Monday, 27 January 2020

इंकलाब ज़िंदाबाद से लेकर आज तक जो किया सरकार ने, उसी पर एक नज़र...?

"एस एम फ़रीद भारतीय"
दोस्तों इस लेख में हम मशहूर क्रांतिकारी शायर मरहूम हसरत मोहानी साहब की उन ग़ज़लों और अश्हार से कर रहे है जो मौलाना हसरत ने अंग्रेजी हुकुमत के ख़िलाफ़ लिखते हुए इंकलाब को जन्म दिया था, जब भी इंकलाब ज़िंदाबाद कहा जाता है तब तब ज़हन में एक ही नाम गूंजता है और वो है आज़ादी के लिए शहीद होने वाले सरदार भगत सिंह का, जिन्होने इन नारे को बुलंद करते हुए अपने साथियों के साथ हंसते हंसते फांसी के फंदे को चूम लिया.

शिकवए-ग़म तेरे हुज़ूर किया
हमने बेशक बड़ा क़ुसूर किया

दर्दे-दिल को तेरी तमन्ना ने
ख़ूब सरमायाए-सरूर किया

नाज़े-ख़ूबाँ ने आ़शिक़ों के सिवा
आ़रिफ़ों को भी नासबूर किया

यह भी इक छेड़ है कि क़ुदरत ने
तुमको ख़ुद-बीं हमें ग़यूर किया

नूरे-अर्ज़ो-समा को नाज़ है यह
कि तेरी शक्ल में ज़हूर किया

आपने क्या किया कि 'हसरत' से-
न मिले, हुस्न का ग़रूर किया!

आज काले कानून की शिकायत करना ही जुर्म हो गया, कहते थे मैं चौकीदार हुँ देश का मगर आज लगता है सब फ़िज़ूल था, ये तो अपने को बादशाह समझ बैठे, क्यूंकि इंसान को या तो उसकी बोली या फिर उसके काम से पहचाना जाता है, उपर हसरत मोहानी की ये ग़ज़ल इसी तरफ़ इशारा कर रही है, इंकलाब ज़िंदाबाद के नारों को बुलंद करने वालों की बात सरकार सुनने के बजाऐ उनको कठघरे में खड़ा करने के लिए तरहां तरहां के दांव पेच आज़मा रही है, इस ग़ज़ल में पूरी घटना का ज़िक्र कुछ शब्दों में ब्यां किया गया है.
सियहकार थे बासफ़ा हो गए हम,
तेरे इश्क़ में क्या से क्या हो गए हम,,

न जाना कि शौक़ और भड़केगा मेरा,
वो समझे कि उससे जुदा हो गए हम,,

उन्हें रंज अब क्यों हुआ? हम तो ख़ुश हैं,
कि मरकर शहीदे-वफ़ा हो गए हम,,

तेरी फ़िक्र का मुब्तला हो गया दिल,
मगर क़ैदे-ग़म से रिहा हो गए हम...

इस ग़ज़ल की नज़र से आज की मौजूदा सरकार को अगर देखा जाये तो लगता है ये ग़ज़ल आज ही के दौर पर अभी ताज़ा लिखी गई है, सरकार जिस तरहां से चुनकर आई, जो वादे उसने जनता से किये सब के सब काफ़ूर हो गये हैं, बचा है बस इक घमंड जो जनता के सामने पेश किया जा रहा है, सरकार अपनी नाकामियों को भी अपने अंध भक्तों के सामने कामयाबी की शक्ल देकर पेश करने की कोशिश कर देश को गुमराह कर रही है.
ख़ू समझ में नहीं आती तेरे दीवानों की,
जिनको दामन की ख़बर है न गिरेबानों की,,

आँख वाले तेरी सूरत पे मिटे जाते हैं,
शम‍अ़-महफ़िल की तरफ़ भीड़ है परवानों की,,

राज़े-ग़म से हमें आगाह किया ख़ूब किया,
कुछ निहायत ही नहीं आपके अहसानों की,,

आशिक़ों ही का जिगर है कि हैं ख़ुरसंदे-ज़फ़ा,
काफ़िरों की है ये हिम्मत न मुसलमानों की,,

याद फिर ताज़ा हुई हाल से तेरे 'हसरत',
क़ैसो-फ़रहाद के भूले हुए अफ़सानों की...!

सच ही कहा है मौलाना हसरत मरहूम ने आज जो दौर चल रहा है बिल्कुल ऐसा ही है जैसा इस ग़ज़ल के अल्फ़ाज़ों की माला बनाकर पेश किया गया है, इस दौर से बाहर आने के लिए लगता है फिर से देश को कुर्बानी देनी पड़ेंगी, हसरत मोहानी साहब की सोच कितनी दूरअंदेशी वाली थी इस ग़ज़ल को पढ़कर समझा जा सकता है.
और भी हो गए बेग़ाना वो गफ़लत करके,
आज़माया जो उन्हें तर्के-मुहब्बत करके,,

दिल ने छोड़ा है न छोड़े तेरे मिलने का ख़याल,
बारहा देख लिया हमने मलामत करके,,

रुह ने पाई है तकलीफ़े-जुदाई से निजात,
आपकी याद को सरमाया-ए-राहत करके,,

छेड़ से अब वो ये कहते हैं कि सँभलो 'हसरत',
सब्रो-ताबे-दिल-बीमार को ग़ारत करके...!

इस ग़ज़ल के अल्फ़ाज़ भी आज की मौजूदा सरकार पर बिल्कुल इसी तरहां फ़िट बैठते हैं जैसे ऊपर लिखी ग़ज़लों के अल्फ़ाज़ों में ब्यां किया गया है, सरकार आज देश को अपना बनाकर बेगानों की तरहां बर्ताव कर रही है, आज देश चंद रसूख़दारों के सामने सिर झुकाए खड़ा है.
आप को आता रहा मेरे सताने का ख़याल...?
सुलह से अच्छी रही मुझको लड़ाई आप की...!

ये दो लाईन बहुत कुछ ब्यां करती हैं ख़ासकर एक मज़हब के लोगों की तरफ़ जो आज सरकार की नीति बन चुकी है, मगर हम भी घबराने वालों में से नहीं हैं.
अब बात इंक़लाब ज़िंदाबाद के नारे की भगत सिंह ने इंकलाब जिंदाबाद का नारा दिया था ऐसा सभी लोगों के ज़हन में है, क्यूंकि इंकलाब जिंदाबाद नारे का अर्थ 'क्रांति अमर रहे' या 'Long Live Revolution', ये नारा आज भी लोगों की जुबान पर रहता है, सरदार भगत सिंह, सुखदेव, राजगुरू जैसे कई क्रांतिकारियों ने आजादी के लिए अपनी जान दे दी थी, आजादी की उस लड़ाई में सिर्फ इसी एक नारे ने पूरे देश को बांध कर रखा था, आज वही नारा देश की अपनी चुनी हुई सरकार के विरूद्ध जब बोला जाता है तब अफ़सोस तो होता है मगर दिल में हक़ की लड़ाई के लिए एक जोश पैदा हो जाता है.

ऐसे बिगड़े कि फिर जफ़ा भी न की...?
दुश्मनी का भी हक़ अदा न हुआ...!

असल में इंक़लाब ज़िन्दाबाद हिन्दुस्तानी भाषा का नारा है, जिसका अर्थ है 'क्रांति की जय हो', इस नारे को सरदार भगत सिंह और उनके क्रांतिकारी साथियों ने दिल्ली की असेंबली में 8 अप्रैल 1929 को एक आवाज़ी बम फोड़ते वक़्त बुलंद किया था, यह नारा मशहूर शायर हसरत मोहानी ने एक जलसे में, आज़ादी-ए-कामिल (पूर्ण आज़ादी) की बात करते हुए दिया था, और इस नारे ने हिन्दुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोसिएशन की गतिविधियों को और विशेष रूप से अशफ़ाक़ उल्लाह ख़ाँ, भगत सिंह और चंद्रशेखर आज़ाद को प्रेरित किया.
आरज़ू तेरी बरक़रार रहे सरकार...?
दिल का क्या है, रहा रहा न रहा...!

हिंदुस्तानी इस नारे को 'Inqilab Zindabad' का नाम दिया, ये नाम दिया मशहूर उर्दू शायर मौलाना हसरत मोहनी ने, जो एक क्रांतिकारी साहित्यकार, शायर, पत्रकार, इस्लामी विद्वान और समाजसेवक थे. उर्दू भाषा के कवि "हसरत मोहानी" ही इस नारे के असली जन्मदाता हैं यह नारा उन्ही की कलम द्वारा वर्ष 1921 में लिखा गया था, नीचे भी कुछ अश्हार और ग़ज़ल आपके सामने पेश कर लेख को यहीं पूरा करता हुँ, बस ये कहते हुए अपने अल्फ़ाज़ो में सरकार से,
"कोई हसरत बाकी ना रहे सब आज़मा लेना सरकार,
हम ने सर पे कफ़न बांध लिया मुल्क की आन की ख़ातिर".

ऐसे बिगड़े कि फिर जफ़ा भी न की...?
दुश्मनी का भी हक़ अदा न हुआ...!

स्वतंत्रता आंदोलन के तारीख़ वार भारतीय राजनीतिक उपन्यासों में, स्वतंत्रता समर्थक भावना अक्सर इस नारे को लगाने वाले पात्रों की विशेषता है, सरदार भगत सिंह व साथी अन्य क्रांतिकारी अपनी आखरी सांस तक इंक़लाब ज़िंदाबाद का नारा लगाते रहे.
छुप नहीं सकती छुपाने से मोहब्बत की नज़र...?
पड़ ही जाती है रुख़-ए-यार पे हसरत की नज़र...!
#अदनानसामी

वो जब ये कहते हैं तुझ से ख़ता ज़रूर हुई
मैं बे-क़सूर भी कह दूँ कि हाँ ज़रूर हुई

नज़र को ताबे-तमाशाए-हुस्ने यार कहाँ
ये इस ग़रीब को तम्बीहे-बेक़सूर हुई

तुफ़ैले-इश्क है 'हसरत' ये सब मेरे नज़दीक
तेरे कमाल की शोहरत जो दूर-दूर हुई...!

जय हिंद जय भारत

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