Tuesday 21 February 2017

क्या है औरंगज़ेब रहम्तुल्ला अलेय का सच...?

एस एम फ़रीद भारतीय 
एक शायर ने बड़े दर्द के साथ लिखा है: 
तुम्हें ले दे के, सारी दास्ताँ में, याद है इतना;
कि आलमगीर हिन्दूकुश था, ज़ालिम था, सितमगर था”.
बचपन में मैनें भी इसी तरह का इतिहास पढा था और मेरे दिल में भी इसी तरह की बदगुमानी थी, लेकिन एक घटना ऐसी पेश आई जिसने मेरी राय बदल दी, मैं सन् 1948-53 में
इलाहाबाद म्युनिसिपैलिटी का चैयरमैन था, त्रिवेणी संगम के निकट सोमेशवर महादेव का मन्दिर है, उसके पुजारी की मृत्यु के बाद मन्दिर और मन्दिर की जयदाद के दो दावेदार खडे हो गये, उनमें से एक फरीक ने कुछ दस्तावेज दाखिल किए थे.
दूसरे फरीक के पास कोई दस्तावेज़ नहीं थे, जब मैंने दस्तावेज़ पर नज़र डाली तो देखा कि वह औरंगज़ेब का फरमान था, जिसमें मन्दिर के पुजारी को ठाकुर जी को भोग और पूजा के लिए जागीर में दो गाँव अता किए गये थे, मुझे शुबहा हुआ कि ये दस्तावेज़ नकली है.
औरंगज़ेब तो बुतशिकन, मूर्तिभंजक था। वह बुत परस्ती के साथ अपने आप को कैसे वाबस्ता कर सकता था। मैं अपना शक़ रफा करने के लिए सीधा अपने चैम्बर से उठकर सर तेज बहादुर सप्रू के यहाँ गया। सप्रू साहब फारसी के आलिम थे, उन्होंने फरमान को पढ़कर कहा कि ये फरमान असली है.
मैंने कहा- “डाक्टर साहब ! आलमगीर तो मन्दिर तोडता था। बुतशिकन था, वह ठाकुर जी को भोग और पूजा के लिए कैसे जायदाद दे सकता था?”
डा. सप्रू साहब ने अपने मुंशी को आवाज़ देकर कहा- “मुंशी जी ज़रा बनारस के जंगमबाडी शिवमन्दिर की अपील की मिसिल तो लाओ। “मुंशी जी मिसिल लेकर आए तो डाक्टर सप्रू ने दिखाया कि औरंगज़ेब के चार फरमान और थे जिनमें जंगमों को माफी की जमीन अता की गई थी। डा. सप्रू की सलाह से मैंने भारत के प्रमुख मन्दिरों की सूची प्राप्त की और उन सबके नाम पत्र लिखा कि अगर उनके मन्दिरों को औरंगज़ेब या मुगल बादशाह ने कोई जागीर दी हो, तो उनकी फोटो कापियाँ मेहरबानी करके भेजिये। दो तीन महीने की प्रतीक्षा के बाद हमें महाकाल मन्दिर, (उज्जैन), बालाजी मन्दिर (चित्रकूट), उमानन्द मन्दिर(गौहाटी), जैन मन्दिर (गिरनार), दिलवाडा मन्दिर (आबू), गुरूद्वारा रामराय (देहरादून) वगैरह से सूचना मिली कि उनको औरंगज़ेब ने जागीरें अता की थीं। एक नया औरंगज़ेब हमारी आँखों की सामने उभर कर आया. 
    

 हमारी तरह ही प्रसिद्ध पुरातत्वेत्ता डा. परमेशवरीलाल गुप्त ने भी अपने शोध प्रबन्धों से हमारे इस कथन की पुष्टि की है। उनके अनुसार:-
    

“हिन्दूद्रोही और मन्दिर भंजक के रूप में जिस किसी इतिहासकार ने औरंगज़ेब का यह चित्र उपस्थित किया, उसने अंगरेजों को अपनी फूट डालो और राज करो वाली नीति के प्रतिपादन के लिए एक जबरदस्त हथियार दे दिया। उसका भारतीय जनता पर इतना गहरा प्रभाव पडा कि उदार राष्ट्रीय विचारधारा के इतिहासकार और विशिष्ट चिंतक भी उससे अपने को मुक्त नहीं कर सके हैं। उन्होंने भी स्वयं तटस्थ भाव से तथ्यों का विश्लेषण न कर यह मान लिया है कि औरंगज़ेब हिन्दूओं के प्रति असहिष्णु था.
    “इसमें सन्देह नहीं कि औरंगज़ेब एक धर्म्निष्ठ् मुसलमान था। उसके द्वारा जज़िया कर का ज़ारी किया जाना भी उसकी इस्लामी सिद्धांतों के प्रति आस्था का प्रतीक है। अत: हमारे इतिहासकारों की औरंगज़ेब के बारे में क्या विचारधारा रही है, इसको जानने और मानने की अपेक्षा अधिक उचित यही होगा कि हम औरंगज़ेब के समसामयिक बुद्धिवादियों के कथन को महत्व दें और जानें कि औरंगज़ेब के सम्बन्ध में उनकी क्या धारणा थी।“
1908 हिजरी का औरंगज़ेब के द्वारा जारी फरमान है, जिसमें कहा गया है कि बनारस में गंगा किनारे बेंनीमाधो घाट पर दो टुकडे जमीन बिना निर्माण के खाली पडी है और बैतु-उल-माल है। इनमें से एक बडी मसजिद के पीछे रामजीवन गुंसाईं के मकान के सामने है और दूसरा उससे कुछ उँचाई पर है। इस भूमि के इन टुकडों को हम रामजीवन गुंसाईं और उसके लडकों को बतौर इनाम देते हैं ताकि वह उस पर धार्मिक ब्राह्म्णों और साधुओं के रहने के लिए सत्र बनवाएँ.
काशी मे शैव सम्प्रदाय के लोगों का एक सुविख्यात मठ जंगमबाडी है। इस मठ के महंत के पास औरंगज़ेब के द्वारा दिए गये कतिपय फरमान हैं। इनमें से पाँच रमज़ान 1071 हिजरी को जारी किया गया औरंगज़ेब का फरमान है जिसके द्वारा उसने जंगमों को परगना में 178 बीघा जमीन अपने सिर से निसार स्वरूप प्रदान किया है और कहा कि यह भूमि माफी समझी जाये ताकि वह उसका उपभोग कर सकें और राज्य के चिरस्थाई बने रहने की कमना करते रहें.
ये राजपत्र इस बात की स्पष्ट अभिव्यक्ती करते हैं कि औरंगज़ेब का हिन्दू धर्म के प्रति कोई विद्वेष्णा न थी। यह बात मूर्तियों और मन्दिरों के बारे में भी कही जा सकती है.
औरंगज़ेब की भावना को स्पष्ट करने की दृष्टि से अधिक महत्व का फरमान वह है जिसे उसने जालना के एक ब्राह्म्ण की फरीयाद पर जारी किया था। उस ब्राह्म्ण ने अपने घर में गणेश की एक मूर्ति प्रतिष्ठीत की थी। उसे वहाँ के एक मुसलमान अधिकारी ने हटवा दिया था। इस कार्य के विरुद्ध उसने औरंगज़ेब से फरियाद की। औरंगज़ेब ने तत्काल मूर्ति लौटाने का आदेश दिया और इस प्रकार के हस्तक्षेप का निषेध किया.
इन सबसे अधिक महत्व का वह फरमान है जो ”बनारस फरमान” के नाम से इतिहासकारों के बीच प्रसिद्ध है और जिसे लेकर यदुनाथ सरकार सदृश गम्भीर इतिहासकार ने अपनी “हिस्ट्री आफ औरंगज़ेब” में यह मत प्रतिपादित किया है कि औरंगज़ेब ने हिन्दू धर्म पर अपना आक्रमण बडे छद्म रूप में प्रारम्भ किया। इस फरमान का सहारा लेकर यदुनाथ सरकार ने औरंगज़ेब को धर्मान्ध सिद्ध करने की कोशिश में इस फरमान के केवल कुछ शब्द ही उद्धृत किए हैं। यदि इन इतिहासकारों ने इमानदारी बरती होती और समूचे फरमान को सामने रखकर सोचा होता तो तथ्य निस्सन्देह भिन्न रूप में सामने आता और औरंगज़ेब का वह रूप सामने न होता जो इन इतिहासकारों ने प्रस्तुत किया है.
इस फरमान के सम्बन्ध में 1905 ई. से पूर्व किसी भी इतिहासकार को कोई जानकारी न थी। उस समय तक वह काशी के मंगलागौरी मुहल्ले के एक ब्राह्म्ण परिवार में दबा पडा था। उस वर्ष किसी पारिवारिक विवाद के प्रसंग में गोपी उपाद्ध्याय के दैहित्र मंगल पान्डेय ने इस फरमान को सिटी मजिस्ट्रेट की अदालत में उपस्थित किया.
इस फरमान के अनुसार “हमारी व्यक्तिगत एवं स्वाभाविक सद्भावनाएँ समग्र रूप से ऐसी दिशा में झुकी हुई हैं कि जिससे जनता की भलाई और देश में रहने वालों का सुधार हो, तथा हमारे धर्म में ऐसा निश्चित है, कि मन्दिर कतई न तोडे जाएँ और नए मन्दिर न बनवाए जाएँ। हमारे न्यायपूर्ण राज्य में यह सूचना मिली है कि कुछ लोग बनारस के रहने वाले हिन्दुओं पर और उनके पास रहने वालों पर, वहाँ के रहने वाले ब्राह्म्णों पर, जो कि मन्दिरों का इंतज़ाम करते रहे हैं, हस्तक्षेप कर अत्याचार कर रहे हैं, और चाहते हैं कि वहाँ का प्रबन्ध जो चिर्काल से उनके हाथ में है, छिन लें। इस कारण वे लोग बहुत परेशान और बेहाल हैं। अत: यह सन्देश भेजा जाता है कि इस फरमान के पहुँचने के साथ ही दृढता के साथ यह घोषित कर दिया जाए कि कोई भी व्यक्ति किसी भी कारण इन ब्राहम्णों और इस स्थान के रहने वाले अन्य हिन्दुओं को बिलकुल न छेडें और न उन्हें परेशान करें। इस आदेश को आवश्यक और गम्भीर समझा जाए.“
   

 इस फरमान में ऐसा कुछ भी नहीं है जिसे यदुनाथ सरकार की शब्दावली में “छद्म रूप से हिन्दू धर्म पर आक्रमण” की संज्ञा दी जा सके। वरन इस फरमान से इसके विपरीत, यह ज्ञात होता है कि हिन्दुओं और ब्राहम्णों के धार्मिक मामलों, मन्दिरों के प्रबन्ध में कुछ लोग अनुचित हस्तक्षेप कर रहे थे और उन्हें तंग कर रहे थे। हो सकता है, कि मन्दिरों को तोडे जाने की भी बात की जा रही हो। इन सबकी शिकायत जब औरंगज़ेब के पास पहुँची तो उसने यह फरमान जारी कर उसकी आवश्यकता और गम्भीरता पर जोर देते हुए दुष्टता करने वालों को कडी चेतावनी दी। स्पष्ट रूप से कहा गया कि सम्राट के धर्म अर्थात इस्लाम में यह आदेश है कि मन्दिर कतई न तोडे जाएं और नये मन्दिर न बनवाए जाएं.
 इन सब तथ्यों के परिप्रेक्ष्य में स्वभाविक रूप से यह प्रशन उभरता है कि यदि औरंग्ज़ेब का वस्तुत: इस कथन में विशवास था कि मन्दिर न तोडे जाएं तो फिर क्यों उसी के शासनकाल में और उसी के आदेश से ज्ञानवापीवाला विश्वनाथ मन्दिर तोडा गया? इस सम्बन्ध में हम पाठकों का ध्यान पट्टाभि सीतारामैया की पुस्तक “फैदर्स एंड स्टोंस” की और आकृष्ट करना चाहेंगे.
उन्होंने इस ग्र्ंथ में लिखा है कि लखनऊ के किसी प्रतिष्ठित मुसलमान सज्जन (नाम/नहीं दिया है) के पास कोई हस्तलिखित ग्रंथ था जिसमें इस घटना पर प्रकाश डाला गया है। सीतारामैया का कहना है कि इस ग्रंथ का समुचित परीक्षण किए जा सकने के पूर्व उक्त सज्जन का निधन हो गया और वह ग्रंथ प्रकाश में न आ सका। उस ग्रंथ में इस घटना के सम्बन्ध में जो कुछ कहा गया था उसका सीतारामैया ने अपनी पुस्तक में उल्लेख किया है, उनके कथनानुसार घटना इस प्रकार है:
“तत्कालीन शाही परम्परा के अनुसार, मुगल सम्राट किसी यात्रा पर निकलते थे तो उनके साथ राज सामंतों की काफी बडी संख्या चलती थी और उनके साथ उन सबका अंत:पुर भी चलता था। कहना ना होगा, मुगल दरबार में हिन्दू सामंतों की संख्या काफी बडी थी। उक्त ग्रंथ के अनुसार, एक बार औरंगज़ेब बनारस के निकट के प्रदेश से गुजर रहे थे, ऐसे अवसर पर भला कौन हिन्दू होता जो दिल्ली जैसे दूर प्रदेश से आकर गंगा स्नान और विश्वनाथ दर्शन किए बिना चला जाता.
विशेष रूप से स्त्रियाँ, अत: प्राय: सभी हिन्दू दरबारी अपने परीवार के साथ गंगा स्नान करने और विश्वनाथ दर्शन के लिए काशी आए, विश्वनाथ दर्शन करके जब लोग बाहर आए तो ज्ञात हुआ कि उनके दल की एक रानी गायब है, इस रानी के बारे में कहा जाता है कि वह कच्छ् की रानी थी, लोगों ने उन्हें मन्दिर के भीतर जाते देखा था पर मन्दिर से बाहर आते वह किसी को नहीं दिखीं.
 लोग इस निष्कर्ष पर पहुँचे कि वह मन्दिर के भीतर ही कहीं रह गई हैं, काफी छानबीन की गई पर उनका पता न चला। जब अधिक कडाई और सतर्क्ता से खोज की गई तो मन्दिर के नीचे एक दुमंज़िले तहखाने का पता चला जिसका द्वार बाहर से बन्द था, उस द्वार को तोडकर जब लोग अन्दर घुसे तो उन्हें वस्त्राभूषण विहीन, भय से त्रस्त रानी दिखाई पड़ी.
जब औरंगज़ेब को पंडों की यह काली करतूत ज्ञात हुई तो वह बहुत कुद्ध हुआ और बोला- जहाँ मन्दिर के गर्भ-ग्रह के नीचे इस प्रकार की डकैती और बलात्कार हों तो वह निस्सन्देह ईश्वर का घर नहीं हो सकता, और उसने उसे तुरंत गिराने का आदेश दे दिया, आदेश का तत्काल पालन हुआ, जब उक्त रानी को सम्राट के इस आदेश और उसके परिणाम की खबर मिली तो वह अत्यंत दुखी हुई और उसने सम्राट को कहला भेजा कि इसमें मन्दिर का क्या दोष, दुष्ट तो पान्डे हैं, उसने यह भी हार्दिक इच्छा प्रकट की कि उसका फिर से निर्माण करा दिया जाए, औरंगज़ेब के अपने धार्मिक विश्वास के कारण, जिसका उल्लेख उसने बडी स्पष्टता से अपने “बनारस फरमान” में किया है, उसके लिए नया मन्दिर बनवाना असम्भव था, अत: उसने मन्दिर के स्थान पर मस्जिद खडी कर रानी की इच्छा पूरी कर दी.
यह घटना कितनी एतिहासिक है, यह कहने के लिए सम्प्रित कोई साधन नहीं है किंतु इस प्रकार की घटनाएँ प्राय: मन्दिरों में घटती रही है, यह सर्वविदित है, यदि ऐसी कोई घटना औरंगज़ेब के समय में घटी हो तो कोई आश्चर्य नहीं, यदि एसी घटना वस्तुत: घटी थी तो औरंगज़ेब स्दृश मुसलमान नरेश ही नहीं, कोई भी न्यायप्रिय शासक यही करता, यदि औरंगज़ेब के परिप्रेक्ष्य में विश्वनाथ मन्दिर गिराया गया था तो उसके लिए औरंगज़ेब पर किसी प्रकार का कोई आरोप नहीं लगाया जा सकता...

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