Monday 4 July 2022

जज साहब भी भूल गये कैसे मिली थीं वापस शक्तियां...?

कानून ज़रूर बनना चाहिए, सोशल मीडिया ही नहीं टीवी और प्रिंट मीडिया पर भी लगाम कसने को लिए...?
एस एम फ़रीद भारतीय
"सम्पादकीय"
नूपुर शर्मा पर टिप्पणी करने वाले सुप्रीम कोर्ट के जज साहब जेबी पारदीवाला ने सरकार को सलाह दी है कि वो सोशल मीडिया पर लगाम लगाने के लिए कानून बनाए. उन्होंने सोशल मीडिया पर निजी हमलों के बारे में कहा कि आधा सच, अधूरी जानकारी रखने वाले लोग और कानून के शासन, सबूत, न्यायिक प्रक्रिया और सीमाओं को नहीं समझने वाले लोग हावी हो गए. जज जेबी पारदीवाला साहब ने कहा कि सरकार को सोशल मीडिया को रेगुलेट करने पर विचार करना चाहिए, उन्होंने कहा कि संवेदनशील मामलों में सोशल मीडिया द्वारा ट्रायल न्यायिक प्रक्रिया में अनुचित हस्तक्षेप है और संसद को इसके नियमन के लिए कानून लाना चाहिए. 

आगे जज साहब ने कहा कि कोर्ट कंस्ट्रक्टिव आलोचनाओं को स्वीकार करती है, लेकिन जजों पर निजी हमले स्वीकार नहीं हैं, पारदीवाला ने कहा कि भारत पूरी तरह से परिपक्व और शिक्षित लोकतंत्र नहीं है, यहां विचारों को प्रभावित करने के लिए सोशल मीडिया का इस्तेमाल किया जा रहा है, जस्टिस पारदीवाला CAN फाउंडेशन द्वारा आयोजित एचआर खन्ना की याद में हो रही राष्ट्रीय संगोष्ठी में बोल रहे थे.

अपने फैसलों और टिप्पणियों से चर्चा में रहने वाले सुप्रीम कोर्ट के जज जेबी पारदीवाला ने कहा है कि  "लोगों की आवाज भगवान की आवाज है" मुहावरे को गलत तरीके से उद्धृत किया गया है, यह मूल रूप से निराशाजनक तरीके से कहा गया था, इसका मूल उद्धरण चार्ल मैग्ने के समय का है, इस दौरान जज साहब ने कहा कि लोग क्या कहेंगे और लोग क्या सोचेंगे एक ऐसी पहेली है जो हर जज को परेशान करती है.  

जज पारदीवाला साहब ने तो यहां तक कहा कि एक तानाशाही सरकार भी दावा कर सकती है कि वह कानून द्वारा शासन करती है क्योंकि कानून है और उनका पालन किया जाता है, कानून के शासन की बारीकी से जांच की जानी चाहिए. 


बेशक जज साहब ने जो कहा हम उस बात से बिल्कुल सहमत हैं, लेकिन एक सबसे बड़ा सवाल ये है कि क्या ये सबकुछ सोशल मीडिया पर ही हो रहा है, क्या बाकी मीडिया समूह इन सब चीज़ों से पाक साफ़ हैं, क्या अदालत को होते आज भी पुलिस अपनी मनमानी और अदालतें उनकी लगाई धाराओं को सच मानकर काम नहीं कर रही हैं, जबकि कानून कहता है किसी सी गिरफ़्तारी से पहले अदालत को संतुष्ट कर गिरफ़्तारी वारंट लेना चाहिए, मगर आज सिर्फ़ एक रिपोर्ट पर पहले गिरफ़्तार किया जाता है और बाद मैं उसको जांच मैं बे गुनाह साबित कर छोड़ दिया जाता है, मगर टीवी एंकर की नज़र मैं वो अपनी बेगुनाही तक मुलज़िम नहीं मुजरिम रहता है...?
नहीं सोशल मीडिया पर आज भी उस तरहां की बहस नहीं होती जैसी टीवी मैं डिबेट के नाम पर होती है, और उस डिबेट की ख़बरें व्हाटसऐप के ज़रिये एक विशेष समूह तक पहुंचाकर झूंठ को सच किया जाता है, रोज ही हम सुनते और देखते भी हैं कि अदालत मैं किसी भी केस के पहुंचते ही टीवी पर पहले ही अदालत लग जाती है और जिस तरहां से मसाला लगाकर केस की सुनवाई की जाती है वो देश को रोज़ शर्मसार करते है.

चंद चेहरे जो कुछ नहीं हैं बस टीवी के अपने किरदार हैं, जैसे पहले फ़िल्मी किरदार हुआ करते थे आज न्यूज़ स्टूडियो मैं न्यूज़ के किरदार हैं, जो कभी हीरो तो अगले ही पल जीरो भी बन जाते हैं, आज न्यूज़ रूम शूटिंग का स्थल बने हुए हैं, ये किरदार हर मामले के एक्सपर्ट बन मामले पर बहस करते हैं, और टीवी एंकर तो आज जज की भूमिका के साथ मैच रैफ़री का काम भी बाख़ूबी अंजाम दे रहे हैं, सिर्फ़ यहीं नहीं रूकते, शो रूपी मसाले को अधिक मजेदार बनाने के लिए कुछ रिटायर्ड अफ़सरों को भी बिठा लिया जाता है और अगर वो सच को सामने लाने की कोशिश भी करते हैं तब उनको बात करने का मौका नहीं दिया जाता, अगर बात चल रही हो तो तकनीकी ख़राबी पैदा कर उनको रोक दिया जाता, क्यूंकि ऐजेंडा पहले से तय होता है कि इस डिबेट से कैसे एक वर्ग को ये समझाना है कि तुमने जो नेता चुना है या तुम्हारा जो नेता कर रहा है वही सही है, बाकी सब ग़लत और उन डिबेट का प्रसारण व्हाटसऐप ग्रुपों पर उस वर्ग से जुड़े लोगों तब लाइव पहुंचाया जाता है...?

वहीं प्रिंट मीडिया को लिए भी दूसरे दिन की सुबह ख़बर बनाने के लिए हैडिंग भी अब इन्ही डिबेट से तय किये जाते हैं, बेशक हम जज साहब की बातों का समर्थन करते हैं कानून बनना चाहिए और कानून हैं भी, मगर जो कानून हैं उनका पालन किया जा रहा है...? क्या आज देश का कानून एक पार्टी का ग़ुलाम नहीं लग रहा...? क्या आज जो हो रहा है वो सभी पर एक समान कानून की नज़र से हो रहा है...? 

नहीं आज प्रजा तंत्र मैं सरकार के ख़िलाफ़ आवाज़ उठाने वाला देशद्रोही पहले है और बाद मैं राजद्रोही है, कानून और कानून के रखवाले प्रजा की ना सुनकर एक पार्टी के ग़ुलाम हो गये हैं, लोकतंत्र नहीं आज मुल्क मैं मज़ाक चल रहा है वो भी तय शुदा प्लान को साथ, एक विरोध को मुद्दे को दबाने को लिए दूसरा मुद्दा तैयार किया जाता है, जबरन लोगों पर कानून बनाकर थोपे जा रहे हैं और जबरन चंद लोगों की भीड़ को जो सत्ता वालों की अपनी है नये नये एंगल से दिखाकर ये भ्रम पैदा किया जाता है कि सरकार सही है और करोड़ों जनता जो चौराहों पर है वो बेवकूफ़ है.

यहीं ये अदालत की तौहीन ते साथ माननीय जजों की तौहीन का सिलसिला शुरू होता है, निचली अदालतों को सैंकड़ों फ़ैसले कानून को ठेंगा दिखा रहे हैं, जिस जबरन हिरासत को कानून के लिए देश मैं आन्दोलन हुआ, अदालतों को हक़ को बहाल करने के लिए देश मैं सबसे बड़ा आंदोलन किया गया, आज उस आंदोलन को ज़ंग लगाया जा रहा है, कानून आज मज़ाक बन गया है.

आज 42 वां संविधान संशोधन काम कर रहा है, अदालत की तमाम शक्तियां छीन ली गई लगती हैं, याद ही होना चाहिए कि 42वां संशोधन, जिसे आधिकारिक तौर पर संविधान (बयालीसवां संशोधन) अधिनियम, 1976 के रूप में जाना जाता है, को आपातकाल (25 जून 1975 - 21 मार्च 1977) के दौरान इंदिरा गांधी के नेतृत्व वाली भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस सरकार द्वारा अधिनियमित किया गया था.


संशोधन के अधिकांश प्रावधान 3 जनवरी 1977 को लागू हुए, अन्य 1 फरवरी से लागू हुए और धारा 27 1 अप्रैल 1977 को लागू हुई। 42वें संशोधन को इतिहास का सबसे विवादास्पद संवैधानिक संशोधन माना जाता है, इसने कानूनों की संवैधानिक वैधता पर निर्णय लेने के लिए सर्वोच्च न्यायालय और उच्च न्यायालयों की शक्ति को कम करने का प्रयास किया। इसने राष्ट्र के प्रति भारतीय नागरिकों के मौलिक कर्तव्यों को निर्धारित किया, इस संशोधन ने अपने इतिहास में संविधान में सबसे व्यापक परिवर्तन लाए.

तब इस संशोधन ने संसद को न्यायिक समीक्षा के बिना संविधान के किसी भी हिस्से में संशोधन करने की अनर्गल शक्ति प्रदान की। इसने भारत की संघीय संरचना को नष्ट करते हुए, राज्य सरकारों से केंद्र सरकार को अधिक शक्ति हस्तांतरित की, 42वें संशोधन ने प्रस्तावना में भी संशोधन किया और भारत के विवरण को "संप्रभु लोकतांत्रिक गणराज्य" से "संप्रभु, समाजवादी धर्मनिरपेक्ष लोकतांत्रिक गणराज्य" में बदल दिया, और "राष्ट्र की एकता" शब्दों को "राष्ट्र की एकता और अखंडता" में भी बदल दिया.

42वां संविधान संशोधन...?
1976 में आपातकाल के दौरान हुए इस संशोधन ने न्यायपालिका से सभी महत्वपूर्ण शक्तियां छीनकर संसद को दे दी गई। इस संशोधन में किसी भी आधार पर संसद के फैसले को न्यायालय में चुनौति नहीं दी जा सकती थी। साथ ही सांसदों एवं विधायकों की सदस्यता को भी न्यायालय में चुनौती नहीं दी जा सकती थी। किसी विवाद की स्थिति में उनकी सदस्यता पर फैसले लेने का अधिकार संसद की चयन समिति और राष्ट्रपति को दे दिया गया।

तब संसद का कार्यकाल भी पांच वर्षों से बढ़ाकर 6 वर्ष कर दिया गया, साथ ही राष्ट्र के सिद्धांतों को अधिक व्यापक बनाने के लिए संविधान में संशोधन कर समाजवाद, धर्मनिरपेक्षता और अखंडता जैसे शब्दों को जोड़ा गया, राज्य के निति निर्देशक तत्वों को दृढ़ बनाया गया, लेकिन इसकी आड़ में विधायिका को असीमित शक्ति दे दी गई, इसके अलावा संविधान की प्रस्तावना में प्रभुत्व संपन्न लोकतांत्रिक गणराज्य शब्दों के स्थान पर प्रभुत्व संपन्न समाजवादी, धर्मनिरपेक्ष, लोकतंत्रात्मक गणराज्य शब्द और राष्ट्र की एकता शब्दों के स्थान पर राष्ट्र की एकता और अखंडता शब्द स्थापित किए गए, इसके अलावा संविधान में पहली बार पर्यावरण से जुड़ी चिंताओं का जिक्र हुआ ताकि उसका समाधान किया जा सके.

42 वें संविधान के लिए विधेयक (बयालीस वां संशोधन) अधिनियम, 1976 लोकसभा में 1 सितंबर 1976 को संविधान (बयालीस वां संशोधन) विधेयक, 1976 (1976 का विधेयक संख्या 91) के रूप में पेश किया गया था। इसे तत्कालीन कानून, न्याय और कंपनी मामलों के मंत्री एच. आर. गोखले ने पेश किया था, इसने प्रस्तावना और अनुच्छेद 31, 31C, 39, 55, 74, 77, 81, 82, 83, 100, 102, 103, 105, 118, 145, 150, 166, 170, 172, 189, 191 में संशोधन करने की मांग की। 192, 194, 208, 217, 225, 226, 227, 228, 311, 312, 330, 352, 353, 356, 357, 358, 359, 366, 368 और 371F और सातवीं अनुसूची.

इस संशोधन ने अनुच्छेद 103, 150, 192 और 226 को प्रतिस्थापित करने की भी मांग की; और संविधान में नए भाग IVA और XIVA और नए अनुच्छेद 31D, 32A, 39A, 43A, 48A, 51A, 131A, 139A, 144A, 226A, 228A और 257A डालें।[6] 27 अक्टूबर 1976 को लोकसभा में एक भाषण में, गांधी ने दावा किया कि संशोधन लोगों की आकांक्षाओं के प्रति उत्तरदायी है, और वर्तमान समय और भविष्य की वास्तविकताओं को दर्शाता है.

तब लोकसभा में 25 से 30 अक्टूबर और 1 और 2 नवंबर को बिल पर बहस हुई। खण्ड 2 से 4, 6 से 16, 18 से 20, 22 से 28, 31 से 33, 35 से 41, 43 से 50 और 56 से 59 को उनके मूल रूप में अपनाया गया, शेष सभी खंडों को पारित होने से पहले लोकसभा में संशोधित किया गया था.

विधेयक के खंड 1 को लोकसभा द्वारा 1 नवंबर को अपनाया गया था और "चालीस-चौथे" नाम को "चालीस-सेकंड" से बदलने के लिए संशोधित किया गया था, और इसी तरह का संशोधन 28 अक्टूबर को खंड 5 में किया गया था जिसमें एक नया पेश करने की मांग की गई थी संविधान के अनुच्छेद 31D. अन्य सभी खंडों में संशोधन 1 नवंबर को स्वीकार किए गए और विधेयक 2 नवंबर 1976 को लोकसभा द्वारा पारित किया गया। इसके बाद राज्य सभा द्वारा 4, 5, 8, 9, 10 और 11 नवंबर को बहस की गई। लोकसभा द्वारा किए गए सभी संशोधनों को रास द्वारा अपनाया गया था.

तब इसके विरोध मैं भारत के संविधान में एक और संशोधन (आंदोलन के ज़रिये उस वक़्त की इंदिरा सरकार को गिराकर लाया गया जिसे जेपी आंदोलन के नाम से जाना जाता है) किया गया, जो था 43 वां संशोधन, 43वां संविधान संशोधन 1977 मैं इंदिरा जी की एक मज़बूत सरकार को गिराकर लाया गया...?

तब 1977 में मोरारजी देसाई के नेतृत्व में पहली बार गैर कांग्रेसी सरकार बनीं। जनता पार्टी की सरकार ने आते ही संविधान को सुधारने का काम शुरु किया। इसकी जिम्मेदारी तत्कालीन कानून मंत्री शांति भूषण यानि (आज वरिष्ठ अधिवक्ता प्रशांत भूषण को पिता) को दी गई, जनता पार्टी ने सबसे पहले 43वें संशोधन के जरिए सर्वोच्च एवं उच्च न्यायालयों को उनके अधिकार वापस दिलाए, फिर 44वें संविधान संशोधन कर संविधान को मूल अवस्था में ला गया, संविधान को पुन: उसी रुप में लाने के लिए जनता पार्टी को क्रेडिट दिया जाता है.

अब कानून के रखवालों को भी सोचना है कि क्या आज जो भी हो रहा है वो कानूनी है, क्या गिरफ्तारी ते बाद घरों की तोड़ फोड़ और अवैध हिरासत, पुलिस की लगाई धाराओं पर अदालतों का यक़ीन, पुलिस से ज़रिये मुल्ज़िमों की बात ना सुनकर उनको लम्बे समय तक जेलों मैं रखना, मानवाधिकार व अन्य अधिकार आयोगों का चुप रहना क्या ये सब कानून के दायरे मैं हो रहा है, क्या आज छोटी बड़ी अदालते सबूतों की बिना पर फ़ैसला कर रही हैं आदि...?

और हां कोबरा पोस्ट की ख़बर और चेतावनी को क्यूं भूल गये, तब सब कुछ खुलकर बताया गया था कि आने वाला वक़्त हिंदुत्व और धर्म की राजनीति पर होगा, बड़े बड़े चैनल मालिक और पत्रकार इसके लिए तैयार हो चुके हैं, हज़ारों करोड़ रूपया ख़र्च किया जायेगा...??

मैं नहीं भूला सब याद है और ये क्यूं हो रहा है ये सब भी मालूम है, जल्द ही इसपर भी एक लेख.

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