Wednesday, 28 December 2011
अमेरिका की नजर में अन्ना, आरएसएस, हुर्रियत में कोई फर्क नहीं ?
अमेरिकी खुफिया एजेंसी सीआईए की नजर में अन्ना हजारे और उनका संगठन ‘इंडिया अगेंस्ट करप्शन’ भारत में राजनीतिक दबाव समूह के तौर पर काम कर रहे हैं। ऐसे में अन्ना और आईएसी राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस), बजरंग दल, विश्व हिंदू परिषद और हुर्रियत कांफ्रेंस की श्रेणी में आ गए हैं। सीआईए की ‘वर्ल्ड फैक्टबुक’ में ‘पॉलिटिकल प्रेशर ग्रुप एंड लीडर्स’ कैटेगरी में अन्ना हजारे भी शामिल हो गए हैं।
...सीआईए की इस लिस्ट के मुताबिक कश्मीर घाटी की ऑल इंडिया हुर्रियत कांफ्रेंस (अलगाववादी संगठन), बजरंग दल (धार्मिक संगठन), इंडिया अगेंस्ट करप्शन (अन्ना हजारे), जमीयत उलेमा-ए-हिंद (धार्मिक संगठन), आरएसएस (मोहन भागवत) (धार्मिक संगठन) और विहिप (अशोक सिंघल) (धार्मिक संगठन) ऐसे समूह या लोग हैं जो राजनीतिक तौर पर सरकार पर दबाव बनाते हैं।
...सीआईए के मुताबिक इनके अलावा भारत में कई अन्य धार्मिक संगठन या आतंकी संगठन हैं। कई ऐसे अलगाववादी संगठन भी हैं जो सांप्रदायिक और/या क्षेत्रीय स्वायत्तता की मांग कर रहे हैं। भारत में राज्य या स्थानीय स्तर पर सैकड़ों ऐसे संगठन भी हैं जो सामाजिक सुधार, भ्रष्टाचार विरोधी और पर्यावरण की सुरक्षा में जुटे हैं।
...गौरतलब है कि सीआईए की वेबसाइट पर यह पेज आखिरी बार 20 दिसंबर को अपडेट किया गया है। मजबूत लोकपाल बिल को लेकर अन्ना हजारे 27 दिसंबर से एक बार फिर अनशन पर बैठे हैं।
दिग्विजय ने अन्ना से पूछा, कहां हैं आपके लाखों लोग ?
नई दिल्ली. कांग्रेस महासचिव दिग्विजय सिंह ने बीमारी के बावजूद अनशन पर बैठे अन्ना हजारे पर कटाक्ष किया है। कांग्रेस महासचिव ने अन्ना को चुनौती देते हुए पूछा है कि उन्हें अब भाजपा नेता लालकृष्ण आडवाणी के घर के बाहर धरना देना चाहिए। लोकपाल बिल पर लोकसभा में हुई सरकार की किरकिरी के बावजूद दिग्विजय ने पीएम मनमोहन सिंह और कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी को लोकपाल बिल पारित होने पर बधाई दी है।
...कांग्रेस महासचिव ने ट्वीट कर कहा है, दिग्विजय ने अन्ना के समर्थक में मंगलवार को प्रदर्शन करने वालों की संख्या गिनाते हुए कहा, ‘हैदराबाद में 150, कोलकाता में 80, मुंबई में 3000, बेंगलुरू में 150, अहमदाबाद में 50 और दिल्ली के रामलीला मैदान में करीब 1000। जेल भरो आंदोलन के लिए रजिस्टर कराने वाले लाखों कहां गए। मीडिया ने दावा किया कि अन्ना को 120 करोड़ लोगों का समर्थन है। ये लोग अब कहां हैं? क्या मीडिया अपने इस अनुमान में संशोधन करेगा ?
..दिग्विजय ने कहा, 'अन्ना जी भगवान के लिए कृपया आप अनशन तोड़ दें और मुझे गलत साबित कर दें। अन्ना का अनशन तुड़वाने के लिए टीम अन्ना के साथ साथ उन लोगों को भी आमरण अनशन करना चाहिए जो अन्ना का समर्थन करते हैं। कम से कम अन्ना की भलाई के लिए तो ऐसा कर ही सकते हैं।
...दिग्विजय ने अन्ना के बहाने एक बार फिर बीजेपी पर भी निशाना साधा है। उन्होंने कहा, 'टीम अन्ना और उनके समर्थक अब भी कांग्रेस, पीएम और कांग्रेस अध्यक्ष के खिलाफ बयानबाजी करेंगे क्योंकि टीम अन्ना बीजेपी/आरएसएस की समर्थक है। टीम अन्ना ने बीजेपी के बारे में कोई प्रतिक्रिया नहीं दी है। अब बीजेपी राज्यसभा में भी एक बार फिर लोकपाल बिल गिराने की कोशिश करेगी। बीजेपी ने लोकपाल और राज्यों में लोकायुक्तों को मजबूती देने के मकसद से लाए गए संविधान संशोधन का विरोध किया जहां 95 फीसदी भ्रष्टाचार है। ऐसे में बीजेपी के प्रति टीम अन्ना की प्रतिक्रिया सुनना दिलचस्प होगा।
...दिग्विजय ने सवालिया लहजे में कहा, 'क्या अब अन्ना आडवाणी जी के घर के बाहर धरना देंगे और राज्यसभा में लोकपाल बिल का विरोध नहीं करने के लिए बीजेपी से कहेंगे? मेरा मानना है कि अन्ना बीजेपी और आरएसएस के खिलाफ एक शब्द भी नहीं बोलेंगे।'
राज्यसभा में गुरुवार को पेश होगा लोकपाल ?
...नई दिल्ली. दिनभर रहे भ्रम की स्थिति को स्पष्ट करते हुए केंद्र सरकार ने बुधवार को साफ किया कि लोकपाल विधेयक संसद के उच्च सदन यानी राज्यसभा में गुरुवार को पेश किया जाएगा। लोकसभा में यह विधेयक मंगलवार को पारित हो गया था। इसके बाद विधेयक के संशोधित संस्करण पर बुधवार सुबह राष्ट्रपति प्रतिभा पाटील की मंजूरी ली गई। विधेयक में चूंकि सरकार ने संशोधन किए थे, इसलिए राज्यसभा में पेश करने के लिए राष्ट्रपति की मंजूरी आवश्यक थी।
...संसदीय कार्य राज्यमंत्री राजीव शुक्ला ने संवाददाताओं से बातचीत में कहा कि लोकसभा में मंगलवार को पारित लोकपाल और लोकायुक्त विधेयक 2011 को गुरुवार को राज्यसभा में पेश किया जाएगा। उन्होंने कहा, "राज्यसभा में गुरुवार को इस पर चर्चा होगी। इससे पहले सरकारी सूत्रों की ओर से कहा गया था कि राज्यसभा में इस विधेयक को आज ही पेश कर दिया जाएगा लेकिन इस पर चर्चा गुरुवार को हो सकेगी।
...इससे पहले, संसदीय कार्य मंत्री पवन कुमार बंसल ने संसद भवन के बाहर संवाददाताओं से कहा, उम्मीद है कि लोकपाल व लोकायुक्त विधेयक, 2011 बुधवार दोपहर राज्यसभा में पेश किया जाएगा।"
सरकार ने लोकसभा में पारित संशोधित विधेयक को राष्ट्रपति के हैदराबाद आवास पर उनकी मंजूरी के लिए भेजा था।
...राष्ट्रपति प्रतिभा पाटील ने संशोधित लोकपाल विधेयक को मंजूरी दे दी। इसके साथ ही इसे राज्यसभा में पेश किए जाने का मार्ग प्रशस्त हो गया। राष्ट्रपति भवन की प्रवक्ता अर्चना दत्त ने यहां बताया कि राष्ट्रपति ने संशोधित लोकपाल विधेयक को स्वीकृति दे दी है। राष्ट्रपति इस समय हैदराबाद में हैं। मंगलवार को लोकसभा में इस विधेयक के पारित होने के बाद सरकार ने इसे राष्ट्रपति के पास भेज दिया था।
लोकसभा में पास हुआ लोकपाल बिल, लेकिन टूट गया राहुल का सपना ?
नई दिल्ली. लोकपाल बिल दिनभर की बहस के बाद मंगलवार रात को लोकसभा में पास हो गया। हालांकि उसे संवैधानिक दर्जा नहीं मिल पाया। संवैधानिक दर्जे के मोर्चे पर सरकार की हार के चलते विपक्ष ने उससे इस्तीफा मांगा।
...बहस में विपक्ष ने इसे कमजोर विधेयक बताते हुए संशोधन पर जोर दिया। रात दस बजे हुई वोटिंग (ध्वनिमत) में विपक्ष के सभी संशोधन खारिज हो गए। सपा और बसपा ने वोटिंग के दौरान वॉकआउट कर दिया। अब इस विधेयक की राज्यसभा में कड़ी परीक्षा होगी।
...लोकायुक्त नियुक्ति की अनिवार्यता से भी पीछे हटना पड़ा सरकार को पूरे 43 साल बाद लोकसभा ने मंगलवार को लोकपाल बिल को मंजूरी दे दी। यह नौवां लोकपाल बिल है। हालांकि इस बार सरकार पूरी कोशिश के बावजूद लोकपाल को संवैधानिक दर्जा नहीं दिला सकी।
...उसे राज्यों में लोकायुक्तों की नियुक्ति के मामले में भी पीछे हटना पड़ा। विपक्ष ने इस पर सरकार को आड़े हाथों लेते हुए इस्तीफा मांगा। भाजपा नेता यशवंत सिन्हा ने कहा कि सरकार को बने रहने का नैतिक रूप से कोई अधिकार नहीं है। इस बीच विपक्ष के सभी संशोधन गिर गए।
...सदन में सरकार के पास दो-तिहाई बहुमत नहीं होने की वजह से लोकपाल को संवैधानिक दर्जा देने संबंधी संविधान संशोधन विधेयक गिर गया। कांग्रेस महासचिव ने लोकपाल को यह दर्जा देने की मांग की थी। सदन में मंगलवार को इसके साथ ही भ्रष्टाचार उजागर करने वालों को सुरक्षा मुहैया कराने संबंधी विधेयक (लोकहित प्रकटन और प्रकट करने वाले व्यक्तियों का संरक्षण विधेयक, 2010) को भी मंजूरी मिल गई। सरकार ने विधेयक में करीब दस संशोधन किए।
...इनमें राज्यों के लिए लोकायुक्तों की नियुक्ति को अनिवार्य किए जाने के प्रावधान को हटा लिया गया है। सरकार ने कहा कि वह सभी मुख्यमंत्रियों की राय के बाद ही इस संबंध में अधिसूचना जारी करेगी। सेना और कोस्ट गार्ड को लोकपाल के दायरे से बाहर रखा गया है।
...साथ ही संसद के सदस्य कार्यकाल पूरा होने के सात साल बाद इसके दायरे में आएंगे। पहले यह अवधि पांच साल थी। विपक्षी पार्टियों ने कॉपरेरेट्स, मीडिया और विदेशी चंदा प्राप्त करने वाले एनजीओ को इसके दायरे में लाने की मांग करते हुए संशोधन प्रस्तुत किए थे। ये अस्वीकृत हो गए।
कौन जाने भविष्य क्या होगा ?
संशोधनों और संवैधानिक दर्जे पर हार के मायने...
सरकार को पता था कि संवैधानिक दर्जे के लिए दो-तिहाई बहुमत उसके पास नहीं है। इसके बावजूद इसकी कोशिश की गई। उसका सोचना था कि यदि भाजपा ने साथ दिया तो राहुल गांधी प्रमोट होंगे। यदि भाजपा ने साथ नहीं दिया तो हमदर्दी लेकर उसे कठघरे में खड़ा किया जाएगा। सरकार लोकायुक्तों के मसले पर सहयोगी दलों को मना नहीं सकी। संवैधानिक दर्जे को लेकर विपक्षी दलों से बात नहीं हुई। सो शर्मिदगी उठानी पड़ी।
‘कभी-कभी ऐसा होता है - मनमोहन सिंह, प्रधानमंत्री (संवैधानिक दर्जा नहीं मिलने की बात पर)
‘दो-तिहाई बहुमत नहीं होने से हारे। इसके लिए भाजपा जिम्मेदार।’ - प्रणब मुखर्जी
1968 में पहली बार तैयार हुआ था बिल
पहली बार 1968 में यह बिल तैयार हुआ था। लोकसभा ने पारित भी किया। लेकिन लोकसभा भंग होने से यह रद्द हो गया। इसके बाद सात बार विधेयक पेश हुआ। पारित नहीं हो पाया। एक बार सरकार ने इसे वापस ले लिया।
यूं चली बहस
विभाजन का नया बीज...
‘धर्म आधारित आरक्षण के जरिए यह बिल विभाजन का नया बीज बोने का काम करेगा। विपक्ष आखों देखी मक्खी नहीं निगल सकता। केंद्र सरकार देशभर में हो रहे आंदोलन की बला को अपने सिर से टालने के लिए आनन-फानन में विधेयक को पारित कराना चाहती है।’
- सुषमा स्वराज, विपक्ष की नेता, लोकसभा
यह षड्यंत्र है
‘यह राजनीतिक षड्यंत्र है। विपक्ष की मंशा है कि यह विधेयक पारित हो ही नहीं। पांच राज्यों के आगामी विधानसभा चुनावों में जनता के बीच उलटे सरकार के खिलाफ प्रचार किया जाए। मुस्लिमों को आरक्षण का भाजपा क्यों विरोध कर रही है ? - कपिल सिब्बल, मानव संसाधन मंत्री
फांसी का घर है लोकपाल
‘द्रोपदी के पांच पति थे, सीबीआई के नौ पति होने जा रहे हैं। इससे पूरा तंत्र अस्त-व्यस्त हो जाएगा। लोकपाल सांसद, अधिकारियों, जनप्रतिनिधियों के लिए फांसी घर है। - लालू प्रसाद यादव, राजद प्रमुख
‘सरकार को आलोचनाओं पर नाराज होने के बजाय उचित राय मान लेनी चाहिए।
- मुलायम सिंह यादव, अध्यक्ष, सपा
कितने कानून बनाओगे, हाथ-पांव बांधकर किसी से कैसे काम कराओगे।
- शरद यादव, अध्यक्ष, जनता दल (यू)
लोकपाल की अपनी जांच एजेंसी होना चाहिए अन्यथा यह बेअसर हो जाएगा।
-बासुदेव आचार्य, माकपा
लोकपाल पर बहस पूरी, प्रणब ने दिए जोरदार जवाब ?
नई दिल्ली. संसद में लोकपाल बिल पर बहस पूरी हो गई है। बहस के अंत में वित्र मंत्री प्रणब मुखर्जी ने सराकार की ओर से विपक्ष और अन्य दलों द्वारा उठाए गए सवालों के जवाब दिए। सरकार पर जल्दबाजी में बिल पास करने के आरोप का जवाब देते हुए प्रणब ने कहा, सरकार जल्दबाजी में बिल नहीं ला रही है। इस बिल पर सरकार में लंबे समय से काम किया जा रहा है।
...लोकपाल बिल को लेकर जब सिविल सोसाटी ने मांग की तो प्रधानमंत्री ने फैसला लिया और सही फैसला लिया कि सिविल सोसायटी के सदस्यों के साथ बैठकर बिल पर चर्चा की जाए और एक प्रभावी बिल बनाया जाए। सरकार की ओर से प्रधानमंत्री ने पांच मंत्रियों, जिन में मैं भी शामिल था चुने। सिविल सोसायटी और सरकार के मंत्रियों के बीच नौ बैठके हुईं। हमने मुख्यमंत्रियों और राजनीतिक पार्टियों को पत्र लिखकर उनका भी रूख मांगा।
...प्रणब ने कहा, हमने बिल बनाया और हम फिर से संसद में आए। तीन जुलाई को हमने सर्वदलीय बैठक बुलाई और सभी की राय मांगी। कुछ राजनीतिक पार्टियों के नेताओं ने हमें पत्र भी लिखे। मैं यह कहना चाहता हूं कि अप्रैल से लेकर दिसंबर तक इस बिल पर गहन चर्चा हुई है और काफी वक्त बिताया गया है। इसलिए यह बिल जल्दबाजी में नहीं लाया जा रहा है।
...अपने भाषण में प्रणब ने कहा, सदन में बिल भी लाया गया लेकिन सिविल सोसायटी का विरोध जारी रहा। राजनेताओं ने संसद में यह कहा कि सिर्फ संसद ही कानून बना सकती है। कुछ पार्टियों ने संसद में तो कहा कि सिर्फ संसद ही कानून बना सकती है जबकि उन पार्टियों के कुछ सदस्यों धरना प्रदर्शनों में भी पहुंचे। मैं ये नहीं कहता कि किसी धरने में शामिल होना गलत है या फिर सिविल सोसायटी के लोगों से बात करना गलत है।
...इसके बाद सरकार को सिविल सोसायटी ने फिर चुनौती दी कि 15 अगस्त तक बिल पास किया जाए नहीं तो फिर से धरना होगा। प्रधानमंत्री ने अन्ना को पत्र लिखा लेकिन उन्होंने नहीं सुनी। फिर से धरना शुरु हुआ। 24 पार्टी को हमने बैठक की, सर्वदलीय बैठक भी हुई।
...सदन में बहस के बाद मेरे द्वारा लिखे गए पत्र को सेंस ऑफ द हाउस कहा गया, लेकिन वो मेरा पत्र नहीं था, वो पूरे सदन का पत्र था, सभी पार्टी अध्यक्षों की राय उसमें शामिल थी। पत्र में संसद ने अन्ना हजारे की मांगों को मानने का वादा किया था। हम अन्ना की तीन मांगों पर राजी हुए थे कि पहला लोकपाल बिल पास हो, दूसरा सिटिजन चार्टर, और तीसरा निचले स्तर के कर्मचारी लोकपाल के दायरे में आएं।
...हमने सदन में बिल इसलिए पेश किया क्योंकि हम देश को यह संदेश देना चाहते थे कि यह बिल लाने के लिए सही वक्त है।
हम जल्द ही संशोधन ला रहे हैं।
...यशवंत सिन्हा द्वारा प्रधानमंत्री के भाषण को विदाई भाषण कहे जाने पर जवाब देते हुए प्रणन ने कहा कि प्रधानमंत्री विदाई भाषण नहीं दे रहे हैं, उन्होंने सरकार के फैसलों में सिविल सोसाइटी की बात को जगह देकर नई शुरुआत की है।
विपक्ष को अभी प्रधानमंत्री की विदाई देखने के लिए इंतेजार करना चाहिए।
...लोकसभा में विपक्ष के हंगामे के चलते संसद की कार्रवाई कई बार स्थगित किए जाने पर बोलते हुए प्रणब ने कहा, मेरी बात से कोई कितना भी इंकार करे, लेकिन मैं मरते वक्त तक ये मानता रहूंगा कि संसद का स्थगित होना समाधान नहीं हो सकता। संसद चर्चा के लिए हैं, यहां चर्चा होनी चाहिए।
...लोकपाल पर प्रणब ने कहा, मैं मानता हूं कि जो बिल सरकार ला रही है वो सर्वश्रैष्ठ नहीं है, लेकिन ये खराब भी नहीं है। ये देश की बहुत सी समस्याओं को सुलझाने में सक्षम है। हम बिल में सुधार करते रहेंगे। देश के कानून में जनता की आवाज शामिल होगी लेकिन कानून संसद में ही बनेंगे, सड़क या चौराहों पर नहीं।
...भाजपा द्वारा सर्वश्रैष्ठ बताए जा रहे उत्तराखंड के लोकायुक्त बिल पर टिप्पणी करते हुए प्रणब ने कहा, उत्तराखंड बिल को सर्वश्रैष्ठ बताया जा रहा है लेकिन वो बिल कहता है कि मुख्यमंत्री को तब तक जांच के दायरे में नहीं लाया जा सकता जब तक पूरा सदन उसकी मंजूरी न दे। प्रणब ने यह भी कहा कि सेना का कोई भी अंग लोकपाल के दायरे में नहीं आएगा।
..अंत में प्रणब ने कहा, मैं सदन से आग्रह करता हूं कि वो इस बिल को स्वीकार करे, यह जल्दबाजी में नहीं लाया गया है। सवाल उठाए जा रहे हैं कि सरकार जानबूझकर जल्दबाजी कर रही है।
ना दिल्ली ना मुंबई में दिखा अन्ना का जलवा ?
मुंबई/दिल्ली. गांधीवादी विचारक अण्णा हजारे का अनशन के पहले दिन मुंबई और दिल्ली में इस बार अगस्त में हुए रामलीला मैदान जैसे नजारे नहीं दिखे। मुंबई और दिल्ली दोनों ही स्थानों पर इस बार भीड़ अपेक्षा से बहुत कम रही।
...अनशन की शुरुआत में सुबह के वक्त तो एमएमआरडीए मैदान में बहुत कम लोग लोग थे, तो दोपहर बाद 5 हजार के आस-पास तक ही भीड़ पहुंच सकी। टीम अन्ना सदस्यों का कहना है कि अन्ना के साथ एमएमआरडीए मैदान में करीब 200 लोग अनशन पर बैठे हैं। हालांकि टीम के लोग कम भीड़ जुटने के कुछ चिंतित जरूर नजर आये, परंतु ऐसा होने के पीछे उन्होंने वजहें भी गिनाई है।
...बता दें कि खुफिया विभाग की चेतावनी के चलते अन्ना को फूल-प्रूफ सुरक्षा दी गई है। 2 हजार कांस्टेबल, 200 पुलिस उप-निरीक्षक, सीआरपीएफ की 6 टुकडिय़ां और रैपिड एक्शन फोर्स की तीन गाडिय़ां मैदान में तैनात की गई है। पुलिस को अनशन के पहले दिन 15 से 20 हजार की भीड़ उमडऩे की उम्मीद थी। परंतु दोपहर तक पुलिस की उम्मीद से कम भीड़ एमएमआरडीए मैदान में जमा हुई थी।
इसलिए नहीं जुटी भीड़ = मुंबई के एमएमआरडीए मैदान में अन्ना के तीन दिवसीय अनशन में कम भीड़ जुटने के अब कई कारण गिनाये जा रहे हैं। जिसमें पहला कारण नौकरीपेशा लोगों द्वारा अनशन के लिए छुट्टी न करना है। इसके अलावा मुंबईवासियों का इस वक्त मूड़ 31 दिसंबर और न्यू ईयर की पार्टी का होना भी माना जा रहा है। इसी तरह बड़ी संख्या में लोगों का क्रिसमस के कारण शहर से बाहर जाना भी कम भीड़ जुटने की एक वजह मानी जा रही है। इन सब वजहों के अलावा एक अतिमहत्वपूर्ण कारण मेलबर्न में आस्ट्रेलिया और भारत के बीच खेला जा रहा मैच भी रहा है।
...दरअसल सुबह के वक्त पीच पर मास्टर ब्लास्टर सचिन तेंदुलकर बल्लेबाजी कर रहे थे। चूंकि महाराष्ट्र विशेषकर मुंबई में उनको पसंद करने वालों की संख्या लाखों में है। लिहाजा मुंबईवासियों ने अण्णा के अनशन में शामिल होने के बदले सुबह सचिन के महाशतक बनने की आस में टीवी के सामने जमे रहना ज्यादा पसंद किया।
दिल्ली में भी नहीं जुट सकी पहले जैसी भीड़
...मुंबई में चल रहे अन्ना के अनशन के साथ ही दिल्ली के रामलीला मैदान में भी अन्ना समर्थक अनशन पर बैठे थे। लेकिन इस बार दिल्ली में भी पहले जैसा जलवा नहीं रहा। सुबह भीड़ बेहद कम थी जो दोपहर में एक हजार के करीब तक पहुंची लेकिन फिर से कम होने लगी। दिल्ली में कार्यक्रम भी तय समय से एक घंटे से अधिक देरी से शुरु हुआ। दिल्ली में लोगों के न आने का कारण घने कोहरे और ठंड को माना जा रहा है।
Monday, 19 December 2011
काम वाली बाई एक दिन अचानक काम पर नहीं आई तो पत्नी ने फोन पर डांट लगाईं अगर तुझे आज नहीं आना था तो पहले बताना था वह बोली - मैंने तो परसों ही फेसबुक पर लिख दिया था क़ि एक सप्ताह के लिए गोवा जा रही हूँ पहले अपडेट रहो फिर भी पता न चले तो कहो पत्नी बोली = तो तू फेसबुक पर भी है उसने जवाब दिया - मै तो बहुत पहले से फेसबुक पर हूँ साहब मेरे फ्रेंड हैं ! बिलकुल नहीं झिझकते हैं मेरे प्रत्येक अपडेट पर बिंदास कमेन्ट लिखते हैं मेरे इस अपडेट पर उन्होंने कमेन्ट लिखा हैप्पी जर्नी, टेक केयर, आई मिस यू, जल्दी आना मुझे नहीं भाएगा पत्नी के हाथ का खाना इतना सुनते ही मुसीबत बढ़ गयी पत्नी ने फोन बंद किया और मेरी छाती पर चढ़ गयी गब्बर सिंह के अंदाज़ में बोली - तेरा क्या होगा रे कालिया ! मैंने कहा -देवी ! मैंने तेरे साथ फेरे खाए हैं वह बोली - तो अब मेरे हाथ का खाना भी खा !
अचानक दोबारा फोन करके पत्नी ने काम वाली बाई से पूछा, घबराये-घबराए तेरे पास गोवा जाने के लिए पैसे कहाँ से आये ? वह बोली- सक्सेना जी के साथ एलटीसी पर आई हूँ पिछले साल वर्माजी के साथ उनकी कामवाली बाई गयी थी तब मै नई-नई थी जब मैंने रोते हुए उन्हें अपनी जलन का कारण बताया तब उन्होंने ही समझाया क़ि वर्माजी की कामवाली बाई के भाग्य से बिलकुल नहीं जलना अगले साल दिसम्बर में मैडम जब मायके जायगी तब तू मेरे साथ चलना ! पहले लोग कैशबुक खोलते थे आजकल फेसबुक खोलते हैं हर कोई फेसबुक में बिजी है कैशबुक खोलने के लिए कमाना पड़ता है इसलिए फेसबुक ईजी है आदमी कंप्यूटर के सामने बैठकर रात-रातभर जागता है बिंदास बातें करने के लिए पराई औरतों के पीछे भागता है लेकिन इस प्रकरण से मेरी समझ में यह बात आई है क़ि जिसे वह बिंदास मॉडल समझ रहा है वह तो किसी की कामवाली बाई है जिसने कन्फ्यूज़ करने के लिए किसी जवान सुन्दर लड़की की फोटो लगाईं है सारा का सारा मामला लुक पर है और अब तो मेरा कुत्ता भी फेसबुक पर है ... एस.एम.फरीद भारती
अन्ना, ससद और संवैधानिक संस्थाएं ?
अन्ना, ससद और संवैधानिक संस्थाएं अन्ना विरोधियों द्वारा एक भ्रामक प्रचार किया जा रहा है कि अन्ना समर्थक ससद को सर्वोच्च नहीं मानते। यह सही नहीं है। भारत का हर नागरिक देश के संविधान व इसके अन्तर्गत बनाई सभी संवैधानिक संस्थाओं पर आस्था रखता है। परन्तु क्या जनता द्वारा चुने गये प्रतिनिधियों का यह उत्तरदायित्व नहीं हैकि वह भी अपने आपको जनता का शासक न मान कर देश की जनता का न्यासधारी माने और जनता के आदेशानुसार ही अपने कर्तव्य का पालन करे?
एक आम आदमी का विश्वास लोकतत्र व उसकी व्यवस्थाओं से इसलिये टूटता है जब वह यह देखता है कि उसकी ससद मे 25 प्रतिशत सदस्य और मंत्री दागी और भ्रष्ट हैं। वही दागी और भ्रष्ट सांसद स्थाई समिति मे भी बैठ कर उसके लिये लोक पाल का कानून बनाकर उसके भाग्य का फ़ैसला करेंगें। हर सही सोच रखने वाले व्यक्ति को अन्ना का आभार मानना चाहिये कि अन्ना हमें वास्तविकता का आभास करा रहे हैं जो कि हम भूलते जा रहे थे। देश में व्याप्त लगभग अंग्रेज़ी शासन को ही लोकतंत्र समझ बैठे थे। एक आम और अशिक्षित व्यक्ति तो लोकतंत्र का सही अर्थ तक नहीं जानता।
कोई भी संवैधानिक संस्था चाहे वह ससद ही क्यों नहो, यदि तानाशाह बन कर देशवासियों की आकांक्षाओं की अवहेलना करती है तो वह किस प्रकार एक आम आदमी से आस्था की आशा रख सकती है। यही तो अन्ना एक आम आदमी की तरह आम आदमी को समझा रहे हैं जो कि वास्तव में सरकार का दायित्व है। पर सरकार ऐसा करके अपने ही पैर में कुल्हाड़ी क्यों मारे? उसकी दुकान तो बन्द हो जाएगी और आदमी पढ लिख कर सारे भ्रष्ट तंत्र का रहस्य समझ जाएगा। यह सरकार व इसके भ्रष्ट तंत्र के हित में बिल्कुल नहीं है।
केवल हमें वोट दो और हमें ससद और विधानसभा मे चुन कर भेज कर सो जाओ। “Just fill it,shut it and forget it”. सरकार केवल इतना ही चाहती है। आज देश में हालत यहहै कि एक बार गलत व लुभावने वायदों के आधार पर ये लोग ससद या विधानसभा मे चुन कर जाते हैं। उसके बाद जनता 5 सालों…एस.एम.फरीद भारती
Wednesday, 14 December 2011
मीडिया के अंडरवर्ल्ड' में 'दिलीप मंडल' की वापसी
दिलीप मंडल
दिलीप मंडल पिछले कुछ समय से मेनस्ट्रीम मीडिया से अलग थे और खुलकर मेनस्ट्रीम मीडिया की खिलाफत कर रहे थे. इसी संदर्भ में उनकी दो किताबें 'मीडिया का अंडरवर्ल्ड' और 'कॉरपोरेट मीडिया-दलाल स्ट्रीट' नाम से भी आ चुकी है.
इंडिया टुडे ग्रुप से जुड़ने के पहले दिलीप मंडल ईटी हिंदी.कॉम, सीएनबीसी - आवाज़ और स्टार न्यूज़ जैसे बड़े संस्थानों के साथ भी काम कर चुके हैं. इंडिया टुडे के साथ उनकी यह दूसरी पारी है. ईटी हिंदी.कॉम से इस्तीफा देने के बाद से वे स्वतंत्र लेखन के अलावा आईआईएमसी में अध्यापन कार्य भी कर रहे थे.
दिलीप मंडल के इंडिया टुडे को ज्वाइन करने के मुद्दे पर फेसबुक पर आयी कुछ प्रतिक्रियाएं :
Avinash Das - सुना है, हमारे अग्रज मित्र दिलीप मंडल इंडिया टुडे के संपादक हो रहे हैं। बधाई, लेकिन यह सच न हो तो बेहतर। मीडिया के अंडरवर्ल्ड में उनकी पुनर्वापसी कई लोगों को खल सकती है।
Ajit Anjum वैसे आप बेकार में चिंता कर रहे हैं . जिस रास्ते से बौद्धिकता के चौराहे तक पहुंचे हैं , वहां से यू टर्न ही तो लेना है ...मुझे नहीं लगता दिलीप जी के लिए मुश्किल होगी ...बहुत समझदार किस्म के आदमी हैं ...कॉरपोरेट पत्रकारिता की मायावी दुनिया में पहले भी काफी लंबे अरसे तक असरदार भूमिका में रहे हैं ...जय हो दिलीप जी की ..
Neeraj Bhatt - मंडल साहब ने जिस इंडिया टुडे को कोरपोरेट के नाम पर जी भर कर गरियाया ,लतियाया और किताबें भी लिख डाली उसी इंडिया टुडे की नैया कैसे पार लगायेंगे?
Shayak Alok - समझ नहीं पा रहा कि इसे मोर्निंग joke मानके ठहाके मारूं या इस सच्चाई से दहल सा जाऊं .. :)
Ajeet Singh लगता है जैसे व्यवस्था को जली-कटी सुनाना, एक ऐसा पजामा है जिसे आप तब तक पहने रखिए जब तक कोई ठीक सी पतलून न मिल जाए। वैसे अपने नाप की पतलून खोजने का हक तो सबको है...कुछ इसे कारोबार के थान में से बनवाते हैं जबकि कईयों को जनसरोकार की खद्दर पसंद है। ये मार्केट च्वाइस तो खूब देता है।
ये भी ततैया की खाल में गुबरैला निकले...कोई आश्चर्य नहीं हुआ. सुनते है उप्र. की माया के दलित-ब्राह्मण सम्मलेन में सपत्नीक पधारे थे ,और जोशो खरोश से माया के नया नारा "हाथी नहीं गणेश है, ब्रम्हा, विष्णु, महेश है" को बुलंद कर रहे थे.
Vijay Jha जूता चांदी का हो तो सर झुकाने में कोई दिक्कत नहीं, सारे आदर्श और नैतिकता इस जूते के तले दब जाता है ! जिसका उदाहरण दिलीप मंडल से बढ़िया और कौन हो सकता है ! जिस मिडिया को अंडरवर्ल्ड कह कर गाली देता था , आज उसी का खिदमतगार बन गया !
Nikhil Anand Giri उन्हें तो 'इंडिया टुमौरो' का संपादक होना चाहिए....'इंडिया टुडे' उनके किसी काम का है नहीं....
Madhukar Rajput क्यों जा रहे हैं वापस मीडिया में। जिसे कीचड़ कहते हैं उसी में वापसी। क्या यह कहावत न कही जाए कि... गारे से गारा मिले मिले कीच से कीच, लुच्चों से लुच्चे मिलें और मिले नीच से नीच।
Ashish Kumar 'Anshu' -''दिलीप मंडल जी के दिखाने के दांत कुछ और खाने के कुछ और हैं..दलित-दलित करके सवर्णों को गाली देते रहे..शादी की एक ब्राह्मण कुल की बेटी से...पहली बार नौकरी जनसत्ता कलकत्ता में ब्राह्मण प्रभाष जोशी ने दी..दूसरी नौकरी इंडिया टुडे में मिलने में भी उसी ब्राह्मण जगदीश उपासने का हाथ रहा, जिसके वे उत्तराधिकारी बने हैं...तीसरी बार अमर उजाला में भी एक सवर्ण प्रवाल मैत्र ने नौकरी दिया..चौथी-पांचवीं बार एसपी सिंह और संजय पुगलिया को छोड़ भी दें तो छठवीं बार भी टाइम्स ऑफ इंडिया की हिंदी वेब साइट इकोनॉमिक टाइम्स की नौकरी भी नीरेंद्र नागर नाम के ब्राह्मण और रामकृपाल नाम के ठाकुर ने दी।'' - राजकुमार पासवान
मीडिया के नए मापदंड
अपराध जगत की खबर देने वाला एक पत्रकार मारा गया। मारे गए पत्रकार को अपराध जगत की बिसात पर प्यादा भी एक दूसरे पत्रकार ने बनाया। सरकारी गवाह एक तीसरा पत्रकार ही बना। यानी अपराध जगत से जुड़ी खबरें तलाशते पत्रकार कब अपराध जगत के लिए काम करने लगे, यह पत्रकारों को पता ही नहीं चला। या फिर पत्रकारीय होड़ ही कुछ ऐसी बन चुकी है कि पत्रकार अगर खबर बनते लोगों का हिस्सा नहीं बनता तो उसकी विश्वसनीयता नहीं होती। यह सवाल ऐसे मौके पर सामने आया है, जब मीडिया की साख को लेकर सवाल और कोई नहीं, प्रेस परिषद उठा रही है।
पत्रकार को पत्रकार होने या कहने से बचने के लिए मीडिया शब्द से ही हर कोई काम चला रहा है, जिसे संयोग से इस दौर में उद्योग मान लिया गया है। ‘मीडिया इंडस्ट्री’ शब्द का भी खुल कर प्रयोग किया जा रहा है। तो इस बारे में कुछ कहने से पहले जरा पत्रकारीय काम से संबंधित उस सवाल को समझ लें, जो मुंबई में ‘मिड डे’ के पत्रकार जे डे की हत्या के बाद ‘एशियन एज’ की पत्रकार जिग्ना वोरा की मकोका में गिरफ्तारी के बाद उठा है। पुलिस फाइलों में दर्ज टिप्पणियां बताती हैं कि जे डे की हत्या छोटा राजन ने इसलिए करवाई, क्योंकि जे डे उसके बारे में जानकारी एक दूसरे अपराध-सरगना दाऊद इब्राहिम को दे रहे थे। ‘एशियन एज’ की पत्रकार जिग्ना वोरा ने छोटा राजन को जे डे के बारे में फोन पर जानकारी इसलिए बिना हिचक दी, क्योंकि उसे अंडरवर्ल्ड की खबरों को बताने-दिखाने में अपना कद जे डे से भी बड़ा करना था।
दरअसल, पत्रकारीय हुनर में कथित विश्वसनीयता समेटे जो पत्रकार सबसे पहले खबर दे दे उसका कद बड़ा माना जाता है। जब मलेशिया में छोटा राजन पर जानलेवा हमला हुआ और हमला दाऊद इब्राहिम ने करवाया यह खबर जैसे ही अखबार के पन्नों पर जे डे ने छापी तो समूची मुंबई में करंट दौड़ गया था। क्योंकि अपराध जगत के बारे में जानकारी रखने के मामले में जे डे की विश्वसनीयता मुंबई पुलिस और खुफिया एजेंसियों से ज्यादा थी। उस खबर को देख कर ही मुंबई पुलिस से लेकर राजनीतिक तक सक्रिय हुए, क्योंकि सियासत के तार हर धंधे से, यहां तक कि अपराध जगत से भी कहीं न कहीं मुंबई में जुडेÞ हैं। यानी अपराध जगत से जुड़ी कोई भी खबर मुंबई के लिए क्या मायने रखती है और ऐसी खबरें बताने वाले पत्रकार की हैसियत क्या हो सकती है, इसका अंदाजा लगाया जा सकता है।
ऐसे में बड़ा सवाल यहीं से खड़ा होता है कि पत्रकार जिस क्षेत्र की खबरों को लाता है क्या उसकी विश्वसनीयता का मतलब सीधे उस संस्थान या उन व्यक्तियों से सीधे संपर्क से आगे का रिश्ता बनाना हो जाता है? या फिर, यह अब के दौर में एक पत्रकारीय जरूरत है? अगर बारीकी से इस दौर के पत्रकारीय मिशन को समझें तो सत्ता से सबसे ज्यादा निकट पत्रकार की विश्वसनीयता सबसे ज्यादा बना दी गई है। यह सत्ता हर क्षेत्र की है। प्रधानमंत्री जिन पांच संपादकों को बुलाते हैं अचानक उनका कद बढ़ जाता है। मुकेश अंबानी से लेकर सुनील मित्तल सरीखे कॉरपोरेट घरानों की नई पहल की जानकारी देने वाले बिजनेस पत्रकार की विश्वसनीयता बढ़ जाती है। मंत्रिमंडल विस्तार और कौन मंत्री बन सकता है इस बारे में पहले से जानकारी देने देने वाले पत्रकार का कद तब और बढ़ जाता है जब वह सही होता है। मगर क्या यह संभव है कि जो पत्रकार ऐसी खबरें देते हैं वे उस सत्ता के हिस्से न बने हों, जहां की खबरों को जानना ही पत्रकारिता का नया मापदंड हो गया है। क्या यह संभावना खारिज की जा सकती है कि जब कॉरपोरेट या राजनीतिक सत्ता किसी पत्रकार को खबर देती है तो सबसे पहले खबर पाने या लाने की उसकी विश्वसनीयता का लाभ न उठा रही हो। पत्रकार सत्ता के जरिए अपने हुनर को तराशने से लेकर खुद को ही सत्ता का प्रतीक न बना रहा हो।
ये सारे सवाल इसलिए मौजूं हैं, क्योंकि राजनीतिक गलियारे में कॉरपोरेट दलालों के खेल में पत्रकार को कॉरपोरेट कैसे फांसता है यह राडिया प्रकरण में खुल कर सामने आ चुका है। यहां यह सवाल खड़ा हो सकता है कि ‘एशियन एज’ की पत्रकार जिग्ना वोरा पर तो मकोका लग जाता है, क्योंकि अपराध जगतउस कानून के दायरे में आता है, लेकिन राजनीतिक सत्ता और कॉरपोरेट के खेल में शामिल किसी पत्रकार के खिलाफ कभी कोई एफआईआर भी दर्ज नहीं होती। क्या सत्ता को मिले विशेषाधिकार की तर्ज पर सत्ता से सटे पत्रकारों के लिए भी यह विशेषाधिकार है?
दरअसल, पत्रकारीय हुनर की विश्वसनीयता का ही यह कमाल है कि सत्ता से खबर निकालते-निकालते खबरची भी अपने आप में सत्ता हो जाते हैं। धीरे-धीरे खबर कहने-बताने का तरीका सरकारी नीतियों और योजनाओं को बांटने में भागीदारी से जा जुड़ता है। यह हुनर जैसे ही किसी रिपोर्टर में आता है उसे आगे बढ़ाने में राजनीतिकों से लेकर कॉरपोरेट या अपने-अपने क्षेत्र के सत्ताधारी लग जाते हैं। यहीं से पत्रकार का संपादकीकरण होता है जो मीडिया कारोबार का सबसे चमकता हीरा माना जाता है। यहां हीरे की परख खबरों से नहीं मीडिया कारोबार में खड़े अपने मीडिया हाउस को आर्थिक लाभ दिलाने से होती है। यह मुनाफा मीडिया हाउस को दूसरे धंधों से लाभ कमाने की तरफ भी ले जाता है और दूसरे धंधे करने वालों को भी मीडिया क्षेत्र में पूंजी लगाने के लिए ललचाता है। हाल के दौर में समाचार चैनलों का लाइसेंस जिस तरह चिटफंड कंपनियों से लेकर रियल-इस्टेट के धुरंधरों को मिला, उसकी नब्ज कैसे सत्ता अपने हाथ में रखती है या फिर इन मालिकान के समाचार चैनल में पत्रकारिता का पहला पाठ भी कैसे पढ़ा जा सकता है, जब लाइसेंस पाने की कवायद में समूची सरकारी मशीनरी ही संदिग्ध तरीके से चलती है। मसलन, लाइसेंस पाने वालों की फेहरिस्त में वैसे भी हैं जिनके खिलाफ टैक्स चोरी से लेकर आपराधिक मामले तक दर्ज हैं।
लेकिन पैसे की कोई कमी नहीं है और सरकार की जो शर्तें पैसे को लेकर लाइसेंस पाने के लिए हैं, उन्हें कोई पूरा करता है तो संबंधित धंधा कर सकता है। लेकिन ये परिस्थितियां कई सवाल भी खडेÞ करती हैं। मसलन, पत्रकारिता भी धंधा है। धंधे की तर्ज पर यह भी मुनाफा बनाने की गरज पर ही टिका है। फिर सरकार का भी कोई फर्ज है कि वह लोकतंत्र के चौथे स्तंभ को बनाए-टिकाए रखने के लिए पत्रकारीय मिशन के अनुकूल कोई व्यवस्था करे।
दरअसल, इस दौर में तकनीक ही नहीं बदली या तकनीक पर ही पत्रकार को नहीं टिकाया गया, बल्कि खबरों के माध्यम में विश्वसनीयता का सवाल उस पत्रकार के साथ जोड़ा भी गया और वैसे पत्रकारों का कद महत्त्वपूर्ण बनाया गया जो सत्ता के अनुकूल हो या राजनेता के लाभ को खबर बना दे।
अखबार की दुनिया में पत्रकारीय हुनर काम कर सकता है। लेकिन समाचार चैनलों में कैसे यह हुनर काम करेगा, जब समूचा वातावरण ही नेता-मंत्री को स्टूडियो में लाने में लगा हो। अगर अंग्रेजी के राष्ट्रीय समाचार चैनलों की होड़ को देखें तो प्राइम टाइम में वही चैनल या संपादक बड़ा माना जाता है जिसकी स्क्रीन पर सबसे महत्त्वपूर्ण नेताओं की फौज हो। यानी मीडिया की आपसी लड़ाई एक दूसरे को दिखाने-बताने के समांतर विज्ञापन के बाजार में अपनी ताकत का अहसास कराने की ही है। इस पूरी प्रक्रिया में आम दर्शक या वह आम आदमी है कहां, जिसके लिए पत्रकार ने सरोकार की रिपोर्टिंग का पाठ पढ़ा।
मीडिया को लोकतंत्र का चौथा स्तंभ माना गया। अगर खुली बाजार व्यवस्था में पत्रकारिता को भी बाजार में खुला छोड़ कर सरकार यह कहे कि अब पैसा है तो लाइसेंस लो, पैसा है तो काम करने का अपना आधारभूत ढांचा बनाओ, प्रतिद्वंद्वी चैनलों से अपनी तुलना मुनाफा बनाने या घाटे को कम करने के मद्देनजर करो, तो क्या होगा? ध्यान दीजिए, मीडिया का यही चेहरा अब बचा है। ऐसे में किसी कॉरपोरेट या निजी कंपनी से इतर किसी मीडिया हाउस की पहल कैसे हो सकती है! अगर नहीं हो सकती तो फिर चौथे खंभे का मतलब क्या है? सरकार की नजर में मीडिया हाउस और कॉरपोरेट में क्या फर्क होगा? कॉरपोरेट अपने धंधे को मीडिया की तर्ज पर क्यों नहीं बढ़ाना-फैलाना चाहेगा। मसलन, सरकार कौन-सी नीति ला रही है, मंत्रिमंडल की बैठक में किस मुद्दे पर चर्चा होनी है, ऊर्जा क्षेत्र हो या आधारभूत ढांचा या फिर संचार हो या खनन, सरकारी दस्तावेज अगर पत्रकारीय हुनर तले चैनल की स्क्रीन या अखबार के पन्नों पर यह न बता पाए कि सरकार किस कॉरपोरेट या कंपनी को लाभ पहुंचा रही है, तो फिर पत्रकार क्या करेगा। जाहिर है, सरकारी दस्तावेजों की भी बोली लगेगी और पत्रकार सरकार से लाभ पाने वाली कंपनी या लाभ पाने के लिए बेचैन किसी कॉरपोरेट घराने के लिए काम करने लगेगा। राजनीतिकों के बीच भी उसकी आवाजाही इसी आधार पर होने लगेगी। संयोग से दिल्ली और मुंबई में पत्रकारों की एक बड़ी फौज मीडिया छोड़ कॉरपोरेट का काम सीधे देखने से लेकर उसके लिए दस्तावेज जुगाड़ने तक में लगी हुई है।
ये परिस्थितियां बताती हैं कि मीडिया घराने की रफ्तार निजी कंपनी से होते हुए कॉरपोरेट बनने की दिशा पकड़ रही है। और पत्रकार होने का मतलब किसी कॉरपोरेट की तर्ज पर अपने मीडिया घराने को लाभ पहुंचाने वाले कर्मचारी की तरह होता जा रहा है। ऐसे में प्रेस परिषद मीडिया को लेकर सवाल खड़े करती है तो चौथा खंभा और लोकतंत्र की परिभाषा हर किसी को याद आने लगती है। मगर नई परिस्थितियों में संकट दोहरा है।
सुप्रीम कोर्ट से सेवानिवृत्त होते ही न्यायमूर्ति काटजू प्रेस परिषद के अध्यक्ष बन जाते हैं और अदालत की तरह फैसले सुनाने की दिशा में बढ़ना चाहते हैं। वहीं उनके सामने अपने-अपने मीडिया घरानों को मुनाफा पहुंचाने या घाटे से बचाने की मशक्कत में जुटी संपादकों की फौज खुद का संगठन बना कर और मीडिया की नुमाइंदी का एलान कर सरकार पर नकेल कसने के लिए प्रेस परिषद के तौर-तरीकों पर बहस शुरू कर देती है।
ऐसे में क्या यह संभव है कि पत्रकारीय समझ के संदर्भ में मीडिया पर बहस हो। अगर नहीं, तो फिर आज ‘एशियन एज’ की जिग्ना वोरा कटघरे में हैं, कल कई होंगे। आज राडिया प्रकरण में कई पत्रकार सरकारी घोटाले की बिसात पर हैं तो कल इस बिसात पर पत्रकार ही राडिया में बदलते दिखेंगे। (मूलतः जनसत्ता में प्रकाशित. जनसत्ता से साभार)
दरअसल, पत्रकारीय हुनर में कथित विश्वसनीयता समेटे जो पत्रकार सबसे पहले खबर दे दे उसका कद बड़ा माना जाता है। जब मलेशिया में छोटा राजन पर जानलेवा हमला हुआ और हमला दाऊद इब्राहिम ने करवाया यह खबर जैसे ही अखबार के पन्नों पर जे डे ने छापी तो समूची मुंबई में करंट दौड़ गया था। क्योंकि अपराध जगत के बारे में जानकारी रखने के मामले में जे डे की विश्वसनीयता मुंबई पुलिस और खुफिया एजेंसियों से ज्यादा थी। उस खबर को देख कर ही मुंबई पुलिस से लेकर राजनीतिक तक सक्रिय हुए, क्योंकि सियासत के तार हर धंधे से, यहां तक कि अपराध जगत से भी कहीं न कहीं मुंबई में जुडेÞ हैं। यानी अपराध जगत से जुड़ी कोई भी खबर मुंबई के लिए क्या मायने रखती है और ऐसी खबरें बताने वाले पत्रकार की हैसियत क्या हो सकती है, इसका अंदाजा लगाया जा सकता है।
ऐसे में बड़ा सवाल यहीं से खड़ा होता है कि पत्रकार जिस क्षेत्र की खबरों को लाता है क्या उसकी विश्वसनीयता का मतलब सीधे उस संस्थान या उन व्यक्तियों से सीधे संपर्क से आगे का रिश्ता बनाना हो जाता है? या फिर, यह अब के दौर में एक पत्रकारीय जरूरत है? अगर बारीकी से इस दौर के पत्रकारीय मिशन को समझें तो सत्ता से सबसे ज्यादा निकट पत्रकार की विश्वसनीयता सबसे ज्यादा बना दी गई है। यह सत्ता हर क्षेत्र की है। प्रधानमंत्री जिन पांच संपादकों को बुलाते हैं अचानक उनका कद बढ़ जाता है। मुकेश अंबानी से लेकर सुनील मित्तल सरीखे कॉरपोरेट घरानों की नई पहल की जानकारी देने वाले बिजनेस पत्रकार की विश्वसनीयता बढ़ जाती है। मंत्रिमंडल विस्तार और कौन मंत्री बन सकता है इस बारे में पहले से जानकारी देने देने वाले पत्रकार का कद तब और बढ़ जाता है जब वह सही होता है। मगर क्या यह संभव है कि जो पत्रकार ऐसी खबरें देते हैं वे उस सत्ता के हिस्से न बने हों, जहां की खबरों को जानना ही पत्रकारिता का नया मापदंड हो गया है। क्या यह संभावना खारिज की जा सकती है कि जब कॉरपोरेट या राजनीतिक सत्ता किसी पत्रकार को खबर देती है तो सबसे पहले खबर पाने या लाने की उसकी विश्वसनीयता का लाभ न उठा रही हो। पत्रकार सत्ता के जरिए अपने हुनर को तराशने से लेकर खुद को ही सत्ता का प्रतीक न बना रहा हो।
ये सारे सवाल इसलिए मौजूं हैं, क्योंकि राजनीतिक गलियारे में कॉरपोरेट दलालों के खेल में पत्रकार को कॉरपोरेट कैसे फांसता है यह राडिया प्रकरण में खुल कर सामने आ चुका है। यहां यह सवाल खड़ा हो सकता है कि ‘एशियन एज’ की पत्रकार जिग्ना वोरा पर तो मकोका लग जाता है, क्योंकि अपराध जगतउस कानून के दायरे में आता है, लेकिन राजनीतिक सत्ता और कॉरपोरेट के खेल में शामिल किसी पत्रकार के खिलाफ कभी कोई एफआईआर भी दर्ज नहीं होती। क्या सत्ता को मिले विशेषाधिकार की तर्ज पर सत्ता से सटे पत्रकारों के लिए भी यह विशेषाधिकार है?
दरअसल, पत्रकारीय हुनर की विश्वसनीयता का ही यह कमाल है कि सत्ता से खबर निकालते-निकालते खबरची भी अपने आप में सत्ता हो जाते हैं। धीरे-धीरे खबर कहने-बताने का तरीका सरकारी नीतियों और योजनाओं को बांटने में भागीदारी से जा जुड़ता है। यह हुनर जैसे ही किसी रिपोर्टर में आता है उसे आगे बढ़ाने में राजनीतिकों से लेकर कॉरपोरेट या अपने-अपने क्षेत्र के सत्ताधारी लग जाते हैं। यहीं से पत्रकार का संपादकीकरण होता है जो मीडिया कारोबार का सबसे चमकता हीरा माना जाता है। यहां हीरे की परख खबरों से नहीं मीडिया कारोबार में खड़े अपने मीडिया हाउस को आर्थिक लाभ दिलाने से होती है। यह मुनाफा मीडिया हाउस को दूसरे धंधों से लाभ कमाने की तरफ भी ले जाता है और दूसरे धंधे करने वालों को भी मीडिया क्षेत्र में पूंजी लगाने के लिए ललचाता है। हाल के दौर में समाचार चैनलों का लाइसेंस जिस तरह चिटफंड कंपनियों से लेकर रियल-इस्टेट के धुरंधरों को मिला, उसकी नब्ज कैसे सत्ता अपने हाथ में रखती है या फिर इन मालिकान के समाचार चैनल में पत्रकारिता का पहला पाठ भी कैसे पढ़ा जा सकता है, जब लाइसेंस पाने की कवायद में समूची सरकारी मशीनरी ही संदिग्ध तरीके से चलती है। मसलन, लाइसेंस पाने वालों की फेहरिस्त में वैसे भी हैं जिनके खिलाफ टैक्स चोरी से लेकर आपराधिक मामले तक दर्ज हैं।
लेकिन पैसे की कोई कमी नहीं है और सरकार की जो शर्तें पैसे को लेकर लाइसेंस पाने के लिए हैं, उन्हें कोई पूरा करता है तो संबंधित धंधा कर सकता है। लेकिन ये परिस्थितियां कई सवाल भी खडेÞ करती हैं। मसलन, पत्रकारिता भी धंधा है। धंधे की तर्ज पर यह भी मुनाफा बनाने की गरज पर ही टिका है। फिर सरकार का भी कोई फर्ज है कि वह लोकतंत्र के चौथे स्तंभ को बनाए-टिकाए रखने के लिए पत्रकारीय मिशन के अनुकूल कोई व्यवस्था करे।
दरअसल, इस दौर में तकनीक ही नहीं बदली या तकनीक पर ही पत्रकार को नहीं टिकाया गया, बल्कि खबरों के माध्यम में विश्वसनीयता का सवाल उस पत्रकार के साथ जोड़ा भी गया और वैसे पत्रकारों का कद महत्त्वपूर्ण बनाया गया जो सत्ता के अनुकूल हो या राजनेता के लाभ को खबर बना दे।
अखबार की दुनिया में पत्रकारीय हुनर काम कर सकता है। लेकिन समाचार चैनलों में कैसे यह हुनर काम करेगा, जब समूचा वातावरण ही नेता-मंत्री को स्टूडियो में लाने में लगा हो। अगर अंग्रेजी के राष्ट्रीय समाचार चैनलों की होड़ को देखें तो प्राइम टाइम में वही चैनल या संपादक बड़ा माना जाता है जिसकी स्क्रीन पर सबसे महत्त्वपूर्ण नेताओं की फौज हो। यानी मीडिया की आपसी लड़ाई एक दूसरे को दिखाने-बताने के समांतर विज्ञापन के बाजार में अपनी ताकत का अहसास कराने की ही है। इस पूरी प्रक्रिया में आम दर्शक या वह आम आदमी है कहां, जिसके लिए पत्रकार ने सरोकार की रिपोर्टिंग का पाठ पढ़ा।
मीडिया को लोकतंत्र का चौथा स्तंभ माना गया। अगर खुली बाजार व्यवस्था में पत्रकारिता को भी बाजार में खुला छोड़ कर सरकार यह कहे कि अब पैसा है तो लाइसेंस लो, पैसा है तो काम करने का अपना आधारभूत ढांचा बनाओ, प्रतिद्वंद्वी चैनलों से अपनी तुलना मुनाफा बनाने या घाटे को कम करने के मद्देनजर करो, तो क्या होगा? ध्यान दीजिए, मीडिया का यही चेहरा अब बचा है। ऐसे में किसी कॉरपोरेट या निजी कंपनी से इतर किसी मीडिया हाउस की पहल कैसे हो सकती है! अगर नहीं हो सकती तो फिर चौथे खंभे का मतलब क्या है? सरकार की नजर में मीडिया हाउस और कॉरपोरेट में क्या फर्क होगा? कॉरपोरेट अपने धंधे को मीडिया की तर्ज पर क्यों नहीं बढ़ाना-फैलाना चाहेगा। मसलन, सरकार कौन-सी नीति ला रही है, मंत्रिमंडल की बैठक में किस मुद्दे पर चर्चा होनी है, ऊर्जा क्षेत्र हो या आधारभूत ढांचा या फिर संचार हो या खनन, सरकारी दस्तावेज अगर पत्रकारीय हुनर तले चैनल की स्क्रीन या अखबार के पन्नों पर यह न बता पाए कि सरकार किस कॉरपोरेट या कंपनी को लाभ पहुंचा रही है, तो फिर पत्रकार क्या करेगा। जाहिर है, सरकारी दस्तावेजों की भी बोली लगेगी और पत्रकार सरकार से लाभ पाने वाली कंपनी या लाभ पाने के लिए बेचैन किसी कॉरपोरेट घराने के लिए काम करने लगेगा। राजनीतिकों के बीच भी उसकी आवाजाही इसी आधार पर होने लगेगी। संयोग से दिल्ली और मुंबई में पत्रकारों की एक बड़ी फौज मीडिया छोड़ कॉरपोरेट का काम सीधे देखने से लेकर उसके लिए दस्तावेज जुगाड़ने तक में लगी हुई है।
ये परिस्थितियां बताती हैं कि मीडिया घराने की रफ्तार निजी कंपनी से होते हुए कॉरपोरेट बनने की दिशा पकड़ रही है। और पत्रकार होने का मतलब किसी कॉरपोरेट की तर्ज पर अपने मीडिया घराने को लाभ पहुंचाने वाले कर्मचारी की तरह होता जा रहा है। ऐसे में प्रेस परिषद मीडिया को लेकर सवाल खड़े करती है तो चौथा खंभा और लोकतंत्र की परिभाषा हर किसी को याद आने लगती है। मगर नई परिस्थितियों में संकट दोहरा है।
सुप्रीम कोर्ट से सेवानिवृत्त होते ही न्यायमूर्ति काटजू प्रेस परिषद के अध्यक्ष बन जाते हैं और अदालत की तरह फैसले सुनाने की दिशा में बढ़ना चाहते हैं। वहीं उनके सामने अपने-अपने मीडिया घरानों को मुनाफा पहुंचाने या घाटे से बचाने की मशक्कत में जुटी संपादकों की फौज खुद का संगठन बना कर और मीडिया की नुमाइंदी का एलान कर सरकार पर नकेल कसने के लिए प्रेस परिषद के तौर-तरीकों पर बहस शुरू कर देती है।
ऐसे में क्या यह संभव है कि पत्रकारीय समझ के संदर्भ में मीडिया पर बहस हो। अगर नहीं, तो फिर आज ‘एशियन एज’ की जिग्ना वोरा कटघरे में हैं, कल कई होंगे। आज राडिया प्रकरण में कई पत्रकार सरकारी घोटाले की बिसात पर हैं तो कल इस बिसात पर पत्रकार ही राडिया में बदलते दिखेंगे। (मूलतः जनसत्ता में प्रकाशित. जनसत्ता से साभार)
पुण्य प्रसून बाजपेयी, ज़ी न्यूज़ (भारत का पहला समाचार और समसामयिक चैनल) में प्राइम टाइम एंकर और सम्पादक हैं। पुण्य प्रसून बाजपेयी के पास प्रिंट और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया में 20 साल से ज़्यादा का अनुभव है। प्रसून देश के इकलौते ऐसे पत्रकार हैं, जिन्हें टीवी पत्रकारिता में बेहतरीन कार्य के लिए वर्ष 2005 का ‘इंडियन एक्सप्रेस गोयनका अवार्ड फ़ॉर एक्सिलेंस’ और प्रिंट मीडिया में बेहतरीन रिपोर्ट के लिए 2007 का रामनाथ गोयनका अवॉर्ड मिला।
Sunday, 11 December 2011
टीवी पत्रकारिता सच दिखाने को ही नहीं, सच सुनने को भी तैयार नहीं ?
प्रियदर्शन
मीडिया के सरोकारों को समझने की जरूरत ?
भारतीय प्रेस परिषद के नवनियुक्त अध्यक्ष मार्कंडेय काटजू ने कहा है कि मीडिया पर अंकुश लगाने के लिए प्रेस परिषद के विस्तार और उसे ताकतवर बनाने की जरूरत है। इसके अलावा उन्होंने मीडिया के व्यवहार और मीडियाकर्मियों के बौद्धिक स्तर को लेकर भी अपनी राय जाहिर की है। इसे लेकर संपादकों की जमात बेहद नाराज है। काटजू ने मीडिया के व्यवहार से जुड़े कुछ तथ्य पेश किए हैं। इन्हीं तथ्यों के आधार पर उन्होंने परिषद को ताकतवर बनाने की मांग की है। मीडिया के मालिक और संपादक उन तथ्यों को लेकर खामोश हैं।
काटजू ने मीडिया के सामाजिक सरोकार से विचलन और उसके सांप्रदायिक चरित्र पर सवाल खड़े किए हैं। उन्होंने उदाहरण के रूप में देश भर में अब तक हुए बम विस्फोटों की खबरों को लेकर मीडिया के रुख पर सवाल खड़े किए हैं। ‘देश भर में जहां कहीं बम विस्फोट की घटनाएं होती हैं, फौरन चैनल उनमें इंडियन मुजाहिदीन, जैश-ए-मोहम्मद, हरकत उल-अंसार जैसे संगठनों का हाथ होने या किसी मुसलिम नाम से इ-मेल या एसएमएस आने की खबरें चलाने लगते हैं। इस तरह चैनल यह जाहिर करने की कोशिश करते रहे हैं कि सभी मुसलमान आतंकवादी या बम फेंकने वाले हैं। इसी तरह मीडिया जानबूझ कर लोगों को धार्मिक आधार पर बांटने का काम करता रहा है। ऐसी कोशिशें राष्ट्रविरोधी हैं।’
न्यूज़ चैनलों को महानायक का महाडोज!
देश के मीडिया ने महा-नायक की पुत्र-वधू ऐश्वर्या की होने वाली संतान की खबरें, संतान के जन्म से पहले ही तानना शुरु कर दीं। भारत के न्यूज-चैनलों की भाषा में किसी खबर को “अति” तक पहुंचाने के लिए जो शब्द इस्तेमाल होता है, उसे ही “तानना” कहते हैं। दूसरे शब्दों में तानने का मतलब ये भी होता है, कि दर्शक को कोई चीज इस हद तक दिखा दो बार-बार, कि उसे “उल्टी” (बोमेटिंग) होने लगे।
महानायक और उनका परिवार समझदार है। बच्चन खानदान अपनी पोजीशन और देश के मीडिया की हकीकत से भली-भांति वाकिफ हैं। मीडिया ने जैसे ही ऐश्वर्या राय बच्चन के संतान पैदा होने की “डेट”, बच्चन परिवार से पहले खुद ही तय कर डाली....11.11.11, उसी समय बच्चन परिवार के कान खड़े हो गये। बच्चन खानदान के कान इसलिए खड़े हो गये कि ऐश्वर्या राय के संतान तो ईश्वर द्वारा निर्धारित समय पर ही जन्म लेगी, लेकिन मीडिया उससे पहले न मालूम कितनी बार ऐश्वर्या को “मां” बनवा चुका होगा। सिर्फ और सिर्फ अपनी “ब्रेकिंग” के फेर में।
बस बच्चन परिवार का मीडिया को लेकर यही अनुभव एकदम कुलांचें (छलांगें) मारने लगा। जब मीडिया ने अपनी खबरों में तय कर दिया, कि ऐश्वर्या 11.11.11 को संतान को जन्म देंगीं। बात तारीख का खुलासा करने तक ही रहती तो भी बच्चन परिवार सहन कर लेता। देश के सबसे तेज मीडिया को। हद तो ये हो गयी, कि जिस अस्पताल में बच्चन परिवार की बहू बच्चा जनेंगीं(पैदा करेंगी) उसका नक्शा मतलब पूरा भूगोल तक मीडिया ने सामने ला दिया। बस इसे ही “अति” कहते हैं।
बच्चन परिवार जानता था कि मीडिया को मनाने से कोई फायदा नहीं। जितना मीडिया को मनाने की कोशिश करेंगे, उतना ही वो और फैलेगा। सो अमिताभ बच्चन ने मोर्चा संभाला। और दो टूक ऐलान कर दिया कि उनके घर जन्म लेने वाले नन्हें मेहमान के बारे में अगर किसी ने जरा भी कलम चलाई(अखबार) या मुंह खोला(न्यूज चैनल)। तो उनकी खैर नहीं। सदी के महा-नायक की ये “घुड़की” असर कर गयी।
अरे ये क्या? घुड़की इस कदर असर करेगी या फिर घुड़की की “डोज” (खुराक) इतनी “ओवर” (जरुरत से ज्यादा) हो जायेगी, ये तो बच्चन खानदान ने सपने में भी नहीं सोचा था, कि उनके घर में आने वाले नन्हें मेहमान की खबर मीडिया से बिलकुल ही नदारद हो गयी। बिलकुल वैसे ही जैसे बिचारे किसी गंजे के सिर से बाल ।
मीडिया ने 11.11.11 को ऐश्वर्या के संतान पैदा होने की जो खबरें प्लांट कीं, सो कीं। प्लांट इसलिए कि बच्चा 11.11.11 को न पैदा होना था, न हुआ । बच्चा ईश्वर द्वारा निर्धारित दिन तारीख पर ही बच्चन परिवार में शामिल हुआ। लेकिन मीडिया की लगाम कसना बच्चन परिवार को भी कहीं न कहीं कुछ अलग से अहसास जरुर करा गया। वो अहसास, जिसकी कल्पना भी बच्चन परिवार ने नहीं की होगी।
ऐश्वर्या की कोख से बेटी ने जन्म लिया। बच्चन परिवार ने इस खुशी को अपने मुताबिक “इन्ज्वाय” किया। बिना किसी शोर-शराबे, धूम-धड़ाके के। अस्पताल के गेट पर न किसी न्यूज-चैनल का कैमरा, न किसी अखबार का कोई रिपोर्टर। बिलकुल सन्नाटा। बच्चन परिवार के सदस्यों ने पहली बार अपनी किसी खुशी में शायद ऐसा सन्नाटा अपनी आंखों से देखा। जिसमें इंसानों की बात बहुत दूर की रही, कौवा भी अस्पताल की मुंडेर (दीवार का कोना) पर नये मेहमान की खुशी में कुछ बोलने के लिए नहीं आया । बच्चन परिवार अस्पताल की चार-दिवारी में डाक्टर, नर्सों और कुछ अपने परिवारीजनों के बीच, “सिमटी” खुशी मनाता रहा। शायद इसी सन्नाटे से बच्चन परिवार के मेम्बरों के दिमाग में तूफान उठा। और याद आये होंगे जिंदगी के वो लम्हे, जब छोटी-छोटी बातों पर मीडिया वाले महा-नायक की एक झलक, एक बाइट (न्यूज चैनल की भाषा में इंटरव्यू) के लिए घंटों उनकी देहरी पर एड़ियां रगड़ते थे । झकझोर दिया होगा, महा-नायक को अपने ही फैसले ने। कानों में दूर-दूर तक कहीं से भी नहीं सुनाई दे रही थीं मीडिया वालों की, वो आवाजें...सर प्लीज इधर देखिये...सर प्लीज एक मिनट...अमित जी प्लीज एक सेकेंड...रुकिये...। और न ही पड़ रही थीं, चेहरे पर सौ-सौ कैमरों की लाइटें। शायद अब अहसास हो गया था, बच्चन परिवार को अपने एक उस फैसले का। जिसने उन्हें कर दिया एक झटके में अपने तमाम चाहने वालों से दूर। खबरों और सुर्खियों से दूर। और रास्ता बचा था, अपनी खुशी को बांटने का उनके पास तो बस... ट्विटर ..ट्विटर.. ट्विटर...और ब्लॉग.....जिस पर खुद ही पिता पुत्र बार-बार लिख रहे थे...खुद ही...
ऐश्वर्या के बेटी हुई है...हमारे घर में नन्हीं परी आयी है...अमिताभ के सुपुत्र अभिषेक बच्चन और उनकी बेगम साहिबा यानि अमिताभ की पुत्र वधू ऐश्वर्या राय बच्चन सोशल नेटवर्किंग साइट पर जाकर पूछ रही/ रहे कि उनकी बेटी के लिए “ए” अक्षर से शुरु होने वाला खूबसूरत सा नाम सुझायें आप लोग। आप लोग से मतलब बच्चन खानदान को चाहने वाले।
जब मैने अमिताभ और उनके परिवार को ब्लॉग और ट्विटर पर इस हाल में बार-बार, कई बार देखा, तो मुझे भी अहसास हुआ, कि आखिर कितना खला होगा, महा-नायक को अपना ही एक वो फैसला, जिसने उन्हें खुशी बांटने में भी कर दिया अपनों से बेगाना। अकेला । एक दम तन्हा । बच्चन साहब हर इंसान अपने आप में कभी परिपूर्ण नहीं हो सकता। न आप और न मैं। बच्चन साहब ईश्वर ने हर इंसान के दिमाग (मष्तिष्क) का वजन तीन पौंड ही रखा है, लेकिन सबकी सोच अलग बनाई है।
मैं मानता हूं कि मार्डन मीडिया की “अति” से किसी को भी एलर्जी हो सकती है। इसका मतलब ये तो नहीं, कि इस एलर्जी से आप खुद ही अपनी खुशियों को अपनों के साथ बांटने के रास्ते ही बंद कर लें ।
(लेखक न्यूज़ एक्सप्रेस में एडिटर (क्राइम) के तौर पर काम कर रहे हैं.
संपर्क -patrakar1111@gmail.com . उनके ब्लॉग क्राइम वारियर से साभार )
न्यूज़ चैनलों के लिए बाजार बड़ा है या आत्म-नियमन ?
आत्मनियमन को लेकर अपनी ईमानदारी का सबूत देने के लिए चैनलों के संपादकों ने मिल-जुलकर ‘तीसरी कसम’ के हीरामन की तर्ज पर तीन नहीं, दस कसमें खाई हैं. इनका लब्बोलुआब यह है कि चैनल जानी-मानी अभिनेत्री ऐश्वर्या राय के बच्चे के जन्म की रिपोर्टिंग करते हुए बावले नहीं होंगे.
वैसे कहते हैं कि कसमें तोड़ने के लिए ही होती हैं. देखें, इस कसम पर चैनल कितने दिन टिकते हैं और सबसे पहले इसे कौन तोड़ता है? नहीं-नहीं, संपादकों और उनकी कसम की ईमानदारी पर मुझे कोई शक नहीं है. उनकी बेचैनी भी कुछ हद तक समझ में आती है. उनमें से कई थक गए हैं, कुछ पूरी ईमानदारी से उस अंधी दौड़ से बाहर निकलना चाहते हैं जिसके कारण चैनलों के न्यूजरूम में अधिकतर फैसले संपादकीय विवेक से कम और इस डर से अधिक लिए जाते हैं कि अगर हमने इसे तुरंत नहीं दिखाया तो हमारा प्रतिस्पर्धी चैनल इसे पहले दिखा देगा.
लेकिन क्या इस अंधी दौड़ से बाहर निकलना इतना आसान है? शायद नहीं. असल में, सिर्फ संपादकों के हाथ में कंटेंट की बागडोर होती है. उन पर कोई बाहरी दबाव मतलब टीआरपी का दबाव नहीं होता तो शायद इतनी मुश्किल नहीं होती. लेकिन कमान उनके हाथ में नहीं है. वह बाजार के हाथ में है. बाजार टीआरपी से चलता है. इसलिए चैनलों के लिए कंटेंट के मामले में नीचे गिरने की इस अंधी दौड़ से बाहर निकलना न सिर्फ मुश्किल बल्कि नामुमकिन दिखने लगा है. वजह साफ है. जहां टीआरपी के लिए ऐसी गलाकाट होड़ हो, संपादकीय फैसले प्रतिस्पर्धी चैनलों को देखकर लिए जाते हों और सभी भेड़ की तरह एक-दूसरे के पीछे गड्ढे में गिरने को तैयार हों, वहां इस अंधी दौड़ का सबसे पहला शिकार आत्मानुशासन और आत्मनियमन ही होता है.
यह संभव है कि इस बार ऐश्वर्या राय के मामले में न्यूज चैनल अपनी कसम निभा ले जाएं. लेकिन इस कसम की असल परीक्षा यह नहीं है कि ऐश्वर्या राय के मामले में चैनलों ने अपनी कसम कितनी ईमानदारी से निभाई. असल सवाल यह है कि क्या चैनलों को ऐसे हर मामले पर संयम बरतने के लिए सामूहिक कसम खानी पड़ेगी. क्या चैनलों का अपना संपादकीय विवेक इतना कमजोर हो चुका है कि वे खुद यह फैसला करने में अक्षम हो गए हैं कि क्या दिखाया जाना चाहिए और क्या नहीं? क्या यह इस बात का सबूत नहीं है कि चैनल बिना किसी बाहरी हस्तक्षेप के आत्म- नियंत्रण करने में सक्षम नहीं रह गए हैं? सवाल है कि जिन मामलों में चैनलों ने सामूहिक कसम नहीं खाई होगी मतलब बीईए ने निर्देश नहीं जारी किए होंगे, क्या उन चैनलों को खुला खेल फर्रुखाबादी की छूट होगी? हैरानी की बात नहीं है कि जिन दिनों ऐश्वर्या राय के मामले में बीईए के निर्देशों को आत्म-नियमन के मेडल की तरह दिखाया जा रहा था, उन्हीं दिनों दो हिंदी न्यूज चैनलों ने खुलकर और कुछ ने दबे-छुपे राजस्थान के भंवरी देवी हत्याकांड में भंवरी और आरोपित कांग्रेसी नेताओं की सेक्स सीडी दिखाई. सवाल है कि इस सेक्स सीडी को दिखाने के पीछे उद्देश्य क्या था? इसमें कौन सा जनहित शामिल था? क्या यह ‘अच्छे टेस्ट’ में था? आश्चर्य नहीं कि केंद्र सरकार ने इस मामले में दोनों चैनलों को नोटिस भेजने में देर नहीं लगाई. सवाल है कि सरकार को अपनी नाक घुसेड़ने का मौका किसने दिया.
दूसरी ओर, एक गंभीर अंग्रेजी चैनल में आत्मनियमन का हाल यह है कि उसके एक प्राइम टाइम लाइव शो में आध्यात्मिक गुरु श्री श्री रविशंकर का घंटों पहले किया गया इंटरव्यू ऐसे दिखाया गया मानो वे उस चर्चा में लाइव शामिल हों. साफ तौर पर यह धोखाधड़ी थी. कार्यक्रम के अतिथि रविशंकर के साथ भी और दर्शकों के साथ भी. इसके लिए चैनल की खूब लानत-मलामत हुई है. शुरुआती ना-नुकुर और तकनीकी बहानों के बाद चैनल ने अपनी गलती को ‘अनजाने में हुई गलती’ बताते हुए माफी मांग ली है. लेकिन क्या यह अनजाने में हुई गलती थी या समझ-बूझकर की गई थी? इसी चैनल पर कुछ महीने पहले प्राइम टाइम में फर्जी ट्विटर संदेश दिखाने का आरोप लगा था. न सिर्फ ये ट्विटर संदेश फर्जी और न्यूजरूम में लिखे गए थे बल्कि उनमें बहस में एक खास पक्ष लिया गया था. चैनल ने उसे भी ‘अनजाने में हुई गलती’ बताकर माफी मांग ली थी. इन दोनों प्रकरणों से एक बात पक्की है कि चैनल के संपादक ‘जाने में’ मतलब सोच-समझकर काम नहीं कर रहे हैं.
ऐसे में, यह अंदाज़ा लगाना मुश्किल नहीं है कि इस हालत में कितने चैनलों को मौके पर उन कसमों-निर्देशों की याद आएगी और कितने अनजाने में उन्हें भूल जाएंगे. देखते रहिए. (तहलका से साभार)
आनंद प्रधान : भारतीय जनसंचार संस्थान में अध्यापक. तहलका और कथादेश में नियमित स्तंभ. बनारस हिंदू विश्वविद्यालय से पत्रकारिता में पीएचडी. शोध का विषय - प्रिंट मीडिया और आतंकवाद. संपर्क :apradhan28@gmail.com , ब्लॉग : http://teesraraasta.blogspot.com
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