Saturday, 17 April 2021

मदरसों को आतंकवाद का अड्डा क्यूं कहा जा रहा है...?

"एस एम फ़रीद भारतीय"
आज के मौजूदा हालात को समझने के लिए हमको मदरसा दारुल उलूम देवबंद को समझना होगा, जिसकी स्थापना 1857 की क्रांति सन्दर्भ में हुई, इस क्रान्ति की वजह अंग्रेजों के ज़रिये पीठ पीछे वार करके मुल्क से मुगल मुस्लिम शासक को हटा देना और अनेकों मुस्लिम संगठनों को या तो बन्द कर देना या दिशाहीन कर देना था, ऐसे में देवबंद में दारुल उलूम की स्थापना हुई जिसका लक्ष्य भारत के मज़लूम और मुसलमानों को धार्मिक शिक्षा प्रदान करना है, इस संस्था को विश्व-भर के मुस्लिम शिक्षा संस्थाओं को विशेष स्थान प्राप्त हुआ.

देवबंद हमेशा ही निशाने पर रहा है, सरकार कोई भी रही हो, सबका निशाना हमेशा ही देवबंद रहा है, बेशक मौजूदा सरकार खुलकर कुछ ना बोले मगर हालात को देखकर समझ सकते हो निशाना कौन बना रहा है और निशाना बनवाने मैं मददगार कैन है, पहले जान लें कि इस्लामी दुनिया में दारुल उलूम देवबंद का एक विशेष स्थान है जिसने पूरे क्षेत्र को ही नहीं, पूरी दुनियां के मुसलमानों को प्रभावित किया है, दारुल उलूम देवबंद केवल इस्लामी विश्वविद्यालय ही नहीं एक विचारधारा है, जो अंधविश्वास, कूरीतियों व अडम्बरों के विरूद्ध इस्लाम को अपने मूल और शुद्ध रूप में प्रसारित करता है, इसलिए मुसलमानों में इस विचाधारा से प्रभावित मुसलमानों को "देवबन्दी" कहा जाता है.

आपको बता दे कि देवबंद उत्तर प्रदेश के महत्वपूर्ण नगरों में गिना जाता है जो आबादी के लिहाज़ से आज देवबंद शहर की 1.6 लाख की आबादी में 65 प्रतिशत मुसलमान हैं और बाक़ी हिंदू, हिंदू और मुसलमानों के मोहल्ले अलग-अलग ज़रूर हैं लेकिन दोनों समुदायों के लोग एकता की बातें करते हैं, कुछ ज़्यादा आबादी का एक छोटा सा नगर है, लेकिन दारुल उलूम ने इस नगर को बड़े-बड़े नगरों से भारी व सम्मानजनक बना दिया है, जो न केवल अपने गर्भ में ऐतिहासिक पृष्ठभूमि रखता है, अपितु आज भी साम्प्रदायिक सौहार्द, धर्मनिरपेक्षता एवं देशप्रेम का एक विशिष्ट नमूना प्रस्तुत करता है, यही वजह है यहां हमेशा भाजपा या उम्मीदवार विधायक रहा है, बेशक उसने काम कुछ भी ना किया हो.

देवबंद का एक चक्कर लगाने के बाद महसूस होता है कि इसे विकास की सख़्त ज़रूरत है, इसकी अधिकतर सड़कें टूटी हुई हैं, इसकी तंग गलियां कूड़े और गंदगी से भरी हैं, ऐसा लगता है कि नगरपालिका काम नहीं करती, कहने को देवबंद काफ़ी पुराना शहर है, ये मुग़लों से भी पहले दिल्ली सल्तनत की सरहदों के दायरे में आता था, उससे पहले यहाँ जंगल था, शहर अब भी पुराना नज़र आता है, यहाँ पोस्ट ऑफिस है, रेलवे स्टेशन है, बैंक हैं और बाज़ार भी, लेकिन ऐसा लगता है आधुनिकता से ये शहर आज भी बहुत दूर है.

देवबंद वासियों से ये पूछे जाने पर कि शहर का अब तक विकास क्यों नहीं हुआ, एक स्थानीय निवासी ने कहा, ये एक टाउन है, एक छोटे शहर का जितना विकास होना चाहिए था उतना हुआ, मैं संतुष्ट हूँ, लेकिन शहर का बुनियादी ढांचा कमज़ोर है, यहाँ कोई बड़ी दुकान या शॉपिंग मॉल नहीं हैं, गंदे पानी की निकासी का भी कोई इंतज़ाम नहीं, शहर में तीन सिनेमा हॉल हैं और ये तीनों आज बंद पड़े हैं, ढाबे तो हैं लेकिन कैफ़े और रेस्टोरेंट नहीं हैं.

देवबंद मैं मुज़फ्फरनगर-सहारनपुर हाईवे पर एक फ्लाईओवर बन रहा है जिसके कारण सड़क पर ट्रैफिक जाम एक आम बात हो गई है, आसमान पर मिट्टी और धूल की चादर सी हमेशा ही बिछी रहती है, मगर इस हाल मैं भी यहां के लोग भाईचारे के साथ ख़ुश हैं, ये शहर दिल्ली से 160 किलोमीटर दूर है, इसमें हिंदू-मुस्लिम अलग-अलग पॉकेट (मौहल्लों) में आबाद है, दारुल उलूम से सटी एक तंग आबादी वाली मुस्लिम बस्ती के कहते हैं कि शहर की तरफ ना तो सरकार ने कभी ध्यान दिया है और ना ही यहाँ से चुने गए विधायकों ने.

आज देवबंद इस्लामी शिक्षा व दर्शन के प्रचार के व प्रसार के लिए संपूर्ण संसार में प्रसिद्ध है, भारतीय संस्कृति व इस्लामी शिक्षा एवं संस्कृति में जो समन्वय आज हिन्दुस्तान में देखने को मिलता है उसका सीधा-साधा श्रेय देवबंद दारुल उलूम को जाता है, यह मदरसा मुख्य रूप से उच्च अरबी व इस्लामी शिक्षा का केंद्र बिन्दु है, दारुल उलूम ने न केवल इस्लामिक शोध व साहित्य के संबंध में विशेष भूमिका निभाई है, बल्कि भारतीय समाज व पर्यावरण में इस्लामिक सोच व संस्कृति को नवीन आयाम तथा अनुकूलन दिया है.

दारुल उलूम देवबंद की आधारशिला 30 मई 1866 में हाजी आबिद हुसैन व मौलाना क़ासिम नानौतवी द्वारा रखी गयी थी, वह समय भारत के इतिहास में राजनैतिक उथल-पुथल व तनाव का समय था, उस समय अंग्रेज़ों के विरूद्ध लड़े गये प्रथम स्वतंत्रता संग्राम (1857 ई.) की असफलता के बादल छंट भी न पाये थे और अंग्रेजों का भारतीयों के प्रति दमन चक्र तेज़ कर दिया गया था, चारों ओर हा-हा-कार मची थी, अंग्रेजों ने अपनी संपूर्ण शक्ति से स्वतंत्रता आंदोलन (1857) को कुचल कर रख दिया था, अधिकांश आंदोलनकारी शहीद कर दिये गये थे, (देवबंद जैसी छोटी बस्ती में 44 लोगों को फांसी पर लटका दिया गया था) और शेष को गिरफ्तार कर लिया गया था, ऐसे सुलगते माहौल में देशभक्त और स्वतंत्रता सेनानियों पर निराशाओं के प्रहार होने लगे थे, चारो ओर खलबली मची हुई थी.

तब एक प्रश्न चिन्ह सामने था कि किस प्रकार भारत के बिखरे हुए समुदायों को एकजुट किया जाये, किस प्रकार भारतीय संस्कृति और शिक्षा जो टूटती और बिखरती जा रही थी, की सुरक्षा की जाये, उस समय के नेतृत्व में यह अहसास जागा कि भारतीय जीर्ण व खंडित समाज उस समय तक विशाल एवं ज़ालिम ब्रिटिश साम्राज्य के मुक़ाबले नहीं टिक सकता, जब तक सभी वर्गों, धर्मों व समुदायों के लोगों को देश प्रेम और देशभक्त के जल में स्नान कराकर एक सूत्र में न पिरो दिया जाये, इस कार्य के लिए न केवल कुशल व देशभक्त नेतृत्व की आवश्यकता थी, बल्कि उन लोगों व संस्थाओं की आवश्यकता थी जो धर्म व जाति से ऊपर उठकर देश के लिए बलिदान कर सकें.

इन्हीं उद्देश्यों की पूर्ति के लिए जिन महान स्वतंत्रता सेनानियों व संस्थानों ने धर्मनिरपेक्षता व देशभक्ति का पाठ पढ़ाया उनमें दारुल उलूम देवबंद के कार्यों व सेवाओं को भुलाया नहीं जा सकता, स्वर्गीये मौलाना महमूद अल-हसन (विख्यात अध्यापक व संरक्षक दारुल उलूम देवबंद) उन सैनानियों में से एक थे जिनके क़लम, ज्ञान, आचार व व्यवहार से एक बड़ा समुदाय प्रभावित था, इन्हीं विशेषताओं के कारण इन्हें शेखुल हिन्द (भारतीय विद्वान) की उपाधि से विभूषित किया गया था.

उन्होंने न केवल भारत में वरन विदेशों (अफ़गानिस्तान , ईरान, तुर्की, सऊदी अरब व मिश्र ) में जाकर भारत व ब्रिटिश साम्राज्य की भत्र्सना की और भारतीयों पर हो रहे अत्याचारों के विरूद्ध जी खोलकर अंग्रेज़ी शासक वर्ग की मुख़ालिफ़त की, बल्कि शेखुल हिन्द ने अफ़ग़ानिस्तान व इरान की हकूमतों को भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन के कार्यक्रमों में सहयोग देने के लिए तैयार करने में एक विशेष भूमिका निभाई, उदाहरणतयः यह कि उन्होंने अफ़ग़ानिस्तान व इरान को इस बात पर राज़ी कर लिया कि यदि तुर्की की सेना भारत में ब्रिटिश साम्राज्य के विरूद्ध लड़ने पर तैयार हो तो ज़मीन के रास्ते तुर्की की सेना को आक्रमण के लिए आने देंगे.

शेखुल हिन्द ने अपने सुप्रीम शिष्यों व प्रभावित व्यक्तियों के मध्यम से अंग्रेज़ के विरूद्ध प्रचार आरंभ किया और हजारों मुस्लिम आंदोलनकारियों को ब्रिटिश साम्राज्य के विरूद्ध चल रहे राष्ट्रीय आंदोलन में शामिल कर दिया, इनके प्रमुख शिष्य मौलाना हुसैन अहमद मदनी, मौलाना उबैदुल्ला सिंधी थे जो जीवन पर्यन्त अपने गुरू की शिक्षाओं पर चलते रहे और अपने देशप्रेमी भावनाओं व नीतियों के कारण ही भारत के मुसलमान स्वतंत्रता सेनानियों व आंदोलनकारियों में एक भारी स्तम्भ के रूप में जाने जाते हैं.

सन 1914 ई. में मौलाना उबैदुल्ला सिंधी ने अफ़गानिस्तान जाकर अंग्रेज़ों के विरूद्ध अभियान चलाया और काबुल में रहते हुए भारत की सर्वप्रथम स्वंतत्र सरकार स्थापित की जिसका राष्ट्रपति राजा महेन्द्र प्रताप को बना गया, यहीं पर रहकर उन्होंने इंडियन नेशनल कांग्रेस की एक शाख क़ायम की जो बाद में (1922 ई. में) मूल कांग्रेस संगठन इंडियन नेशनल कांग्रेस में विलय कर दी गयी, शेखुल हिन्द 1915 ई. में हिजाज़ (सऊदी अरब का पहला नाम था) चले गये, उन्होने वहां रहते हुए अपने साथियों द्वारा तुर्की से संपर्क बना कर सैनिक सहायता की मांग की.

सन 1916 ई. में इसी संबंध में शेखुल हिन्द इस्तानबुल जाना चहते थे, मदीने में उस समय तुर्की का गवर्नर ग़ालिब पाशा तैनात था उसने शेखुल हिन्द को इस्तामबूल के बजाये तुर्की जाने की लिए कहा परन्तु उसी समय तुर्की के युद्धमंत्री अनवर पाशा हिजाज़ पहुंच गये, शेखुल हिन्द ने उनसे मुलाक़ात की और अपने आंदोलन के बारे में बताया, अनवर पाशा ने भातियों के प्रति सहानुभूति प्रकट की और अंग्रेज साम्राज्य के विरूद्ध युद्ध करने की एक गुप्त योजना तैयार की.

हिजाज़ से यह गुप्त योजना, गुप्त रूप से शेखुल हिन्द ने अपने शिष्य मौलाना उबैदुल्ला सिंधी को अफगानिस्तान भेजा, मौलाना सिंधी ने इसका उत्तर एक रेशमी रूमाल पर लिखकर भेजा, इसी प्रकार रूमालों पर पत्र व्यवहार चलता रहा, यह गुप्त सिलसिला ”तहरीक ए रेशमी रूमाल“ के नाम से इतिहास में प्रसिद्ध है, इसके सम्बंध में सर रोलेट ने लिखा है कि “ब्रिटिश सरकार इन गतिविधियों पर हक्का बक्का थी“.

सन 1916 ई. में अंग्रेज़ों ने किसी प्रकार शेखुल हिन्द को मदीने में गिरफ्तार कर लिया, हिजाज़ से उन्हें मिश्र लाया गया और फिर रोम सागर के एक टापू मालटा में उनके साथयों मौलाना हुसैन अहमद मदनी, मौलाना उज़ैर गुल हकीम नुसरत , मौलाना वहीद अहमद सहित जेल में डाल दिया था, इन सबको चार वर्ष की बा मुशक्कत सजा दी गयी, सन 1920 में इन महान सैनानियों की रिहाई हुई.

शेखुल हिन्द की अंग्रेजों के विरूद्ध रेशमी पत्र आन्दोलन (तहरीके-रेशमी रूमाल), मौलाना मदनी की सन 1936 से सन 1945 तक जेल यात्रा, मौलाना उजै़रगुल, हकीम नुसरत, मौलाना वहीद अहमद का माल्टा जेल की पीड़ा झेलना, मौलाना सिंधी की सेवायें इस तथ्य का स्पष्ट प्रमाण हैं कि दारुल उलूम ने स्वतंत्रता संग्राम में मुख्य भूमिका निभाई है, इस संस्था ने ऐसे अनमोल रत्न पैदा किये जिन्होंने अपनी मात्र भूमि को स्वतंत्र कराने के लिए अपने प्राणों को दांव पर लगा दिया.

ए. डब्ल्यू मायर सियर पुलिस अधीक्षक (सीआई़डी राजनैतिक) पंजाब ने अपनी रिपोर्ट नं. 122 में लिखा था जो आज भी इंडिया आफिस लंदन में सुरक्षित है कि ”मौलाना महमूद हसन (शेखुल हिन्द) जिन्हें रेशमी रूमाल पर पत्र लिखे गये, सन 1915 ई. को हिजरत करके हिजाज़ चले गये थे, रेशमी ख़तूत की साजिश में जो मौलवी सम्मिलित हैं, वह लगभग सभी देवबन्द स्कूल से संबंधित हैं.

गुलाम रसूल मेहर ने अपनी पुस्तक ”सरगुज़स्त ए मुजाहिदीन“ (उर्दू) के पृष्ठ नं. 552 पर लिखा है कि ”मेरे अध्ययन और विचार का सारांश यह है कि हज़रत शेखुल हिन्द अपनी जि़न्दगी के प्रारंभ में एक रणनीति का ख़ाका तैयार कर चुके थे और इसे कार्यान्वित करने की कोशिश उन्होंने उस समय आरंभ कर दी थी जब हिन्दुस्तान के अंदर राजनीतिक गतिविधियां केवल नाममात्र थी“.

उड़ीसा के गवर्नर श्री बिशम्भर नाथ पाण्डे ने एक लेख में लिखा है कि दारुल उलूम देवबन्द भारत के स्वतंत्रता संग्राम में केंद्र बिन्दु जैसा ही था, जिसकी शाखायें दिल्ली , दीनापुर, अमरोत, कराची, खेड़ा और चकवाल में स्थापित थी, भारत के बाहर उत्तर पशिमी सीमा पर छोटी सी स्वतंत्र रियासत ”यागि़स्तान “भारत के स्वतंत्रता आंदोलन का केंद्र था, यह आंदोलन केवल मुसलमानों का न था बल्कि पंजाब के सिक्खों व बंगाल की इंकलाबी पार्टी के सदस्यों को भी इसमें शामिल किया था.

इसी प्रकार असंख्यक तथ्य ऐसे हैं जिनसे यह सिद्ध होता है कि दारुल उलूम देवबन्द स्वतंत्रता संग्राम के पश्चात भी देश प्रेम का पाठ पढ़ता रहा है जैसे सन 1947 ई. में भारत को आज़ादी तो मिली, परन्तु साथ-साथ नफरतें आबादियों का स्थानांतरण व बंटवारा जैसे कटु अनुभव का समय भी आया, परन्तु दारुल उलूम की विचारधारा टस से मस न हुई, इसने डट कर इन सबका विरोध किया और इंडियन नेशनल कांग्रेस के संविधान में ही अपना विश्वास व्यक्त कर पाकिस्तान का विरोध किया तथा अपने देशप्रेम व धर्मनिरपेक्षता का उदाहरण दिया, आज भी दारुल उलूम अपने देशप्रेम की विचार धारा के लिए संपूर्ण भारत में प्रसिद्ध है.

दारुल उलूम देवबन्द में पढ़ने वाले विद्यार्थियों को मुफ्त शिक्षा, भोजन, आवास व पुस्तकों की सुविधा दी जाती है, दारुल उलूम देवबन्द ने अपनी स्थापना से आज (हिजरी 1283 से 1433) सन 2021 तक लगभग 99 हजार महान विद्वान, लेखक आदि पैदा किये हैं, दारुल उलूम में इस्लामी दर्शन, अरबी, फारसी, उर्दू की शिक्षा के साथ साथ किताबत (हाथ से लिखने की कला) दर्जी का कार्य व किताबों पर जिल्दबन्दी, उर्दू, अरबी, अंग्रेज़ी, हिन्दी में कम्प्यूटर तथा उर्दू पत्रकारिता का कोर्स भी कराया जाता है, दारुल उलूम में प्रवेश के लिए लिखित परीक्षा व साक्षात्कार से गुज़रना पड़ता है, प्रवेश के बाद शिक्षा मुफ्त दी जाती है, दारुल उलूम देवबन्द ने अपने दार्शन व विचारधारा से मुसलमानों में एक नई चेतना पैदा की है जिस कारण देवबन्द स्कूल का प्रभाव भारतीय महादीप पर गहरा है.

मगर एक बात मत भूलना सत्ता के लालची और पूरी दुनिया पर हुकूमत का ख़्वाब देखने वाले ईसाई और यहूदी हमेशा ही गहरी साज़िशें रचते रहे हैं, जहां उनको लगता है कि यहां लड़ाई से काम नहीं चलेगा, वहां ये अपने पैसे और सोने का इस्तेमाल करते हैं, इनको हमेशा ही अपनी हुकूमत के लिए मुस्लिमों से सामना करना पड़ा है, और आज मुस्लमान की ही वजह समझो जो ये पूरी दुनियां पर अपनी हुकूमत के ख़्वाब को पूरा ना कर सके हैं, अब ये सीधे लड़ाई से डरते हैं लिहाज़ा चोर दरवाज़े से चुनी सरकारों को ख़रीदकर अपना ख़्वाब पूरा करना चाहते हैं, इन्हीं की चाल है जो मुस्लिमों को आतंकी और मदरसों को आतंकियों का अड्डा कहा जाता है, मगर ये ज़ोर शोर से प्रचार करने के बाद आज तक साबित नहीं कर पाये, सच के रास्ते से इनको हमेशा ही नफ़रत रही है.

बाकी दूसरे लेख मैं इनकी साज़िशें क्या क्या रही हैं...?
जय हिंद जय भारत


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