Tuesday 24 January 2012



जब खून से भीगी गरीब की रोटी, इसे पढ़कर आपका दिल फट जाएगा !

उस लड़के की आंखें सुर्ख़ हैं, बाल परेशान और चेहरे पर दहशत के साए हैं। एक दिन पहले वो दूसरी बस्ती से आया है और चढ़ी-चढ़ी आंखों से इधर-उधर देखता है। फिर कहता है, ‘मैंने अपनी आंखों से उसे मरता देखा है, अपनी आंखों से।’ 




उसकी आवाज कांपती है। चंद लम्हों के लिए वो ख़ामोश हो जाता है। फिर कहता है, ‘उसका कोई क़ुसूर नहीं था। वो साइकिल पर जा रहा था। चंद लड़कों ने उसे बीच सड़क पर रोका और उसका शिनाख्ती कार्ड (पहचान पत्र) मांगा। वो हाथ जोड़कर खड़ा हो गया। 


उसकी आंखों में आंसू आ गए। कहने लगा ग़रीब आदमी हूं। रोज़ी-रोटी कमाने आया था, अब वापस जा रहा हूं। उन लोगों ने शिनाख्ती कार्ड वापस किया और जब वो अपना कार्ड जेब में रख रहा था तो उनमें से दो ने पिस्तौल निकाल ली। 


एक ने उसकी ठोड़ी के नीचे नली रखकर लिबलिबी दबा दी’। वो झुरझुरी लेता है और फिर आगे कहता है, ‘दूसरे ने उसके पेट में गोली मार दी। वो गिरा उसकी साइकिल गिरी। कैरियर पर एक थैला था, वो भी गिरा और सड़क पर सारा आटा बिखर गया। वो फैले हुए आटे पर गिरकर तड़पने लगा। फिर मर गया। जी हां, मर गया।’ उसकी आवाज हिस्टीरियार्ड हो जाती है।


वो अपने दोनों हाथ देखने लगता है, जैसे अपने हाथों पर ख़ून के धब्बे ढूंढ रहा हो। उसका सिर झुका हुआ है। फिर वो बड़बड़ाया, ‘मैं उन लोगों के साथ था। मगर आप यक़ीन करें। मैं क़ातिल नहीं हूं। मैंने तो कभी बक़रईद पर बक़रे की गर्दन पर भी छुरी नहीं चलाई।’ फिर ज़ोर-ज़ोर से रोने लगता है।


लड़के की मां बेक़रार होकर उसके उलझे बालों में उंगलियां फेरने लगती है, ‘जब से आया है यही हाल है। रोटी देखते ही उबकाइयां लेने लगता है। कहता है इस पर ख़ून लगा है आप ही इसे समझाइए।’


लेकिन सुनने वाले किसे समझाएं, किसे सुरक्षा दें? उनकी आंखों में वही बच्चे घूम रहे हैं, जो बाप और बाप की साइकिल के कैरियर पर रखे आटे की राह देखते होंगे, उनकी रोटी ख़ून में भीग गई है। 


यह किसी अफ़साने का जिक्र नहीं है। किसी कहानी का हिस्सा नहीं है। ये वाक़या जीता-जागता वाक़या है, जिसका एक किरदार मिट्टी में मिल गया है और जिसके दूसरे किरदार ज़िंदा हैं और ज़िंदा रहने वाले लोगों में इस लड़के के अलावा किसी के जमीर पर कोई बोझ नहीं है, ट्रिगर दबाने वाली किसी उंगली में कोई लरजिश नहीं है। ये वाक़या और इस जैसे दूसरे वाक़ये जो हमारे यहां हो रहे हैं, उनकी बुनियाद क्या है? जो लोग ख़त्म हो गए और जिन्होंने बेगुनाहों को ख़त्म किया, उनके बीच झगड़े की वजह क्या थी।


वो सब इंसान थे। सिंध में आबाद थे। पाकिस्तान के शहरी थे। एक मज़हब को मानने वाले और एक इलाक़े के रहने वाले थे। उनके लिबास भी एक थे और उनके जीने मरने के तरीक़े भी एक-से थे। यही नहीं उनके तो सुख-दुख भी एक-से थे। मरने वाले ग़रीब थे और मारने वाले भी सेठ-साहूकारों के बेटे न थे। तो फिर क्या चीज थी। जो उन्हें एक-दूसरे से अलग करती थी?


बहुत सोच-विचार के बाद यह बात सामने आई। उनके दरमियान फ़र्क़ सिर्फ़ जबान का था। यह नहीं कि उनकी जबान की बनावट, उसके रेशे में गर्दिश करता हुआ ख़ून और उसको हरकत देने वाले हिस्सों में कहीं कोई फ़र्क़ नहीं था। 


नहीं मारने वालों और मरने वालों की जबान की बनावट भी एक-सी थी। उनमें दौड़ने वाला ख़ून भी एक-सा था। फ़र्क़ था तो सिर्फ़ एक बात का, कि उनमें से एक की जबान जब हरकत करती थी तो उसमें से निकलने वाली आवाजें एक अलग बोली से ताल्लुक़ रखती थीं। 


मैं इस फ़र्क़ के बारे में सोचती रही और मेरे सामने बहुत-सी रूहें विलाप करती रहीं। मौत ने उनकी बोलियों का फ़र्क़ मिटा दिया था। ये रूहें बेबसी की जबान में रो रही थीं। ये उनकी रूहें थीं जो नस्ल और बोली के झगड़ों में मारे गए। 


उनका सवाल सही था कि मेरे जीते-जागते बदन का क़ुसूर क्या था? मैंने क्या ख़ता की थी? ये किसी मजदूर, किसी क्लर्क, किसी दुकानदार की रूहें थीं। एक ने कहा कि मैं टीबी से मर रहा था, मुझे तोला भर सीसे से मारने की क्या जरूरत थी। 

दूसरे का कहना था, मेरा बच्च पोलियोजदा है, उसकी दवा कौन लाएगा। तीसरा अपने खेतों को रो रहा था, जिनमें हल चलाने वाला कोई नहीं था। उनका कहना था हमारी मेहनत के ईंधन से हमारे घरों का चूल्हा जलता था और हमारी ही कमाई से हमारे बच्चों का पेट भरता था। 


हमारे मारने वालों को एक पल को भी याद नहीं आया कि हम भी उन जैसे हैं। उन्हीं की तरह ग़रीब, परेशान हाल। हम जो मर गए और जिन्होंने हमें मारा, सब एक ही क़बीले से ताल्लुक़ रखते थे। दोनों का क़बीला भूख का क़बीला था। उनकी और हमारी जबान ग़रीबी की जबान थी। इससे भला क्या फ़र्क़ पड़ता है कि उन्होंने हमसे हमारा नाम पूछा तो हमने उस जबान में जवाब दिया जो वो नहीं बोलते थे।



मैं सिर झुकाए बैठी रही, क्योंकि मेरे पास उनके इन सवालों के जवाब नहीं थे और खोखली दलीलों और झूठी तसल्लियों से उन्हें बहलाने का हौसला मुझमें नहीं था, क्योंकि वो जीते-जागते इंसानों के किसी काम की नहीं, फिर भला रूहों के किस काम की।

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