों के लिए दर्जा 3 दिया गया है, जिससे इसने स्वाधीन की संभतः उच्चतम दर्जा (रेटिंग) अर्जित की है.

भारत में मानवाधिकारों से संबंधित घटनाओं के कालक्रम
1829 - पति की मृत्यु के बाद रुढ़िवादी हिन्दू दाह संस्कार के समय उसकी विधवा के आत्म-दाह की चली आ रही सती-प्रथा को राममोहन राय के ब्रह्मों समाज जैसे हिन्दू सुधारवादी आंदोलनों के वर्षों प्रचार के पश्चाद गवर्नर जनरल विलियम बेंटिक ने औपचारिक रूप से समाप्त कर दिया.

वहीं 1929 - बाल-विवाह निषेध अधिनियम में 14 साल से कम उम्र के नाबालिकों के विवाह पर निषेद्याज्ञा पारित कर दी गई.

1947 - भारत ने ब्रिटिश राज से राजनीतिक आजादी हासिल की.
1950 - भारत के संविधान ने सार्वभौमिक वयस्क मताधिकार के साथ संप्रभुता संपन्न लोकतांत्रिक गणराज्य की स्थापना की, संविधान के खण्ड 3 में उच्चतम न्यायालय एवं उच्च न्यायालय द्वारा प्रवर्तनीय मौलिक अधिकारों का विधेयक अन्तर्भुक्त है, यह शिक्षा, रोजगार और राजनीतिक प्रतिनिधित्व से पूर्ववर्ती वंचित वर्गों के लिए आरक्षण का प्रावधान भी करता है.

1952 - आपराधिक जनजाति अधिनियम को पूर्ववर्ती " आपराधिक जनजातियों को " अनधिसूचित " के रूप में सरकार द्वारा वर्गीकृत किया गया तथा आभ्यासिक अपराधियों का अधिनियम (1952) पारित हुआ.

1955 - हिन्दुओं से संबंधित परिवार के कानून में सुधार ने हिन्दू महिलाओं को अधिक अधिकार प्रदान किए.
1958 - सशस्त्र बल (विशेष अधिकार) अधिनियम, 1958-
1973 - भारत का उच्चतम न्यायालय
केशवानन्द भारती के मामले में यह कानून लागू करता है कि संविधान की मौलिक संरचना (कई मौलिक अधिकारों सहित संवैधानिक संशोधन के द्वारा अपरिवर्तनीय है.

1975-77- भारत में आपात काल की स्थिति-अधिकारों के व्यापक उल्लंघन की घटनाएं घटीं.

1978 - मेनका गांधी बनाम भारत संघ के मामले में उच्चतम न्यायालय ने यह कानून लागू किया कि आपात-स्थिति में भी अनुच्छेद 21 के तहत जीवन (जीने) के अधिकार को निलंबित नहीं किया जा सकता.

1978-जम्मू और कश्मीर जन सुरक्षा अधिनियम, 1978
1984 - ऑपरेशन ब्लू स्टार और उसके तत्काल बाद 1984 के सिख विरोधी दंगे
1985-6 - शाहबानो मामला जिसमें उच्चता न्यायालय ने तलाक-शुदा मुस्लिम महिला के अधिकार को मान्यता प्रदान की जिसने मौलानाओं में विरोध की चिंगारी भड़का दी.

उच्चतम न्यायालय के फैसले को अमान्य करार करने के लिए राजीव गांधी की सरकार ने मुस्लिम महिमा (तलाक पर अधिकार का संरक्षण) अधिनियम 1986 पारित किया .

1989 - अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति (अत्याचार निवारण) अधिनियम, 1989 पारित किया गया .
1989-वर्तमान- कश्मीरी बगावत ने कश्मीरी पंडितों का नस्ली तौर पर सफाया, हिन्दू मंदिरों को नष्ट-भ्रष्ट कर देना, हिन्दुओं और सिखों की हत्या तथा विदेशी पर्यटकों और सरकारी कार्यकर्ताओं का अपहरण देखा.

1992 - संविधानिक संशोधन ने स्थानीय स्व-शासन (पंचायती राज) की स्थापना तीसरे तले (दर्जे) के शासन के ग्रामीण स्तर पर की गई जिसमें महिलाओं के लिए एक-तिहाई सीट आरक्षित की गई। साथ ही साथ अनुसूचित जातियों के लिए प्रावधान किए गए.

1992 - हिन्दू-जनसमूह द्वारा बाबरी मस्जिद ध्वस्त कर दिया गया, परिणामस्वरूप देश भर में दंगे हुए.
1993 - मानवाधिकार संरक्षण अधिनियम के अंतर्गत राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग की स्थापना की गई.

2001 - उच्चतम न्यायालय ने भोजन का अधिकार लागू करने के लिए व्यापक आदेश जारी किए.
2002 - गुजरात में हिंसा, मुख्य रूप से मुस्लिम अल्पसंख्यक को लक्ष्य कर, कई लोगों की जाने गईं.
2005 - एक सशक्त सूचना का अधिकार अधिनियम पारित हुआ ताकि सार्वजनिक अधिकारियों के अधिकार क्षेत्र में संघटित सूचना तक नागरिक की पहुंच हो सके.

2005 - राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी अधिनियम (एनआरईजीए) रोजगार की सार्वभौमिक गारंटी प्रदान करता है।
2006 - उच्चतम न्यायालय भारतीय पुलिस के अपयार्प्त मानवाधिकारों के प्रतिक्रिया स्वरूप पुलिस सुधार के आदेश जारी किए.

2009 - दिल्ली उच्च न्यायालय ने भारतीय दण्ड संहिता की धारा 377 की घोषणा की जिसने अनिर्दिष्ट "अप्राकृतिक" यौनाचरणों के सिलसिले को ही गैरक़ानूनी करार कर दिया, लेकिन जब यह व्यक्तिगत तौर पर दो लोगों के बीच सहमति के साथ समलैंगिक यौनाचरण के मामले में लागू किया गया तो अंसवैद्यानिक हो गया, तथा भारत में इसने समलैंगिक संपर्क को प्रभावी तरीके से अलग-अलग भेद-भाव कर देखना शुरू किया, भारत में समलैंगिकता भी देखें:

हिरासत में मौतें
पुलिस के द्वारा हिरासत में यातना और दुराचरण के खिलाफ राज्य की निषेधाज्ञाओं के बावजूद, पुलिस हिरासत में यातना व्यापक रूप से फैली हुई है, जो हिरासत में मौतों के पीछे एक मुख्य कारण है, पुलिस अक्सर निर्दोष लोगों को घोर यातना देती रहती है जबतक कि प्रभावशाली और अमीर अपराधियों को बचाने के लिए उससे अपराध "कबूल" न करवा लिया जाय.

जी.पी. जोशी, राष्ट्रमंडल मानवाधिकारों की पहल की भारतीय शाखा के कार्यक्रम समन्वयक ने नई दिल्ली में टिप्पणी करते हुए कहा कि पुलिस हिंसा से जुड़ा मुख्य मुद्दा है पुलिस की जवाबदेही का अभी भी अभाव.

वर्ष 2006 में, भारत के उच्चतम न्यायालय ने प्रकाश सिंह बनाम भारत संघ के एक मामले में अपने एक फैसले में, केन्द्रीय और राज्य सरकारों को पुलिस विभाग में सुधार की प्रक्रिया प्रारम्भ करने के सात निर्देश दिए, निर्देशों के ये सेट दोहरे थे, पुलिस कर्मियों को कार्यकाल प्रदान करना तथा उनकी नियुक्ति/स्थानांतरण की प्रक्रिया को सरल और सुसंगत बनाना तथा पुलिस की जवाबदेही में इज़ाफा करना.

भारतीय प्रशासित कश्मीर
कई अंतर्राष्ट्रीय एजेंसियों और संयुक्त राष्ट्र ने भारतीय-प्रशासित कश्मीर में मानवाधिकारों के उल्लंघन की रिपोर्ट दी है। हाल ही में एक प्रेस विज्ञप्ति में ओएचसीएचआर (OHCHR) के एक प्रवक्ता ने कहा, "मानवाधिकारों के उच्चायुक्त का कार्यालय भारतीय-प्रशासित कश्मीर में हाल-फिलहाल हुए हिंसक विरोधों के बारे अधिक चिंतित है सूचनानुसार जिसके कारण नागरिक तो मारे गए ही साथ ही साथ सभा आयोजित करने (एक साथ समूह में जमा होने) अभिव्यक्ति की आजादी के अधिकार पर भी प्रतिबन्ध लगा दिया.

वर्ष 1996 के
मानवाधिकारों की चौकसी के रिपोर्ट ने भारतीय सेनावाहिनी एवं भारतीय सरकार द्वारा समर्थित अर्द्धसैनिक बलों की कश्मीर में गंभीर और व्यापक मानवाधिकारों के उल्लंघन करने के आरोप लगाए हैं, ऐसा ही एक कथित नरसंहार सोपोर शहर में 6 जनवरी 1993 को घटित हुआ, टाइम पत्रिका ने इस घटना का विवरण इस प्रकार दिया, "केवल एक सैनिक की ह्त्या के प्रतिशोध में, अर्द्धसैनिक बलों ने पूरे सोपोर बाज़ार को रौंद डाला और आसपास खड़े दर्शकों को गोली मार दी. भारत सरकार ने इस घटना की निन्दा करते हुए इसे "दुर्भाग्यपूर्ण" कहा तथा दावा किया कि अस्त्र-शस्त्र के एक जखीरे में बारूद के गोले से आग लग गई जिससे अधिकांश लोग मौत के शिकार हुए, इसके अतिरिक्त कई मानवाधिकार संगठनों ने पुलिस अथवा सेना द्वारा कश्मीर में लोगों के गायब कर दिए जाने के दावे भी पेश किए हैं.

जनवरी 2009 में श्रीनगर अंतर्राष्ट्रीय हवाई अड्डे के बाहर सड़क के किनारे एक सैनिक चौकी गार्ड.
कई मानवाधिकार संगठनों , जैसे कि एमनेस्टी इंटरनैशनल एवं ह्युमन राइट्स वॉच (HRW) ने भारतीयों के द्वारा कश्मीर में किए जाने वाले मानवाधिकारों के हनन की निंदा की है जैसा कि "अतिरिक्त-न्यायायिक मृत्युदंड", "अचानक गायब हो जाना", एवं यातना, "सशस्त्र बलों के विशेष अधिकार अधिनियम", जो मानवाधिकारों के हनन और हिंसा के चक्र में ईंधन जुटाने में दण्ड से छुटकारा दिलाता है.

सशस्त्र बलों के विशेषाधिकार अधिनियम (एएफएसपीए) सेनावाहिनी को गिरफ्तार करने, गोली मारकर जान से मार देने का अधिकार एवं जवाबी कार्रवाई के ऑपरेशनों में संपत्ति पर कब्ज़ा कर लेना या उसे नष्ट कर देने का व्यापक अधिकार प्रदान करता है.

भारतीय अधिकारियों का दावा है कि सैनिकों को ऐसी क्षमता की ही आवश्यकता है क्योंकि जब कभी भी हथियारबंद लड़ाकुओं से राष्ट्रीय सुरक्षा को संगीन खतरा पैदा हो जाता है तो सेना को ही मुकाबला करने के लिए तैनात किया जाता है, उनका कहना है कि, ऐसी परिस्थितियों से निपटने के लिए असाधारण उपायों की जरुरत पड़ती है."

मानवाधिकार संगठनों ने भी भारत सरकार से जन सुरक्षा अधिनियम को निरसित कर देने की सिफारिश की है, चूंकि "एक बंदी को प्रशासनिक नजरबंदी (कारावास) के अदालत के आदेश के बिना अधिकतम दो सालों के लिए बंदी बनाए रखा जा सकता है".

संयुक्त राष्ट्र शरणार्थी उच्चायुक्त (युनाइटेड नेशंस हाई कमिश्नर फॉर रिफ्युज़िज़) के एक रिपोर्ट के मुताबिक यह तय किया गया कि भारतीय प्रशासित कश्मीर "आंशिक रूप से आजाद" है, जबकि पाकिस्तान प्रशासित कश्मीर के बारे में निर्धारित किया गया कि "आजाद नहीं" है.

प्रेस की आजादी
मुख्य लेख : Freedom of press in India
सीमा के बिना संवाददाताओं (रिपोर्टर्स विदाउट बोर्डर्स) के अनुमान के अनुसार, दुनिया भर में प्रेस की आजादी के सूचकांक में भारत का स्थान 105वां है (भारत के लिए प्रेस की आजादी का सूचकांक 2009 में 29.33 था). भारतीय संविधान में "प्रेस" शब्द का उल्लेख नहीं किया गया है, लेकिन "भाषण और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के अधिकार" का प्रावधान किया गया है (अनुच्छेद 19(1) a). हालांकि उप-अनुच्छेद (2), के अंतर्गत यह अधिकार प्रतिबंध के अधीन है, जिसके द्वारा भारत की प्रभुसत्ता एवं अखंडता, राज्य की सुरक्षा, विदेशी राज्यों के साथ मैत्रीपूर्ण संबंध जनता में श्रृंखला, शालीनता का संरक्षण, नैतिकता का संरक्षण, किसी अपराध के मामले में अदालत की अवमानना, मानहानि , अथवा किसी अपराध के लिए उकसाना आदि कारणों से इस अधिकार को प्रतिबंधित किया गया है".

जैसे कि सरकारी गोपनीयता अधिनियम एवं आतंकवाद निरोधक अधिनियम के कानून लाए गए हैं, प्रेस की आजादी पर अंकुश लगाने के लिए पोटा (पीओटीए) का इस्तेमाल किया गया है, पोटा (पीओटीए) का इस्तेमाल किया गया है। पोटा (पीओटीए) के अंतर्गत पुलिस को आतंकवाद से संबंधित आरोप लाने से पूर्व किसी व्यक्ति को छः महीने तक के लिए हिरासत में बंदी बनाकर रखा जा सकता था। वर्ष 2004 में पोटा को निरस्त कर दिया गया, लेकिन युएपीए (UAPA) के संशोधन के जरिए पुनःप्रतिस्थापित कर दिया गया, सरकारी गोपनीयता अधिनियम 1923 कारगर रूप से बरकरार रहा.

स्वाधीनता की पहली आधी सदी के लिए, राज्य के द्वारा मीडिया पर नियंत्रण प्रेस की आजादी पर एक बहुत बड़ी बाधा थी,
इंदिरा गांधी ने वर्ष 1975 में एक लोकप्रिय घोषणा की कि "ऑल इण्डिया रेडियो" एक सरकारी अंग (संस्थान) है और यह सरकारी अंग के रूप में बरकरार रहेगा.

1990 में आरम्भ हुए उदारीकरण में, मीडिया पर निजी नियंत्रण फलने-फूलने के साथ-साथ स्वतंत्रता बढ़ गई और सरकार की अधिक से अधिक तहकीकात करने की गुंजाइश हो गई। तहलकाऔर एनडीटीवीजैसे संगठन विशेष रूप से प्रभावशाली रहे हैं, जैसे कि, हरियाणा के शक्तिशाली मंत्री विनोद शर्मा को इस्तीफा दिलाने के बारे में. इसके अलावा, हाल के वर्षों में प्रसार भारती के अधिनियम जैसे पारित कानूनों ने सरकार द्वारा प्रेस पर नियंत्रण को कम करने में उल्लेखनीय योगदान किया है.

एल जी बी टी (LGBT) अधिकार
मुख्य लेख : Homosexuality in India
जब तक दिल्ली हाई कोर्ट ने 2 जून 2009 को सम-सहमत वयस्कों के बीच सहमति-जन्य निजी यौनकर्मों को गैरआपराधिक नहीं मान लिया, तबतक 150 वर्ष पुरानी भारतीय दंड संहिता (आईपीसी) की अस्पष्ट धारा 377, औपनिवेशिक ब्रिटिश अधिकारियों द्वारा पारित कानून की व्याख्या के अनुसार समलैंगिकता को अपराधी माना जाता था.

बहरहाल, यह कानून यदा-कदा ही लागू किया जाता रहा, समलैंगिकता को गैरापराधिक करार करार करने के अपने आदेश में, दिल्ली उच्च न्यायालय ने कहा कि मौजूदा कानून भारतीय संविधान द्वारा गारंटीकृत मौलिक अधिकारों के साथ प्रतिद्वन्द्व पैदा करती है और इस तरह के अपराधीकरण संविधान की धारा 21, 14 और 15 का उल्लंघन करते हैं.

दिसंबर 11 , 2013 को समलैंगिकता को एक बार फिर सुप्रीम कोर्ट के फैसले से आपराध माना गया.

मानव तस्करी
मानव तस्करी भारत में $ 8 मिलियन अमेरिकी डॉलर का एक अवैध व्यापार है। हर साल लगभग 10,000 नेपाली महिलाएं वाणिज्यिक यौन शोषण के लिए भारत लायी जाती हैं, हर साल 20,000- 25,000 महिलाओं और बच्चों की बांग्लादेश से अवैध तस्करी हो रही है.

बाबूभाई खिमाभाई कटारा एक सांसद थे जब एक बच्चे की कनाडा में तस्करी के लिए वे गिरफ्तार कर लिए गए.

धार्मिक हिंसा
मुख्य लेख : Religious violence in India
भारत में (अधिकतर हिंदुओं और मुसलमानों के धार्मिक गुटों के बीच) सांप्रदायिक संघर्ष, ब्रिटिश शासन से आज़ादी के आसपास के समय से ही प्रचलित हैं, भारत में सांप्रदायिक हिंसा की सबसे पुरानी घटनाओं में केरल मोप्लाह (Moplah) विद्रोह था, जब कट्टरपंथी इस्लामी जंगियों ने हिंदुओं की हत्या कर दी, भारत विभाजन के दौरान हिंदुओं/ सिखों और मुसलमानों के बीच सांप्रदायिक दंगों में बड़े पैमाने पर हुई हिंसा में लोग बड़ी संख्या में मारे गए थे.

1984 के सिख विरोधी दंगों में चार दिन की अवधि के दौरान भारत की नरम दलवादी धर्मनिरपेक्ष कांग्रेस पार्टी के सदस्यों द्वारा सिखों की हत्या होती रही, कुछ लोगों का अनुमान है कि 2,000 से अधिक मारे गए थे, अन्य घटनाओं में 1992 के मुंबई दंगे तथा 2002 के गुजरात की हिंसा की घटनाएं शामिल हैं- उत्तरार्द्ध वाली घटना में, इस्लामी आतंकवादियो ने हिंदू यात्रियों से भरी
गोधरा में खड़ी ट्रेन को एक हमले में जला डाला, जिसमे 58 हिंदू मारे गए थे, इस घटना के परिणामस्वरूप 1000 से अधिक मुसलमान मारे गए थे (जिसका कोई उल्लेख नहीं है).

कई कस्बों और गांवों को छिटपुट छोटी-मोटी घटनाएं त्रस्त करती रही हैं; जिसमे से एक उदहारण स्वरुप उत्तर प्रदेश के मऊ में हिंदू-मुस्लिम दंगे के दौरान पांच लोगों की हत्या थी, जो एक प्रस्तावित हिंदू त्योहार के समारोह के उपलक्ष में भड़का दिया गया था, ऐसी ही एक अन्य घटना में को सांप्रदायिक दंगों में 2002 मराद नरसंहार शामिल है, जिसे उग्रवादी इस्लामी गुट राष्ट्रीय विकास मोर्चा द्वारा अंजाम दिया गया था, साथ ही साथ तमिलनाडु में इस्लामवादी तमिलनाडु मुस्लिम मुनेत्र कज़घम द्वारा निष्पादित हिन्दुओं के खिलाफ सांप्रदायिक दंगे हैं.

जाति से संबंधित मुद्दे
मुख्य लेख : Caste system in India , Caste politics in India, और Caste-related violence in India
ह्यूमन राइट्स वॉच के एक रिपोर्ट के अनुसार, दलितों और स्वदेशी लोगों (जो अनुसूचित जनजातियों या आदिवासियों के रूप में जाने जाते हैं) वे लगातार भेदभाव, बहिष्कार, एवं सांप्रदायिक हिंसा के कृत्यों का सामना कर रहे हैं। भारतीय सरकार द्वारा अपनाए गए क़ानून और नीतियां सुरक्षा के मजबूत आधार प्रदान करती हैं, लेकिन स्थानीय अधिकारियों द्वारा ईमानदारी से कार्यान्वित नहीं हो रही है।"

एमनेस्टी इंटरनेशनल का कहना है, "यह भारतीय सरकार की जिम्मेदारी है कि जाति के आधार पर भेदभाव के खिलाफ कानूनी प्रावधानों को पूरी तरह से अधिनियमित और लागू करे.

कई खानाबदोश जनजातियों के साथ भारत की अनधिसूचित (डिनोटिफाइड) जनजातियों की जनसंख्या जो सामूहिक रूप से 60 मिलियन है, लगातार आर्थिक कठिनाइयों और सामाजिक कलंक का सामना कर रहे हैं, इस तथ्य के बावजूद कि आपराधिक जनजातियों के अधिनियम 1871 को सरकार द्वारा 1952 में निरसित कर दिया गया था और आभ्यासिक अपराधियों के अधिनियम (एचओए) (1952) द्वारा इतने प्रभावी रूप से प्रतिस्थापित कर दिया गया कि, तथाकथित "अपराधिक जनजातियों" की पुरानी सूची से एक नई सूची बनाई गई.

यहाँ तक कि आज भी ये जनजातियां असामाजिक गतिविधि निवारण अधिनियम' (PASA) के परिणामों को झेलती हैं, जो केवल उनके अस्तित्व में बने रहने के लिए उनके दैनन्दिन संघर्ष में इजाफा ही करते हैं क्योंकि उनमें से ज्यादातर लोग गरीबी रेखा के नीचे ही रहते हैं, नस्ली भेदभाव उन्मूलन (CERD) पर राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग और संयुक्त राष्ट्र की भेदभाव विरोधी निकाय समिति ने सरकार से इस क़ानून को अच्छी तरह से निरसित कर देने को कहा है.

क्योंकि ये पहले की आपराधिक जन जातियां बड़े पैमाने पर उत्पीड़न और सामाजिक बहिष्कार सहती रही हैं और कइयों को अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति या अन्य पिछड़े वर्ग का दर्जा देने से इनकार कर दिया गया है ताकि उनके आरक्षण के अधिकार को नकार दिया जाय जो उनकी सामाजिक और आर्थिक स्थिति को ऊपर उठाता.

अन्य हिंसा
जैसे कि बिहारी-विरोधी मनोभाव के संघर्षों ने कभी-कभी हिंसा का रूप धारण कर लिया है, अपराध जांच के लिए आक्रामक तरीके जैसे कि 'नार्कोअनालिसिस' (नियंत्रित संज्ञाहरण) अर्थात अवचेतन में विश्लेषण की अब सामान्यतः भारतीय अदालतों ने अनुमति दी है.

हालांकि भारतीय संविधान के अनुसार "किसी को भी खुद उसी के खिलाफ एक गवाह नहीं बनाया जा सकता है", अदालतों ने हाल ही में घोषणा की है कि यहाँ तक कि इस प्रयोग के संचालन के लिए अदालत से अनुमति आवश्यक नहीं है। अवचेतानावस्था में विश्लेषण (Narcoanalysis) का अब व्यापक रूप से प्रयोग प्रतिस्थापित/प्रवंचना के लिए किया जाता है अपराध जांच के वैज्ञानिक तरीकों के संचालन के लिए कौशल और बुनियादी सुविधाओं की कमी है। [ मूल शोध? ] अवचेतानावस्था में विश्लेषण (Narcoanalysis) [ कौन? ] पर भी चिकित्सा की नैतिकता के खिलाफ आरोप लगाया गया है.

यह पाया गया है कि देश के आधे से अधिक कैदी पर्याप्त सबूत के बिना ही हिरासत में हैं, अन्य लोकतांत्रिक देशों के विपरीत, आम तौर पर भारत में आरोपी की गिरफ्तारी के साथ ही जांच की शुरूआत होती है, चूंकि न्यायिक प्रणाली में कर्मचारियों की कमी और सुस्ती है, अतः कई वर्षों से जेल में सड़ रहे निर्दोष नागरिकों का होना कोइ असामान्य बात नहीं है। उदाहरण के लिए, सितम्बर 2009 में मुम्बई उच्च न्यायालय ने महाराष्ट्र सरकार से एक 40-वर्षीय व्यक्ति को मुआवजे के रूप में 1 लाख रुपये का भुगतान करने के लिए कहा क्योंकि जिस अपराध के लिए वह 10 साल से जेल में सजा काट रहा था दरअसल उसने वह अपराध किया ही नहीं था.

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