भटक रही थी जो कश्ती वो ग़र्क-ए-आब हुई
चढ़ा हुआ था जो दरिया उतर गया यारो
वो कौन था वो कहाँ का था, क्या हुआ था उसे
सुना है आज कोई शख़्स मर गया यारो
आज सच में वो शख्स नहीं रहा। भटकती हुई कश्ती आज सच में पानी में डूब गई। चढा हुआ दरिया उतर गया। वह शख्स जहां से आया था, जहां का था, वह वहीं चला गया।उर्दू के गज़लगो और ऊपर लिखी श़ेरों के शायर शहरयार हमारे बीच नहीं रहे। गजल गायक जगजीत सिंह के अवसान के बाद समकालीन गज़ल को जिंदा रखने वालों की छोटी लिस्ट में एक और नाम कम हो गया। आज अचानक चलते-चलते रूक गए शहरयार, जैसे अपना ही शे़र खामोशी से कहने लगे- एक मंज़िल पे रुक गई है हयात ये ज़मीं जैसे घूमती ही नहीं।
1936 में जन्में शहरयार का असली नाम कुंवर अख़लाक़ मुहम्मद ख़ान था। 1961 में उर्दू में स्नातकोत्तर डिग्री लेने के बाद उन्होंने 1966 में अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय में उर्दू के लेक्चरर के तौर पर काम शुरू किया। यहीं से उर्दू विभाग के अध्यक्ष के तौर पर सेवानिवृत्त भी हुए।
शहरयार ने गमन और आहिस्ता-आहिस्ता सहित कुछ हिंदी फ़िल्मों में गीत लिखे लेकिन उन्हें सबसे ज़्यादा लोकप्रियता 1981 में बनी फ़िल्म 'उमराव जान'से मिली। इन आँखों की मस्ती के मस्ताने हज़ारों हैं; जुस्तजू जिसकी थी उसको तो न पाया हमने; दिल चीज़ क्या है आप मेरी जान लीजिये; ये क्या ज़गह है दोस्तो, ये कौन सा दयार है; जैसे नग़मों से शहरयार जीते-जी लोगों के रूह का हिस्सा हो चुके थे। उसके बाद उन्होंने खुद को बॉलीवुड की दुनिया से अलग कर लिया। वे शायरी लिखते रहे और मुशायरों की जान बने रहे। उनके गजल संग्रह के नाम हैं-ख़्वाब का दर बंद है; शाम होने वाली है; मिलता रहूँगा ख़्वाब में; सैरे-जहां।
शहरयार 44 वें ज्ञानपीठ पुरस्कार से नवाजे गये। उर्दू शायरी को नया नक्श देने में अहम भूमिका निभाने वाले शहरयार को उत्तर प्रदेश उर्दू अकादमी पुरस्कार, साहित्य अकादमी पुरस्कार, दिल्ली उर्दू पुरस्कार और फ़िराक सम्मान सहित कई पुरस्कारों से नवाजा गया।
शहरयार की शायरी में ना सिर्फ उनकी तन्हाई है, इश्क मज़ाजी के साथ इश्क हकीकी भी है, साथ में आम जिंदगी की परेशानी भी है। सीने में जलन आंखों में तूफ़ान सा क्यूं है/इस शहर में हर शख्स परेशान सा क्यूं है। आधुनिक जीवन की तल्ख परेशानियों को किस अंदाज़ में शहरयार ने बयां किया है, इन श़ेरों में देखिए-
ये क्या ज़गह है दोस्तो ये कौन सा दयार है
हद-ए-निगाह तक जहां,गुबार ही गुबार है।
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कभी किसी को मुकम्मल जहाँ नहीं मिलता
कहीं ज़मीं तो कहीं आसमाँ नहीं मिलता।
अपनी तन्हाई का बयां वे इन शब्दों में करते हैं-
कहीं ज़रा सा अँधेरा भी कल की रात न था
गवाह कोई मगर रौशनी के साथ न था।
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जिसे भी देखिये वो अपने आप में गुम है
ज़ुबाँ मिली है मगर हमज़ुबाँ नहीं मिलता।
उनकी गज़लों में इश्क का एक नज़ीर पेश है-
ज़िन्दगी जब भी तेरी बज़्म में लाती है हमें
ये ज़मीं चाँद से बेहतर नज़र आती है हमें
सुर्ख़ फूलों से महक उठती हैं दिल की राहें
दिन ढले यूँ तेरी आवाज़ बुलाती है हमें।
दुनिया में अपनी जिंदगी के बारे में भी वे शे़र में कहते हैं-
काग़ज़ की कश्ती में दरिया पार किया
देखो हम को क्या-क्या करतब आते हैं।
कागज़ की कश्ती में दरिया वह पार कर गए, अपनी तन्हाई के साथ जमाने के सुर-ताल मिलाते हुए, नग़मा-तरन्नुम सुनाते हुए, शहरयार हमें अलविदा कह गए। इस महान शायर को श्रद्धांजलि।