Sunday, 3 November 2019

चुनाव क्या है का जवाब...!

"एस एम फ़रीद भारतीय"

चुनाव लोकतंत्र का आधार स्तम्भ हैं, आजादी के बाद से भारत में चुनावों ने एक लंबा रास्ता तय किया है, 1951-52 को हुए आम चुनावों में मतदाताओं की संख्या जहां 17,32,12,343 थी, जो 2014 में बढ़कर 81,45,91,184 हो गई थी, वहीं भारतीय चुनाव आयोग के अनुसार, २०१४ के पिछले
आम चुनाव के बाद से ८.४३ करोड़ मतदाताओं की वृद्धि के साथ ९० करोड़ लोग वोट देने के पात्र बने हैं, जो दुनिया का सबसे बड़ा चुनाव था.

 १८-१९ वर्ष के आयु वर्ग के १.५ करोड़ मतदाताओं ने पहली बार मतदान किया, जबकि 38325 ट्रांसजेंडर लोगों ने पहली बार पुरुष या महिला के रूप में नहीं, तीसरे लिंग के सदस्य के रूप में मतदान कर सके, ७१,७३५ विदेशी मतदाताओं ने २०१९ के लोकसभा चुनाव के लिए मतदाता सूची में नाम दर्ज कराया था.

बॉक्स था और जनता जिसे चुनना चाहे उसके बॉक्स में बैलट पेपर डालना था, लेकिन वोटर्स को पता नहीं था कि एक ही उम्मीदवार को वोट दिया जा सकता है,
इस वजह से मद्रास, मैसूर और ओडिशा में कुछ अलग ही सुनने को मिला.

वहां दुविधा में पड़े वोटर्स ने अपने बैलट पेपर को टुकड़ों-टुकड़ों में फाड़कर उन्हें सभी उम्मीदवारों के बॉक्स में डाल दिया, वहीं कुछ अनजान लोगों ने तो बैलट बॉक्स में फूल की पत्तियां, सिक्के और नोट्स भी डाल दिए थे, 1951-52 के पहले आम चुनाव में हर उम्मीदवार के लिए स्टील के अलग बैलट बॉक्स बनाए गए थे, यानि कुल 25.8 लाख बैलट बॉक्स का इस्तेमाल हुआ.

आपको ये भी बता दें कि 1951-52 के पहले आम चुनाव में एक संसदीय क्षेत्र ऐसा भी था, जहां से 3 सांसद चुने गए, यह संसदीय क्षेत्र था- नॉर्थ बंगाल, वहीं पहले दो आम चुनावों में कुछ संसदीय क्षेत्र ऐसे थे, जहां 2 से ज्यादा सांसद चुने गए, एक सामान्य वर्ग से और दूसरा एससी/एसटी वर्ग से, 1951-52 में 86 और 1957 में 92 संसदीय क्षेत्र 2 सांसदों वाले थे, 1962 में यह व्यवस्था खत्म कर दी गई.

चुनाव पर होने वाला खर्च राक्षसी सुरसा की मुंह की तरह बढ़ता जा रहा है। प्रति मतदाता खर्च वर्ष 1951 में मात्र 60 पैसे था, जो अब करीब 2400 रूपये प्रति वोटर है.

भारतीय चुनाव मैं साल 1957 लोकसभा का पहला ऐसा चुनाव रहा, जिसके चुनावी खर्च में पिछले लोकसभा चुनाव के मुकाबले कमी आई हो, 1957 के आम चुनाव में 5.9 करोड़ रुपए खर्च हुए थे, जबकि पहले लोकसभा चुनाव 1951-1952 में 10.45 करोड़ रुपए खर्च हुए थे, इसके बाद होने वाले आम चुनावों में चुनावी खर्च की राशि बढ़ती ही गई, साल 2014 का लोकसभा चुनाव अब तक का सबसे महंगा चुनाव रहा, इस चुनाव में करीब 3870 करोड़ रुपए खर्च हुए.

ऐसे बढ़ा चुनावी खर्च 1951-52 - 10.45 करोड़ रुपए 1957 - 5.9 करोड़ रुपए 1962 -7.32 करोड़ रुपए 1967 - 10.62 करोड़ रुपए 1971 - 11.62 करोड़ रुपए 1977 - 23.04 करोड़ रुपए 1980 - 54.77 करोड़ रुपए 1984 - 81.51 करोड़ रुपए 1989 - 154.22 करोड़ रुपए 1991 - 359 करोड़ रुपए 1996 - 597.34 करोड़ रुपए 1998 - 666.22 करोड़ रुपए 1999 - 947.68 करोड़ रुपए 2004 - 1016.09 करोड़ रुपए 2009 - 1114.38 करोड़ रुपए 2014 - 3870 करोड़ रुपए, 2019 - 45000 करोड़ रपयए, इस बार 70 लाख रुपए रखी गई चुनावी खर्च लिमिट इस बार लोकसभा चुनाव में प्रत्याशी 50 लाख रुपए से 70 लाख रुपए खर्च कर सकते हैं.

अरुणाचल प्रदेश, गोवा और सिक्किम को छोड़कर अन्य राज्यों के उम्मीदवार अपने चुनाव प्रचार के दौरान 70 लाख रुपए तक खर्च कर सकते हैं। अरुणाचल प्रदेश, गोवा और सिक्किम के लिए 54 लाख रुपए और दिल्ली के लिए 70 लाख एवं केंद्रशासित प्रदेशों के लिए 54 लाख रुपए निर्धारित की गई है, जबकि विधानसभा चुनावों में प्रत्याशी 20 लाख से लेकर 28 लाख रुपए खर्च कर सकते हैं का कानून बना दिया गया.

अब सवाल है इस बढ़ते चुनावी ख़र्च से क्या कोई ईमानदार जन प्रतिनिधी चुनावी जंग मैं उतर सकता है, अगर हां, तो वो बेशुमार दौलत ख़र्च करने वालों के बीच कहां खड़ा दिखाई देगा...?

यानि कुल मिलाकर भारतीय चुनाव आयोग ने ये तय कर दिया कि किसी भी ईमानदार और ग़ैर पार्टी के उम्मीदवार को देश मैं चुनाव लड़ने के बारे मैं सोचना ही ग़लत है, क्यूंकि चुनाव आयोग ने तय कर दिया है जिनकी जे हें गरम होंगी जिसपर मेहनत नहीं फोकट की कमाई होगी वही चुनावी जंग मैं अपनी किस्मत आज़माऐगा.

क्यूंकि अगर किसी ग़रीब और ईमानदार ने अपने हमदर्दों के कहने पर चुनाव मैं उतरने की हिम्मत कर भी ली तब अगर उसकी एक वोट से भी हार होती है तब उसके परिवार की तबाही तो तय है और अपनी तबाही के बाद वो क्या क़दम उठायेगा इसको जानकर पर कोई उसके क़दम उठाने का ज़िम्मेदार नहीं होगा यही आज के लोकतंत्र का मतलब है...!

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